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Monday, January 28, 2013

दिल्ली की सर्दियों में शादी और शादी में खाने की बर्बादी ---


एक समय था जब एक के बाद एक सभी मित्रों की शादी होने लगी थीं। अब 25-30 साल बाद जिंदगी का दूसरा दौर शुरू हो गया है जब मित्रों के बच्चों की शादियाँ होने लगी हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है जैसे पहले जिसकी बधाई गाई  थी, अब उसी का सेहरा गा रहे हैं। शायद यही जीवन चक्र है जो अविरल चलता रहता है। उस ज़माने में शादियाँ भी घर के पास सड़क पर या गली में या पार्क में टेंट गाड़कर हो जाती थी। लेकिन अब ऐसा संभव नहीं। आजकल मिडल और अपर मिडल क्लास में शादियाँ या तो फार्म हाउस में होती हैं या किसी सितारा होटल में। लो मिडल और लो क्लास की पहुँच समुदाय भवन तक ही होती है जो लगभग हर कॉलोनी में बने हैं। लेकिन आजकल शादियों का स्वरुप इस कद्र बदल गया है कि कुछ बातों पर विशेष ध्यान देना अत्यंत आवश्यक हो गया है। पिछली पोस्ट में आपने शादियों की तैयारियों के बारे में पढ़ा। आइये अब आपको एक आधुनिक शादी में लेकर चलते हैं। 

शादी में कितने बजे पहुंचा जाये ?

सबसे पहले तो विचार करने की बात यह है कि शादी में कितने बजे पहुंचा जाये। कार्ड में कुछ भी लिखा हो, लेकिन यदि आप रात 9 बजे से पहले पहुँच गए तो यह निश्चित है कि आपका स्वागत करने वाला कोई नहीं मिलेगा। उलटे आपको ही मेजबानों का स्वागत करना पड़ सकता है। एक कार्ड में लिखा था , बारात ठीक सात बजे पहुँच जाएगी, और शादी की सभी रस्में , 11 बजे तक संपन्न हो जाएँगी। हम अक्सर समय के पाबंद रहते हैं। इसलिए जल्दी घर आकार पत्नी से कहा -  भई जल्दी से तैयार हो जाओ, छै बज चुके हैं। पत्नी बोली -- एक घंटा पहले बन ठन कर क्या हो जायेगा। मैंने कहा भाग्यवान, एक घंटा तो तुम्हारे श्रृंगार में ही लग जायेगा। फिर भी पत्नी ने सजने में पूरे दो घंटे लगाये और हम विवाहस्थल पर साढ़े आठ बजे ही पहुँच पाए। जाकर देखा तो पाया , कुछ लोग इधर उधर चक्कर लगा रहे थे। पता चला वे तो टेंट वाले थे, अभी टेबल चेयर लगा रहे थे। आखिर फिर वही काम करना पड़ा। बाहर खड़े होकर बारात का इंतजार करना पड़ा।  

बारात :

अब यदि आपको लड़की की शादी का निमंत्रण मिला है तो ज़ाहिर है आप सीधे विवाहस्थल ही पहुंचेगे। लेकिन आजकल लड़के की शादी में भी मेहमान बारात के साथ चलने के बजाय सीधे पंडाल में ही पहुँच जाते हैं। इसलिए क्या बाराती और क्या घराती , सब एक सामान नज़र आते है। इसका फायदा कभी कभी कुछ युवक फ़ोकट में मेहमान बनकर दावत उड़ाकर उठाते हैं।  हमने देखा है कि आजकल बाराती तो सीधे  विवाहस्थल पर पहुँच जाते हैं , और दुल्हे के साथ एक घोड़ी , दो रिश्तेदार, और बाकि बैंडवाले ही रह जाते हैं। उधर दुल्हे के चंद दोस्त दारू चढ़ाकर बैंड के साथ हुडदंग मचा रहे होते हैं, इधर बाराती और घराती सब मिलकर दावत उड़ा रहे होते हैं। फिर जाते जाते दूल्हा दिख गया तो बधाई , वर्ना लिफाफा पिता को सोंप काम तो निपटा ही दिया था भाई ।   

खाना :

शादियों में सभी मेहमानों को भी,चाहे लड़के वालों की तरफ से हों या लड़की वालों की तरफ से, बस एक ही काम होता है , खाने का काम। दिल्ली जैसे बड़े शहर में अक्सर शादियों में जान पहचान वाले या तो बहुत कम मिलते हैं या हेलो हाय करने के बाद अपने में मस्त हो जाते हैं। वैसे भी शादियों में डी जे का इस कद्र शोर होता है  कि बात करने के लिए भी, जोर लगाना पड़ता है। लेकिन गौर से देखा जाये तो बात करने की नौबत ही कहाँ आती है, क्योंकि तीस आइटम्स खाने के बाद पता चलता है , अभी तो चालीस और बाकि हैं।  

सबसे पहले तो गेट में घुसते ही ताबेदार ट्रे में रंग बिरंगे पेय पदार्थ लिए तत्परता से आपका स्वागत करते हैं, मानो कड़ाके की ठंड में भी प्यास से आपका गला सूख रहा हो। फिर आप ढूंढते हैं अपने मेज़बान को क्योंकि उनके पास तो इतनी फुर्सत होती नहीं कि वे स्वयं आपसे मिल सकें। आरंभिक औपचारिकतायें निभाने के बाद आप स्वतंत्र होते हैं खाद्य यात्रा पर निकलने के लिए। हमारे जैसे बुद्धिमान मेहमान यात्रा का आरम्भ करते हैं फ्रूट चाट की दुकान से-- मांफ कीजिये फ्रूट स्टाल से। कभी इम्पोर्टेड कपड़ों का बोलबाला होता था , आजकल इम्पोर्टेड फ्रूट्स का होता है। 
चाट पापड़ी: इसके बाद एक ही लाइन में गोल गप्पे , भल्ला पापड़ी , आलू  चाट , आलू टिक्की ,  चिल्ला , पाव भाजी , राज कचोरी , लच्छा टोकरी देखकर आप राजसी भोजन का आनंद लेने से खुद को नहीं रोक पाएंगे।   
पंजाबी रसोई :  यहाँ आपको मिलेंगे छोले बठूरे , मक्के दी रोटी ते सरसों दा साग , साथ में लस्सी जिन्हें खाने के लिए मंजी ( खाट ) बिछाई गई हैं। 
दक्षिण भारतीय : इस स्टाल पर गर्मागर्म सांभर के साथ डोसा , इडली , बड़ा आदि तुरंत तैयार मिलेगा। 
चाइनीज़ : यदि आपका चीनी खाना खाने का मूड है तो चाउमीन , नूडल्स , मंचूरियन आदि आप सामने खड़े होकर बनवा सकते हैं। 
पिज़्ज़ा : यहाँ आप जो भी टॉपिंग चाहेंगे , बिना हील हुज्ज़त के पाइपिंग हॉट पिज़्ज़ा के साथ पाएंगे। 
स्नैक्स : अलग अलग तरह के स्नैक्स जो अक्सर ड्रिंक्स के साथ लिए जाते हैं, वेटर्स ट्रे में लिए बार बार आपके सामने लेकर आते रहेंगे। अंतत: आप स्वयं ही बोर होकर उन्हें देखते ही हाथ से इशारा कर भगाते नज़र आयेंगे। 
सूप : इतना कुछ खाने के बाद अब निश्चित ही आपको एपेटाईज़र की ज़रुरत महसूस होने लगेगी, वर्ना खाना कैसे खाया जायेगा । एक्स्ट्रा मसाले डाल कर आप सूप को एक्स्ट्रा स्ट्रोंग बनाकर मेन कोर्स के लिए साहस जुटाते हैं और आगे बढ़ जाते हैं प्लेट उठाने के लिए प्लेट्स के प्लेटफोर्म की ओर। आखिर एक प्लेट तो आपके नाम की भी रखी गई है जिसका आप न अनादर कर सकते हैं, न उपेक्षा।                   
एक ज़माना था जब लोग लड़की की शादी में प्लेट यह सोचकर छोड़ देते थे कि लड़की के पिता का कुछ खर्चा बचेगा। और चाट पकोड़ी खाकर ही पेट भर लेते थे।  लेकिन आजकल यह सोच आउटडेटड हो गई है। 

खाने का आखिरी पड़ाव : होता है सम्पूर्ण खाना। लेकिन यह क्या -- सामने एक स्टाल और बची है जहाँ मिल रहे हैं तवे की रोटी और दाल , तवा रोटी और साग , तवा सब्जियां और इन सबके साथ नान , तंदूरी रोटी , मिस्सी रोटी और देसी घी का तड़का। अब आपका कन्फ्यूज होना स्वाभाविक है। क्या गेट से होकर हॉल में प्रवेश करना चाहिए जहाँ रखे हैं सजे सजाये -- तरह तरह के पुलाव, पनीर की कई तरह की सब्जियां , मटर मशरूम , कोफ्ते, दही भल्ले , कढ़ी कोफ्ते, आलू भाजी , पालक कोफ्ते, और भी न जाने कितने तरह की सब्जियां जिन्हें देखकर लगता है जैसे अभी तक किसी ने उन्हें छुआ ही न हो। आखिर कन्फ्यूजन में आप क्या खाएं , यह आपको स्वयं भी न समझ आता है , न निर्णय कर पाते हैं।  

एक और आखिरी पड़ाव : 

अंत में आप स्वीट्स की ओर अग्रसर होते हैं। थोड़ा सा गाजर हलवा , मूंग का हलवा भी थोड़ा सा , दो चार जलेबियाँ , उस पर रबड़ी , एक गुलाब जामुन भी रख ही लेते हैं। अब तक प्लेट भर चुकी है , इसमें और रखने की जगह नहीं बची। कोई बात नहीं,  आइस क्रीम के साथ रसमलाई एक अलग प्लेट में बाद में ले लेंगे। सब चट करने के बाद अब इसे हज्म करने के लिए गर्मागर्म दूध तो होना चाहिए , मलाई मार के। किसी तरह मुश्किल से ख़त्म कर के बाहर आते हैं, टाई के पीछे पेट पर हाथ फिराते हुए। बस अब तो घर का रास्ता नापना चाहिए। 

लेकिन यह क्या , बाहर जाने का रास्ता तो दुल्हे ने घेर कर रखा है जो पिछले आधे घंटे से न जाने क्या कर रहे हैं कि अन्दर आ ही नहीं रहे। आप सोचते हैं , चलो कॉफ़ी ही हो जाये , उसे भी क्यों छोड़ा जाये।  जब तक कॉफ़ी ख़त्म करेंगे तब तक तो रास्ता साफ हो ही जायेगा। अंतत : गेट पर आकर पता चलता है कि पान मुफ्त में मिल रहे हैं तो क्यों न यह शौक भी फरमा लिया जाये। यार सादा ही लगाना , मीठा अब नहीं खाया जायेगा -- यह कहते हुए पान का बीड़ा मूंह में डालते हैं , और चल पड़ते हैं मूंह हाथ से पोंछते हुए, गाड़ी की ओर यह सोचते हुए कि :

*  हम शादियों में ऐसे ठूंस ठूंस कर क्यों खाते हैं जैसे एक ड्राइवर गाड़ी को हिला हिला कर पेट्रोल भरवाता है टैंक फुल करवाने के लिए ? 
* शादियों में इतना खाना ही क्यों बनवाते हैं जो खाया ही न जाये ? 
* बाहर खाने के इतने सारे व्यंजन होने के बाद क्या अन्दर के खाने की आवश्यकता रह जाती है ? 
ज़रा सोचिये।    

Wednesday, January 23, 2013

सर्दी एक महीना और ताम झाम बारह महीना ---


दिल्ली में दिसंबर जनवरी के महीने कड़ाके की सर्दी के महीने होते हैं। इन दिनों सारे गर्म कपडे जो महीनों से बिस्तरबंद कैद में पड़े रहते हैं , स्वतंत्रता की सर्द हवा खाते हुए हमें गर्मी का अहसास देने के लिए कैद से छूट जाते हैं। यही समय शादियों का भी होता है। हालाँकि इस वर्ष शादियों का साया बहुत ही कम समय तक रहा। लेकिन शादियों में वे कपड़े बहुत इज्ज़त पाते हैं जिनका बाकि समय कोई विशेष योगदान नहीं रहता। आखिर कुछ तो फर्क होता ही है आम और खास में, फिर वो कपड़े हों या पहनने वाला। इत्तेफ़ाक देखिये कि दोनों ही आम,  सारी जिंदगी पिसते रहते हैं जबकि खास कभी कभी ही कष्ट करते हैं , अपनी सुरक्षा के घेरे से निकलने का। 

दिल्ली में सर्दी तो अत्यधिक होती है लेकिन बस एक या डेढ़ महीने। इसलिए गर्म कपड़े बाहर कम और अन्दर ज्यादा रहते हैं। एक बार खरीद लीजिये तो चलते भी बरसों हैं। लेकिन पहनने का अवसर कम ही आता है। यदि गर्म कपड़ों को देखें तो , हजारों की कीमत के सूट साल में एक या दो बार ही पहने जाते हैं। महिलाओं की साड़ियों की बात करें तो स्थिति और भी भयावह होती है। उनकी भारी साड़ियों का नंबर तो अक्सर जिंदगी में एक बार ही आता होगा। जब भी किसी शादी में जाना होता है तो हम तो अपना एक आरक्षित सूट निकाल लेते हैं, लेकिन श्रीमती जी के सामने यही सवाल आ उठता है कि क्या पहना जाये। अमुक साड़ी तो वहां पहनी थी, दोबारा कैसे पहन सकते हैं। हम समझाते हैं कि भाग्यवान जब हमें ही याद नहीं तो किसी और को क्या याद होगा। इस पर उनका वही नारीवादी नारा होता है कि आप तो मेरी ओर देखते ही कहाँ हैं। इस विषय में हो सकता है कि महिलाओं का नजरिया अलग हो क्योंकि उनकी पैनी नज़र से एक दूसरे का पहनावा और मेकअप बच नहीं सकता। शुक्र है कि पुरुष इस ओर कोई ध्यान नहीं देते , इसलिए जो भी पहन लो , सब चलता है। 

वैसे किसी को याद रहे या न रहे , लेकिन एक बात तो अवश्य है कि किसी मित्र के यहाँ दूसरी शादी में जल्दी ही जाना पड़े तो कपड़ों का ध्यान रखना आवश्यक हो जाता है, क्योंकि आजकल वीडियो और फोटो में देखकर यह पता चलना स्वाभाविक है कि आपने क्या पहना है। हालाँकि यहाँ भी पुरुषों को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सबके सूट लगभग एक जैसे ही होते हैं। वैसे भी अधिकांश पुरुष पहनावे के मामले में काफी लापरवाह होते हैं। या तो सूट ठीक से प्रेस नहीं होगा, या टाई नहीं पहनी होगी। सही मायने में सूटेड बूटेड पुरुष आम शादियों में कम ही नज़र आते हैं।    

हम तो पिछले पांच वर्ष से विशेष अवसरों के लिए एक ही सूट सुरक्षित रखे हुए हैं। छोटे मोटे से ब्रांडेड सूट को अरमानी समझ कर पहनते हैं, फिर कमीज़ भी ऐसी पहनते हैं जिसे कहीं और नहीं पहन सकते। टाई पहनते ज़रूर हैं लेकिन गाँठ बांधनी आज तक नहीं आई। ज़रुरत पड़ने पर श्रीमती जी या बच्चों से बंधवा लेते हैं। हमें तो टाई गले में फंदा सा लगती है लेकिन शादियों में पहनना पड़ता है। हालाँकि सरकारी सेवा में रहते हुए सूट पहनने की आदत सी ही नहीं रहती। वैसे भी एक डॉक्टर का काम ही ऐसा होता है कि सूट पहनने की न ज़रुरत होती है , न यह संभव होता है।        



यह फोटो चलने से पहले श्रीमती जी ने अपने नए सैमसंग मोबाईल से लिया है। अब इसमें पीसा की मीनार जैसा इफेक्ट आ रहा है तो यह कैमरे की गलती नहीं है। इस फोन का 5 मेगा पिकसल कैमरा तो वास्तव  में बड़ा अच्छा है। लेकिन अभ्यास करना पड़ेगा जो हमें कराना भी पड़ेगा। वर्ना कुछ का कुछ हो सकता है। 

अगली पोस्ट में देखिएगा शादियों में खाने की बर्बादी पर एक टिप्पणी। 

Thursday, December 23, 2010

दिल्ली की शादियाँ --अंतिम भाग

पिछली पोस्ट में आपने शादियों का एक पिछड़ा हुआ रूप देखा । आजकल शादियों में ऐसी बद इन्तजामी देखने में नहीं आती । क्योंकि आजकल शादियाँ भी एक इवेंट मेनेजमेंट हो गई हैं । बस ऑर्डर बुक कराइए और निश्चिन्त होकर एन्जॉय करिए ।

आज प्रस्तुत है दिल्ली की शादियों के अनेक रूप जो हमने पिछले दो साल में अटेंड की गई शादियों से लिए हैं

)
एक
शादी के कार्ड में लिखा था, बारात
ठीक सात बजे पहुँच जाएगी ।
और शादी की सब रस्में
ग्यारा बजे तक पूर्ण हो जाएँगी ।

भाग दौड़ कर साढ़े आठ बजे
जब हम विवाह स्थल पर पहुंचे
तो देखा , कुछ लोग इधर उधर चक्कर लगा रहे थे
पता चला वे टेंट वाले थे , टेबल चेयर लगा रहे थे ।

हमने पत्नी से कहा , चलिए
वही काम फिर एक बार करते हैं
बाहर गेट पर खड़े होकर ,
बारात का इंतजार करते हैं ।

आधे घंटे बाद एक नवदम्पत्ति आये
हमें देख बड़े प्यार से मुस्कराए ।

लड़का बोला , बेटी की शादी मुबारक हो
हम लड़के वालो की तरफ से आये हैं ।
मैंने कहा बेटा गलत मत समझो
हम भी बारात में ही आए हैं ।

तभी हिलते डुलते एक बुजुर्ग आए
आते ही हम पर चिल्लाये ।
मैंने तो मंत्री जी से फोन करवाया था
आप यहाँ कैसे , ये लॉन तो हमने बुक करवाया था ।

मैंने कहा श्रीमान , तैश में मत आइये
इस पर आप का ही अधिकार है ।
लेकिन जल्दी से टेंट लगवाइए ,
बारात आ चुकी है , बस दुल्हे का इंतजार है ।

2)

आजकल बाराती तो सीधे
विवाहस्थल पर पहुँच जाते हैं ।
और दुल्हे के साथ एक घोड़ी , दो रिश्तेदार
और बाकि बैंड वाले ही रह जाते हैं ।

इधर दूल्हा दुल्हन के पिता मेहमानों का
गेट पर ही मिलकर , करते हैं स्वागत ।
और दूल्हा आये या न आये , अपनी बला से
बाराती घराती सब जमकर, उड़ाते हैं दावत ।

फिर जाते जाते दूल्हा
दिख गया तो बधाई।
वर्ना लिफाफा पिता को सौंप ,
काम तो निपटा ही दिया था भाई ।

शादियों में डी जे का भी ,
इस कदर होता है शोर ।
कि बात करने के लिए भी ,
लगाना पड़ता है जोर ।

वैसे गौर से देखा जाये तो
बात करने की नौबत ही कहाँ आती है ।
तीस आईटम खाओ तो पता चलता है
अभी तो चालीस और बाकि हैं ।

कुछ लोग तो ऐसे अहंकारी
कि बुलाने पर भी नहीं आते है ।
कुछ ऐसे बेशर्म कि बिन बुलाये
टेंट फाड़कर ही घुस जाते हैं ।

फिर दस बीस उड़ाते हैं गुलाब जामुन
और बाकि से भर ले जाते हैं दामन ।

)

इस भीड़ भाड़ में , कौन है अपना कौन पराया
किसने निमंत्रण स्वीकारा , कौन नहीं आया ।
दूल्हा कैसा दिखता है , दुल्हन की कैसी सूरत है
यह न कोई देखता है , न देखने की ज़रुरत है ।

क्योंकि आजकल मेहमानों को वर बधु से
ज्यादा
प्यारा होता है खाना ।
और मेजबानों को मेहमानों से ज्यादा
प्यारा , लिफाफों का आना ।

और इसी आवागमन की शिकार
प्रेम संबंधों की ख्वाइश हो गई है ।
शादियाँ आजकल काले धन की
बेख़ौफ़ नुमाइश हो गई हैं ।

Monday, December 20, 2010

दिल्ली की शादियाँ --भाग II

इससे पहले कि हम दिल्ली में शादियों की श्रंखला को आगे बढ़ाएं, मैं आभार प्रकट करना चाहता हूँ , मर्मज्ञ: "शब्द साधक मंच"वाले श्री ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी का , जिन्होंने अंतर्मंथन का सौवां फोलोवर बनकर इस नाचीज़ को भी ब्लॉग जगत के विशिष्ठ ब्लोगर्स की श्रेणी में ला खड़ा कर दिया ।

आखिर कछुए की चाल चलते हुए हमने भी सीमा रेखा को छू ही लिया

पिछली पोस्ट में हमने शादियों में व्यर्थ होने वाले खाने के बारे में चर्चा की ।

आइये अब देखते हैं शादियों का एक और रूप । यदि शादी में बदइन्तजामी हो जाए तो क्या हाल होता है । प्रस्तुत है आँखों देखी , ऐसी एक शादी का आँखों देखा हाल :

एक शादी में हमने , देखा अज़ब नज़ारा
बरात में जाने कैसे , शहर पहुँच गया सारा

जब खाना खुला पौने ग्यारा , तो ऐसी अफ़रा तफ़री मची
कि पलक झपकते ही प्लेट , और चम्मच एक बची

खाने की तलाश में लोग , खानाबदोश से भटक रहे थे
एक प्लेट में तीन तीन मिलकर , खाना गटक रहे थे

एक बेचारा तो लिए हाथ में , खाली फ़ॉर्क घुमा रहा था
दूसरा किस्मत का मारा , सीधे डोंगे में ही खा रहा था

लोग भोजन के नवीनतम आविष्कार कर रहे थे
गुलाब जामुन को उछाल , सीधे मूंह में धर रहे थे

अस्तित्त्व के इस संघर्ष में ,उस दिन ऐसी नौबत आई
जीवन में पहली बार हमने भी , आइसक्रीम हाथ से खाई

क्रमश:---