रोज शाम होते ही बीवी गुहार लगाती है,
पार्क की सैर करने के गुण समझाती है !
हार कर एक दिन हमने भी गाड़ी उठाई ,
और पत्नी को संग बिठा, पार्क की ओर दौड़ाई !
हार कर एक दिन हमने भी गाड़ी उठाई ,
और पत्नी को संग बिठा, पार्क की ओर दौड़ाई !
गेट से घुसते ही , फुटपाथ पर कदम रखते ही
सोचा कि चलो अब काम पर लगा जाये ,
पेट और वेट घटाने को ज़रा तेज चला जाये !
तभी गांव याद कर मन मे विचार आया,
कि यह भी कैसा मुकाम है !
वहां काम पर जाते थे पैदल चलकर,
यहाँ पैदल चलना भी एक काम है !
पार्क मे पैदल चलकर हम केलरिज जलाते हैं,
पार्क मे पैदल चलकर हम केलरिज जलाते हैं,
लेकिन पैदल चलने के लिये बैठकर कार मे जाते हैं !
लेकिन पार्क का नज़ारा भी अज़ब होता है,
टहलने वालों मे जिसे देखो वही बेढब होता है !
फिट बंदे तो नज़र ही कहाँ आते हैं,
क्योंकि फिट होते हैं आदमी खास,
और खास आदमी फिटनेस पाने,
पार्क मे नहीं , ए सी जिम मे जाते हैं !
और आम आदमी के पास नहीं होता वक्त,
और आम आदमी के पास नहीं होता वक्त,
वो बेचारे तो शाम के वक्त ठेला लगाते हैं !
पार्क मे आने वाले तो होते हैं मिडल क्लास,
और मिडल क्लास ना आम होते हैं ना खास !
उनके पास नहीं जिम के लायक पैसा होता है,
उनके पास नहीं जिम के लायक पैसा होता है,
पर पास करने के लिये वक्त ज्यादा होता है !
उम्र निकल जाती है जिंदगी को ढोते ढोते,
पहले पालते हैं बच्चे और फिर पोती पोते !
सेहत की ओर ध्यान ही कहाँ जा पाता है,
घर का भार उठाते उठाते शरीर का भार बढ़ जाता है !
फिर घेर लेते है बी पी, शुगर और आरथ्राईटिस,
और सेहत की हो जाती है टांय टांय फिस !
रिटायर होते होते ज़वाब दे जाते हैं घुटने,
इसलिये वॉक के नाम पर पार्क जाते हैं बस टहलने !
एक पेड़ के नीचे दस बूढ़े बैठे बतिया रहे थे,
सुनने वाला कोई नहीं था पर सब बोले जा रहे थे !
भई उम्र भर तो सुनते रहे बीवी और बॉस की बातें,
दिन मे चुप्पी और नींद मे बड़बड़ाकर कटती रही रातें !
अब सेवानिवृत होने पर मिला था बॉस से छुटकारा,
बरसों से दिल मे दबा गुब्बार निकल रहा था सारा !
वैसे भी बुजुर्गों को मिले ना मिले रोटी का निवाला ,
पर मिलना चाहिये कोई तो उनकी बातें सुनने वाला !
लेकिन बहू बेटा व्यस्त रहते हैं पैसा कमाने की दौड़ मे ,
और बच्चे कम्प्यूटर पर सोशल साइट्स के गठजोड़ मे !
विकास की आंधी ने संस्कारों को चूर चूर कर दिया है ,
एक ही घर मे रहकर भी परिवारों को दूर कर दिया है !
उसी पेड़ तले वही बुजुर्ग बैठे बतिया रहे थे,
लेकिन आज संख्या में आधे नज़र आ रहे थे।
अब वो बातें भी कर रहे थे फुसफुसा कर,
चहरे पर झलक रहा था एक अंजाना सा डर।
शायद चिंतन मनन हो रहा था इसका,
कि अब अगला नंबर लगेगा किसका।
पार्क में छोटे बच्चों की नई खेप दे रही थी दिखाई,
शायद यह आवागमन ही जिंदगी की रीति है भाई।
बहुत सुन्दर रचना प्रस्तुति आभार
ReplyDeleteबेहद गहन अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteपूरा सामाजिक -पारिवारिक तानाबाना ही बदल गया है ..... समसामयिक पंक्तियाँ
ReplyDeleteहम कहाँ से चले थे । ओर कहाँ पहुच गए।
ReplyDeleteजब मुड कर पीछे देखा, हम वहि के वहि
खड़े थे।
हमारे पिताजी जो हमसे कहते थे। वही हम
आज कह रहे है। हम विकसित हो गए।
बचपन जवानी ओर वृद्ध अवस्था ?
इन घड़ियों को गिनते गीनाते ।
ओर ना जाने कब चिर निंद्रा में सों गए।
विकास का कोई अंत नहीं। यह अक्षय, तथा निरंतर है।
आप द्वारा रचित रचना ,अनुभव की कसौटी पर सरो-सर खरी
उतरी है।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteहम कहाँ से चले थे । ओर कहाँ पहुच गए।
ReplyDeleteजब मुड कर पीछे देखा, हम वहि के वहि
खड़े थे।
हमारे पिताजी जो हमसे कहते थे। वही हम
आज कह रहे है। हम विकसित हो गए।
बचपन जवानी ओर वृद्ध अवस्था ?
इन घड़ियों को गिनते गीनाते ।
ओर ना जाने कब चिर निंद्रा में सों गए।
विकास का कोई अंत नहीं। यह अक्षय, तथा निरंतर है।
आप द्वारा रचित रचना ,अनुभव की कसौटी पर सरो-सर खरी
उतरी है।
शर्मा जी , विकास के साथ संस्कारों का बदलना भी शायद नियति ही है ! हमे इसे स्वीकारना ही पड़ेगा !
Deleteकहा गया है विनाश काले विपरीत बुद्धि
ReplyDeleteतदनुसार विनाश की भूमिका रची जा रही है नवयुग के तथाकथित विकास पुरुषों द्वारा उस अंधाधुन्द विकास के नाम पर जो प्रायः अर्धविक्षिप्त अवस्था में ही पाया जाता है आम आदमी की जिंदगी में
उपरोक्त का विस्तृत उद्धरण आपकी इस मर्मस्पर्शी कविता में मिल रहा है …………
गुप्ता जी , हमे लगता है कि यदि हम विकास की बुराइयों से बचें और अच्छाइयों को अपनाएं तो अपने संस्कारों को भी बचाये रख सकते हैं !
Deleteबहुत सुन्दर चित्रण, बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDeleteइसलिए कैसे भी हो... थोड़ा वक़्त अपने लिए निकाल कर, अपनी सेहत पर ज़रूर ध्यान देना चाहिए क्योंकि और कोई साथ दे न दे... अपना शरीर साथ देने लायक तो होना ही चाहिए...
~सादर
अनिता ललित
सही कहा जी . शहरी जिंदगी मे निष्क्रियता सबसे ज्यादा घातक सिद्ध होती है !
Deleteआह... और वाह... दोनों निकले मुँह से.
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को ब्लॉग बुलेटिन की आज कि विश्व पर्यावरण दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteपरिवार कहीं पास तो कहीं दूर हो गए हैं ... विकास की राह में उन्नति है तो कुछ बुरे प्रभाव भी , हम किसे ज्यादा अपनाएं , यह हम पर निर्भर करता है !
ReplyDeleteविकास आगे बढने की सहज प्रक्रिया है । इसमें पीछे बहुत कुछ छूटता है ,नया मिलता है लेकिन छूटे हुए का ध्यान रखना और उसे कुछ परिवर्धित रूप में अपने साथ ले चलना अच्छी बात है । छूटे हुए को याद करने की कोशिश है यह कविता । सुन्दर ।
ReplyDeleteजी शुक्रिया . साथ ही समाज की आर्थिक विभिन्नता और शहरी जिंदगी की निष्क्रियता की ओर भी ध्यान दिलाया गया है .
Deleteडाक्टर साहब पूरा खाका खींच दिया जीवन यात्रा का॰ आपको एक और मजेदार बात बताता हूँ ... टहलते हुये मैंने दो बुजुर्गवारों की बातें सुनी ॰
ReplyDelete-भाई सुबह बड़ा सुकून मिलता है
-हा सुबह की हवा बड़ी निर्मल होती है
- भाई मुझे तो आपका साथ सुबह सुबह ही मिलता है , उंसके बाद तो घर मे बंद हो जाता हू , बेटा बहू काम पर चले जाते हैं, अपने आप खाना लेना , खाना और शाम तक किसी को देखने को तरसना यही दिन चर्या है
मुझे लगा कितना अच्छा है सुबह का टहलना ..........
कुश्वंश जी , बेशक बुजुर्गों जी जिंदगी सूनी सूनी सी हो जाती है ! सबका फ़र्ज़ बनता है , उनका ध्यान रखना ...
Deleteगहन ...
ReplyDeleteयही सच्चाई है.
ReplyDeleteरामराम.
सच कहा है .. अज तो एक कमरे में बीत कर भी सब अलग अलग होते हैं ... अपने अपने में मग्न ... नेट में मग्न ...
ReplyDeleteगज़ब का चित्रण है ... हर पहलू को बारीकी से देखा है रचना ने ...
यानि प्रयास सफल रहा ! धन्यवाद नासवा जी ...
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसच का आईना दिखाती उम्दा पोस्ट ...
ReplyDelete