जीवन में अगर छाँव है तो धूप भी है । सुख है , तो दुःख भी है । आराम है , तो काम भी है ।
कुछ ऐसे ही अनुभव हुए , अभी पिछले दिनों ।
अचानक ब्लॉगजगत में ऐसा हो गया जैसा पिछले वर्ष काव्य जगत में हुआ था ।
शायद अदा जी की पिछली पोस्ट --हिंदी ब्लॉग जगत के स्वर्णिम दिन काहे को उकताए हैं ?--- का यही ज़वाब है ।
अपनों से बिछुड़ने का ग़म तो होता ही है ।
और जब बिछुड़ने वाला ऐसा हो तो , कुछ ज्यादा ही होता है --
अस्सी के बुजुर्ग या अस्सी के ज़वान !
ऐसे में सभी मित्रों, रिश्तेदारों और हितैषियों द्वारा दिया गया समर्थन ही इंसान को यह दुःख बर्दास्त करने का हौसला देता है ।
मैं उन सभी मित्रों का आभारी हूँ जिन्होंने इस समय अपनी टिप्पणी , ईमेल , एस एम् एस , फोन या व्यक्तिगत रूप से मुझे बल प्रदान किया ।
और भी बहुत से मित्र हैं जो व्यक्तिगत अतिव्यस्तता के रहते संपर्क नहीं कर पाए । लेकिन मैं जानता हूँ , उनकी दुआएं हमारे साथ हैं ।
नोट : कृपया इस पोस्ट पर टिप्पणी न दें ।
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ReplyDeleteडा. दराल मुझे रोहतक मे पता चला बहुत दुख हुया।आपके पिता जी को विनम्र श्रद्धाँजली। भगवान परिवार को इस दुख को सहने की शक्ति दे।
ReplyDeleteआपके पूज्य पिताश्री को भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ!
ReplyDeleteईश्वर उन्हें सदगति और उनकी आत्मा को अपने चरणों में स्थान दे!
Vinamra shraddhanjali
ReplyDeletebahut jaldi hi milta hun
aapase.
डा .सा :;
ReplyDeleteकृपया दिवंगत पिताजी ने सार्वजानिक हितार्थ जो कार्य किये हैं उनके बारे में ब्लाग साथियों को बता सकें तो बेहतर रहेगा ,हम लोगों को भी प्रेरणा मिलेगी.इस प्रकार उनकी आत्मा को भी शान्ति मिलेगी.
माथुर साहब , कृपया पिछली पोस्ट पर देखें ।
ReplyDeleteक्षमा प्रार्थी हूँ की आपकी नयी पोस्ट में टिप्पणी डालने का प्रावधान न होने के कारण टिप्पणी इस पोस्ट में दे रहा हूँ:
ReplyDeleteउदाहरण के तौर पर, मैं जब छोटा था और देश की राजधानी दिल्ली शहर में ही रहता था, तो उस समय (लगभग ६ -७ दशक पहले) खाना पकाने के लिए अपनी माँ को चूल्हे में कोयले और लकड़ी को प्रयोग में लाते देखता था,,, उसको जलाने के लिए फूंक मारते मारते आँखें लाल हो जाती थीं…और दूसरी ओर 'हिन्दुओं' द्वारा मृत शरीर को श्मशान घाट पर जलाने के लिए भी लकड़ी का ही प्रयोग होता था, जैसा अब भी होता है कहीं कहीं,,, यद्यपि अब एक ओर खाना बनाने के लिए गैस के चूल्हे आ गए हैं और दूसरी ओर श्मशान घाट में बिजली का उपयोग भी होने लगा है कुछ हद तक...
अब यदि मैं दिल्ली अथवा मुंबई में रहते चाहूं कि मैं उन दिनों के समान लोहे की बाल्टी काट के बनी अंगीठी और लकड़ी-कोयले आदि का ही उपयोग करूं तो पहले तो उसकी बाज़ार में बिक्री की व्यवस्था ही नहीं होने के कारण मैं कर नहीं पाऊँगा,,,और मान लीजिये कहीं से उनका इंतजाम कर भी लूं तो क्या मैं अपने बच्चों से उनका उपयोग करा पाऊँगा?
इसी प्रकार, शायद उनके विषय में ज्ञान की कमी, और अन्य विभिन्न परिस्थितियों के कारण, किसी काल में अपनाई गयी प्रथा को नकारा नहीं जा सकता जब तक कोई उसकी गहराई में जाने का प्रयास न करे सत्य (मानव जीवन के ड्रामा) / परमसत्य (केवल निराकार परमात्मा की सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उपस्तिथि) तक पहुँचने के लिए (जैसे गीता में दर्शाए मानव का 'आत्मा' मात्र माना जाना, और आत्मा के काल-चक्र में ऊपर अथवा नीचे जाने और माया के कारण ८४ लाख विभिन्न शरीरों का आभास होना परमात्मा को अपनी विभिन्न आँखों के माध्यम से; और 'गरुड़ पुराण' में आत्मा के विषय में दर्शाई गयी मान्यता से सम्बंधित जानकारी पाने हेतु)...
ईश्वर बाबू जी की आत्मा को शांति प्रदान करे. हम सब आपके साथ हैं.
ReplyDeleteपिताश्री को भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ!
ReplyDeleteडॉ दाराल
ReplyDeleteनयी पोस्ट से टिप्पड़ी बक्सा नहीं दिख रहा है कृपया उसे ठीक करें !
सादर
ओह ... बड़ा अफ़सोस हुवा जान कर डा. दाराल ... इस्वर आपको ये दुःख सहने की ताकत दे ....
ReplyDeleteपिता जी को विनम्र श्रद्धाँजली ...