एक डॉक्टर के रूप में हमने अनेक मौतें देखी हैं. कभी मृत शरीर , कभी अंतिम सांसें लेता रोगी तो कभी असाध्य रोग से पीड़ित बीमार जिसके बचने की सम्भावना न के बराबर . कोई हमारे ही हाथों में दम तोड़ता , किसी को बचा पाने में सफल. एक डॉक्टर के लिए यह सब एक रूटीन सा बन जाता है. इसमें भावनाओं से ज्यादा विवेक, बुद्धि और ज्ञान का इस्तेमाल होता है . इसलिए डॉक्टर अक्सर ऐसी स्थिति में इमोशनल होकर काम नहीं करते. मृत्यु को इतने करीब से शायद कोई और नहीं देख पाता होगा.
असाध्य रोग से ग्रस्त एक रोगी को भी डॉक्टर्स कभी सच्ची , कभी झूठी दिलासा देते हुए एक आस बनाये रखते हैं. उम्मीद बनी रहने से रोगी का मनोबल बना रहता है. इस कारण, भले ही मृत्यु को टाला नहीं जा सकता हो , मृत्यु के डर को तो कम किया ही जा सकता है. रोगी और रोगी के रिश्तेदारों को भी मानसिक रूप से तैयार होने का समय मिल जाता है. आखिर , मृत्यु एक अटल सत्य है.
कसाब को फंसी देने के बाद एक बार फिर यह सवाल उठना लाजिमी है की क्या मृत्यु दंड होना चाहिए. इस विषय पर बहस चलती रही है और चलती रहेगी . विचारों में मतभेद होना स्वाभाविक है. हालाँकि , यह सच है की मनुष्य अनुशासित तभी रहता है जब उसे अनुशासन तोड़ने पर सज़ा का डर होता है. सज़ा में मौत की सज़ा का डर सबसे ज्यादा रहता है. और मौत की सज़ा में फांसी शब्द सबसे ज्यादा डरावना लगता है. गले में रस्सी का फंदा डालकर जब लटकाया जाता है , तब शरीर के बोझ से गर्दन की रीढ़ की हड्डी अचानक टूट जाती है और मनुष्य के शरीर का मस्तिष्क से सम्बन्ध टूटने से मृत्यु हो जाती है. बेशक ऐसा एक पल में हो जाता है , इसलिए व्यक्ति को दर्द या तकलीफ महसूस करने का समय ही नहीं मिलता.
ऐसे में एक सवाल मन में उठता है. जहाँ एक रोगी को मृत्यु से पहले अंतिम साँस तक जिंदगी की उम्मीद बनी रहती है , वहीँ फांसी का इंतज़ार करते कैदी को मृत्यु सामने साफ दिखाई देती है. इस हालात में उसके मन में क्या विचार आते होंगे ? कैसा लगता होगा पल पल मौत का इंतज़ार करना ? क्या कसाब जैसे खुंखार आतंकवादी को भी मौत का खौफ महसूस हुआ होगा ?
देखा जाये तो सभी मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं, कोई आनन्दमय है कोई विषादपूर्ण।
ReplyDeleteमौत का इन्तजार करना भयावह और कष्टप्रद होता है,,
ReplyDeleterecent post : प्यार न भूले,,,
हाँ एक न एक बार तो उस मौत बांटने वाले को भी अपनी मौत से डर लगा ही होगा !
ReplyDeleteअनुभव नहीं है, क्या करें?
ReplyDeleteहा हा हा ! इस अनुभव की तो कामना भी नहीं कर सकते। :)
Deleteमौत सबको आनी है ... लेकिन जब समय निर्धारित हो तब कैसा लगता होगा ....विचारणीय
ReplyDeleteसंगीता जी , यह तभी पता चल सकता है जब किसी मुजरिम का फांसी से पहले सायकायट्रिक परिक्षण किया जाये। हालाँकि फांसी से पहले डॉक्टर्स मु आयना तो करते हैं लेकिन सिर्फ शारीरिक तौर पर। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि मानसिक तौर पर मन में उमड़ते विचारों का अध्ययन किया गया हो . हालात इसकी अनुमति नहीं देते , इसलिए संभव नहो हो पाता होगा. kasab का ant समय में मांफी मांगना यही दर्शाता है की maut se sabko dar lagta है.
Deleteनिद्रावस्था को योगियों/ सिद्धों ने अर्धमृत अवस्था कहा, जिसमें मानस पटल पर, आम जानवरों को भी, सिनेमा समान स्वप्न दिखाई पड़ते हैं - भले ही कोई चाहे या न चाहे।
ReplyDeleteऐसे ही जागृत अवस्था में भी कई विषयों पर विचार आते जाते रहते हैं।
प्रश्न तो यह उठता है कि न चाहने पर भी भले-बुरे विचार और स्वप्न आते कहाँ से हैं???
यदि मृत्यु एक पहेली है तो जीवन भी एक पहेली ही है!!!
अच्छे काम के लिये होती तो सरफ़रोशी की तमन्नावाली मौत भी शानदार होती !
ReplyDeleteयदपि मृत्यु शाश्वत सत्य है पर मृत्यु को पास आता देख भय तो जरुर लगता होगा. वैसे मैं किसी भी इंसान को फांसी देने(मृत्यु दंड ) का विरोधी हूँ .
ReplyDeleteडा0 साहब , अगर मृत्यु दंड ख़त्म कर दिया गया, यानी सिर्फ आजीवन कारावास ही एक विकल्प रहेगा तो .............फिर गारंटी के साथ कह सकता हूँ कि 90% पाकिस्तानी भारत आ जायेगे ! अभी वहां के लोगो ( उनको आतंकी कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि यदि यह आतंकी टैग उनपर चिपकाने जायेंगे तो टैग कम पड़ जायेंगे ) ने जो कहा उसे इन पंक्तियों में पढ़कर खुद सोचिये कि वे किस सजा के हकदार है ;
ReplyDeleteछककर चिकन-बिरयानी खाया,
पचास करोड़ का चुना लगाया,
हमें गर्व है एक हमारे हीरो ने,
दुश्मन के ही घर में घुसकर,
उनको अच्छा सबक सिखाया !
लेकिन गोदियाल जी , अंतिम समय में तो वो भी बडबडा रहा था , दिन में तारे नज़र आ रहे थे. यानि मौत का भय उसे भी सता रहा था.
Deleteये जुनूनी लोग होतें हैं मृत्यु का वरन एक मूल्य है यहाँ बहिश्त में जाने का विभ्रम पाले रहतें हैं ये छद्म कुरआन खोर .राष्ट्र भगतों को जूनून और किस्म का होता है वतन के प्रति मोहब्बत खुद एक प्राप्य
ReplyDeleteरहा है भगत सिंह जैसे शहीदों का .मृत्यु दंड आज तो पहले से भी ज्यादा प्रासंगिक है भले अपराध रहता है बाद सजा -ए -मौत के भी .
आपका इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (24-11-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
ReplyDeleteसूचनार्थ!
जिन्होंने गीता या तो पढ़ी ही नहीं होती है, अथवा अच्छी तरह से नहीं पढ़ी होती है, वो कहते हैं की वे मृत्यु दंड के पक्षधर नहीं हैं। वहीं कृष्ण अर्जुन से कह गए गए कि वो एक माध्यम भर ही है, कृष्णलीला का एक अज्ञानी पात्र (जो उनकी माया को नहीं जानता), नहीं जानता कि उन्होंने सभी को पहले से ही मारा हुवा था!!! महाभारत युद्ध के मैदान में उसे दिव्य चक्षु प्रदान कर अपने विराट भयानक रूप, चतुर्भुज विष्णु के वास्तविक रूप के दर्शन भी करा दिए, जिसमें हर दिशा में आँखें थीं, और मुंह थे जिनमें सभी महारथी प्रवेश पा रहे थे!!! उन्होंने अर्जुन को समझाया कि क्यूंकि वो क्षत्रिय था उसका धर्म तीर चलाना ही था!
ReplyDeleteइस प्रकार दिमाग की बत्ती खुल जाने पर अपने निकटतम रिश्तेदारों की मृत्यु के बारे में सोच कर ही अर्जुन का डिप्रेशन का इलाज हो गया और वो ख़ुशी ख़ुशी परम ज्ञानी कृष्ण की आज्ञा का पालन कर कौरवों पर पांडवों की, बुराई पर अच्छाई की, जीत को संभव किया!!
योगियों ने इस लिए गीता में आम आदमी को भी सुझाव दिया है कृष्ण पर आत्म-समर्पण करने को!!! ...
गले में रस्सी का फंदा डालकर जब लटकाया जाता है , तब शरीर के बोझ से गर्दन की रीढ़ की हड्डी अचानक टूट जाती है और मनुष्य के शरीर का मस्तिष्क से सम्बन्ध टूटने से मृत्यु हो जाती है. बेशक ऐसा एक पल में हो जाता है , इसलिए व्यक्ति को दर्द या तकलीफ महसूस करने का समय ही नहीं मिलता.
ReplyDelete...हम्म..तो ऐसे मरना आसान है।
मुझे लगता है मौत का इन्तजार करना ही सबसे बड़ी सजा है पल पल मौत को करीब आता देख हर कोई सिहर जाएगा फिर कसाब क्यूँ नहीं मैंने कुछ दिन पहले इसी विषय पर एक नावेल जौन ग्रीषम का पढ़ा था कांफेसन ,पढ़ते पढ़ते आप उस इंसान में अपने को महसूस करने लगते हो जो म्रत्युदंड का पल पल इन्तजार कर रहा है कितना भयावह ,असहनीय वक़्त होता होगा वह अगर पढ़ा ना हो तो ये नावेल जरूर पढ़िए इसकी स्टोरी जिन्दगी में कभी भूल नहीं पायेंगे ।बहुत बहुत शुक्रिया अपने विचार इस विषय पर साझा करने के लिए
ReplyDeleteसर्वप्रथम ऐसे व्यक्ति का उदहारण भी किसी मौके पर नहीं दिया जाना चाहिए जो किसी देश की अस्मिता से खिलवाड़ करता है . जिसने मृत्यु का स्वाद नहीं चखा वह कितना लाज़मी जवाब देगा.बाकि सब तो ठकुर सोहाती होगा रही बातें सुनी सुनाई वो या किताबों या ग्रंथों की बातें तो मालिक जानें
ReplyDeleteरमाकांत जी , बेशक ऐसे व्यक्ति से कोई सहानुभूति नहीं हो सकती. लेकिन फांसी रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर केसिज में ही दी जाती है. इसलिए इस उपक्रम का पात्र तो कोई ऐसा ही बंदा हो सकता है.
ReplyDeleteडॉ .साहब आपके आलेख के दो पहलू हैं पहला मौत को आसान बनाया जाए terminally ill patients के लिए
ReplyDelete.पैन किलीनिक अक्सर ऐसा करतीं हैं .अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नै दिल्ली की पैन क्लिनिक में
कार्य रत माहिरा न सिर्फ मौत के करीब पहुंचे रोगियों को मार्फीन आधारित दर्द नाशियों से राहत पहुंचाती है
एक मानवीय स्पर्श भी देतीं हैं ऐसे रोगियों का अस्पताल में ही जन्म दिन मनाकार .मैंने एक सेमीनार किया
उनका एक विस्तार भाषण (पब्लिक लेक्चर सुना था )मैं अभिभूत था उनके कर्म के प्रति समर्पण और
मानवीय स्पर्श को देख कर .
दूसरा पहलू जुड़ा है कसाब जैसे दहशत गअर्दों की कुंद हो चुकी संवेदना से .इनके लिए मौत एक फलसफा है
रास्ता है बहिश्त का जहां हूरें इनका इंतज़ार कर रहीं हैं यही सब इनकी व्यावसायिक बुद्धि में कूट कूट के भर
दिया जाता है .
भले इन्हें सजा -ए -मौत देने से अपराध कम नहीं होता एक सन्देश तो जाता है 26/11 इसके लिए माकूल
मौक़ा था स्थान मुंबई के ताज होटल के सामने का अहाता गेट -वे आफ इंडिया यहीं लटकाया जाना था
इसको लेकिन सरकार तो खुद अपराध बोध से ग्रस्त वोट बैंक से आतंकित इन्हें छिप छिप के फांसी देती है
इनके सेकुलर हिमायती बरसाती मेंढकों से टर्राने लगते हैं .अफज़ल गुरु का मामला वोट बैंक ने लटका रखा
है 7 -8 सालों से ,सजाये मौत का ,के बाद इस शातिर को दया याचिका भी चाहिए .
जम्मू कश्मीर की शान्ति भंग हो जायेगी की खूब सूरत आड़ में दया याचिका भी लंबित है .देखें यह तमाशा
कब तक चलता है .
किसी भी काल विशेष में, पशु जगत में मानव को तुलनात्मक रूप से उत्पत्ति के सर्वोच्च स्तर पर पहुंचा जीव समझा जा सकता है। इसे प्राकृतिक ही कहना होगा शायद कि निम्न स्तर के पशु समान हर बच्चे की किसी भी विषय विशेष पर विश्लेषण की क्षमता कम होती है। और वो समय के साथ प्रत्येक व्यक्ति में उसके मन के (प्राकृतिक) रुझान, अनुभव और अर्जित ज्ञान के आधार पर निर्भर कर एक व्यक्ति से दूसरे तक विश्लेषण की क्षमता, विभिन्न विषय पर, विभिन्न स्तर पर पहुंची दिखाई पड़ने लगाती है - ऊंची या नीची।
ReplyDeleteजहां तक स्वर्ग/ जन्नत आदि (मायावी) आध्यात्मिक विषय का प्रश्न है, इस अद्भुत साढ़े चार अरब वर्षीय धरा पर विषय असंख्य है और विस्तार से हर विषय पर जानने के लिए मानव जीवन बहुत कम है इसके सत्व अर्थात सत्य तक पहुँचने के लिए। किन्तु मानव एक सामाजिक प्राणी है, इस लिए अपने मन में किसी भी विषय पर उठते विचारों को किसी न किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों से व्यक्त करने के लिए मजबूर होता है - दूसरे की दृष्टि में सही या गलत प्रतीत होता! सत्य तो 'संहारकर्ता' शिव को ही पता है! वैसे प्राचीन हिन्दू जगत को ही मिथ्या (मायावी, 'झूठा बाज़ार') कह गए,,,:)
क्या कहूं
ReplyDeleteमेरे विचार से जब पल पल मौत का इंतज़ार करना पड़ता होगा तब शायद ऐसा महसूस होता होगा की जब मौत आना निश्चित ही है तो इंतज़ार ना करवाया जाय, बजाय फांसी के विदेशों की तरह गोली मार दो खेल ख़त्म...
ReplyDeleteसटीक अभिव्यक्ति | जय हो
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