सुखी रहने के लिए स्वस्थ रहना ज़रूरी है । और स्वस्थ रहने के लिए ज़रूरी है खुश रहना । ख़ुशी मिलती है जब मौसम सुहाना हो और दोस्तों का साथ हो ।
रविवार को सुबह तो बादल छाए थे लेकिन दिन चढ़ने के साथ ही मौसम खुशगवार होने लगा । ऐसे में हमने भी कुछ पुराने दोस्तों के साथ पिकनिक का प्रोग्राम बना लिया --लोदी गार्डन में ।
लोदी गार्डन के मुख्य आकर्षण हैं, सिकंदर लोदी (१४७४-१५२६) के समय के बने गुम्बद।
बरसों गुजर गए थे यूँ मित्र मंडली में मिल बैठ कर पिकनिक मनाये और खाना खाए ।
जीवन के इस पड़ाव पर जब बच्चे बड़े हो जाते हैं , तब या तो वे पास नहीं होते या उनके शौक अलग होते हैं । ऐसे में दोस्तों का साथ ज्यादा काम आता है ।
लोदी गार्डन --लोदी एस्टेट में बना ये पार्क , एक तरफ़ जोरबाग, दूसरी तरफ़ खान मार्केट और लोदी एस्टेट की वी आई पी जेन्ट्री का चहेता पार्क है। यहाँ सुबह शाम डिप्लोमेट्स, नेतागण और ब्यूरोक्रेट्स आपको घुमते नज़र आयेंगे, अक्सर अपने कुत्तों के साथ। हालाँकि दिन में , ये प्रेमी युगलों का अस्थायी वास बना रहता है।
पूर्वी गेट से घुसते ही दायीं ओर नज़र आता है यह शीश गुम्बद । इसमें ५०० साल पुराने नीले रंग के शीशे की टाइल्स अभी तक देखी जा सकती हैं. इस गुम्बद में आठ कब्रें बनी हैं, किसकी, ये कोई नहीं जानता॥
शीश गुम्बद
बायीं ओर है यह बड़ा गुम्बद --आयताकार गुम्बद के चारों ओ़र चार द्वार नुमा झरोखे हैं, जिनसे पार्क का चारों दिशाओं का बेहद खूबसूरत नज़ारा दिखाई देता है।
बड़ा गुम्बद
इन दोनों गुम्बदों के बीच हमने अपना डेरा जमाया । खुले आसमान के नीचे बैठकर खाने का आनंद ही कुछ और है । कुल दस लोग थे , एक को छोड़कर सभी डॉक्टर । ज़ाहिर है , खूब जमी महफ़िल भी ।
खाने के बाद मर्द लोग चल दिए पार्क की सैर पर ।
सूखे पेड़ के बीच से दिख रहा है , शीश गुम्बद ।
सिकंदर लोदी का मकबरा ।
पूर्ण विवरण यहाँ है ।
अहाते के अन्दर ।
मकबरे से बाहर निकलते ही नज़र आती है यह झील जिसमे दूर नज़र आ रहा है , आठपुला । यह पुल अकबर के ज़माने का है जिसे एक नाले के ऊपर बनाया गया था जो दक्षिण की ओर जाकर बारापुला नाले से मिलता था और अंत में यमुना में जाकर गिरता था ।
आठपुला से झील का दृश्य ।
यहीं पर लगा है यह लोदी गार्डन का नक्शा ।
थोडा वापस आकर बना है यह रोज गार्डन या वाटिका जहाँ रंग बिरंगे गुलाब के फूल खिले थे । हालाँकि आजकल विकास की आंधी ने गुलाबों की खुशबू छीन ली है ।
पूरा चक्कर लगाकर हम वापस पहुँच गए बड़ा गुम्बद --
और शीश गुम्बद के पास ।
अंत में, देखिये ये छोटा सा बंगला नुमा कॉटेज , जो प्रवेश द्वार के पास बना हुआ है, घने पेडों के बीच. सामने छोटा लेकिन बहुत हरा भरा बगीचा, चारों ओ़र हरियाली। खिड़कियों में रखे पोधों के गमले, बहुत मनोरम द्रश्य प्रस्तुत करते हुए. कुल मिलकर बहुत ही सुन्दर।
खूबसूरत टॉयलेट कॉम्प्लेक्स
और इस तरह बीता कल का दिन, एक नए कल की चुस्ती और स्फूर्ति प्रदान करते हुए ।
नोट : लोदी गार्डन की कुछ विशेष तस्वीरें यहाँ देखी जा सकती हैं .
वर्तमान पर्यटन के साथ ऐतिहासिक जानकारी भी उपलब्ध हुई।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति एवं चित्रण !
ReplyDeleteसचित्र सुंदर जानकारी ....!!
ReplyDeleteबढ़िया पोस्ट ....!!
अरे वाह!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!
इन गुम्बदों के भीतर क्या होता है डॉक्टर साहब। या वे खाली पडे हैं?
ReplyDeleteलोदी के मकबरे में उसकी कब्र है । बाकी सारे खाली पड़े हैं ।
Deleteसबके समान मैं भी मानता था कि गुम्बद मुग़ल काल की देन है, जब तक मैंने गुवाहाटी, आसाम में 'नागरह मंदिर' नहीं देखा था (अस्सी के दशक में) और वहाँ के पुजारी ने मुझे यह नहीं बताया कि वो मंदिर स्वयं ब्रह्मा ने बनाया था!!! मेरे चेहरे का भाव देख उसने फिर कहा कि, हिन्दू परम्परानुसार अर्थात सनातन धर्मानुसार, यह मंदिर बार बार उसी स्थान पर और वैसा ही असंख्य बार बनता चला आया है... उसमें गुम्बद था और चारों दिशाओं में एक एक प्रवेश-द्वार था... भीतर नौ शिवलिंग थे, जिनमें से बीच वाला बड़े आकार का था, जबकि समान आकार के आठ अन्य शिवलिंग आठों दिशाओं में से एक दिशा पर अवस्थित था...
Deleteऔर जैसा आपने लिखा कि केवल एक कब्रगाह है और अन्य खाली हैं, तो मेरा ध्यान मिस्र के 'पिरामिड', और 'भारत' के मंदिरों के उपरी भाग में बने 'विमान' की ओर गया - उस अदृश्य 'अग्नि' अर्थात शक्ति की ओर, जो किसी भी भवन के भीतर भी उत्पन्न होती है और इसी लिए माना जाता है की हर मकान की भी आत्मा होती है... और दिल्ली में आज भी कई सरकारी मकान हैं जिसमें कोई भी 'नेता' रहना पसंद नहीं करते - क्यूंकि वो भुतहे हैं :)... ... ...
पुनश्च - कृपया 'नवग्रह' पढ़ा जाए ('नागरह' के स्थान पर)...
Deleteलोदी गर्दन एक समय में हिंदी फिल्म्स के गीत फिल्माने की प्राइम लोकेशन हुआ करता था.अब यहाँ फिल्म के गीत तो नहीं फिल्माए जाते परन्तु लाइव फिल्म के सीन देखने को मिल ही जाते हैं ..ऐसा सुना है.
ReplyDeleteबढिया सैर कराई आपने.
शिखा जी , लाइव तो आजकल सब जगह देखने को मिल जाता है । सी पी के सेन्ट्रल पार्क से लेकर इंडिया गेट तक ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पिकनिक ...
ReplyDeleteexcellent clicks.....
i admire ur positive attitude towards life...
regards.
सुंदर चित्रों के साथ रोचक विवरण .....
ReplyDeleteWaah... Maza aagaya photo dekhkar...
ReplyDeleteसर्दियों में पिकनिक का मज़ा ही कुछ और है. पार्क के चित्र बहुत सुंदर हैं. तबियत खुस हो गयी.
ReplyDeleteलोधी गार्डन इतना सुंदर है ??
ReplyDeleteआपके लेख ने उत्कंठा जगा दी है ...जाते हैं !
आभार आपका !
सतीश जी , सुन्दरता देखने वाले की आँखों में होती है . और कैमरे की आँखें कुछ ज्यादा ही तेज होती हैं . :)
Deletehttp://www.liveaaryaavart.com/
ReplyDeleteबढिया जानकारी। सुंदर तस्वीरें.....
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर की गई है। चर्चा में शामिल होकर इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और इस मंच को समृद्ध बनाएं.... आपकी एक टिप्पणी मंच में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान करेगी......
चित्र श्रृंखला का समापन 'खूबसूरत.'
ReplyDeleteडॉक्टर साहिब, आपने लोधी गार्डन के बारे में अच्छी सचित्र जानकारी प्रस्तुत की... धन्यवाद!
ReplyDeleteएक ज़माना था जब किसी सरकारी कर्मचारी को यदि लोधी कॉलोनी में मकान ऐलोट हो जाता था तो उसे ऐसा महसूस होता था जैसे उसे काला पानी भेजा जा रहा हो ! 'डी आई जेड एरिया' से बाहर कोई रहना नहीं चाहता था...
बढिया सैर रही, हम भी चुस्त दुरस्त हो गए, इतने सारे डॉक्टरों को देख कर :)
ReplyDeleteडॉक्टर साहब आपका कैमरा और उसका एंगल गज़ब है....रश्क है आपकी फोटोग्राफी से !
ReplyDeleteसंतोष जी , कैमरा तो सस्ता सा ही है .
Deleteलेकिन यह सच है की फोटोग्राफी भी एक आर्ट है . बस कोशिश कर रहे हैं .
Nice post .
ReplyDeletePlease see :
http://hbfint.blogspot.in/2012/02/29-cure-for-cancer.html
@@ खाने के बाद मर्द लोग चल दिए पार्क की सैर पर ।
ReplyDeleteबाकी कहाँ गए यह नहीं बताया .....!
वैसे लोधी गार्डन का भ्रमण हमें भी भा गया ......!
माहौल सही हो तो पुरानेपन ( आप बुजुर्गियत कह लें ) की कमसिनी और भी निखर उठती है ! कुदरत के हुस्न-ओ-ज़माल के सच्चे पारखी , तजुर्बेकार लोग ही होते हैं :) ( चित्र १,२,३ )
ReplyDeleteउधर सच्चे मुच्चे लोदी गार्डन , इधर वर्चुअल संसार ( बुजुर्गों के लिए ब्लॉग जगत में भी कई पिकनिक स्पाट हैं ) में उम्रदराज लोगों की रूमानियत का नज़ारा आम है ! आनंदित होने के इस हुनर में उनका कोई मुकाबिला नहीं :)
बूढ़े सूखे दरख़्त का अपना ही सौंदर्य है उसका हौसला देखिये कि हुस्न उसके सीने से भी दप दप झांक रहा है ! (चित्र नम्बर ४)
गुलाब लाख रंग बिरंगे ही सही पर बूढ़े छायादार दरख्तों की तुलना में कितने बौने लग रहे हैं :) ( चित्र नम्बर ११)
प्रतीकात्मक रूप से हर चित्र कहता है डाक्टर लोग सख्त मिजाज़ दिख सकते हैं पर होते दरअसल हुस्न नवाज और रहम दिल हैं :)
( देखें चित्रों में सख्त जान पत्थरों के साथ हरियाली , जो सुकून देती है )
यूं तो आख्रिरी चित्र बेचैनी से निज़ात , आराम और तसल्ली की जगह है पर उसके ठीक सामने साईकस के पौधे :)
पक्का तो पता नहीं पर सुना है कि ये पौधे खास किस्म की दवाओं के लिए मशहूर हैं :) ( चित्र नम्बर १४ )
बहुत बढ़िया शायराना विश्लेषण किया है जे सी जी .
DeleteJCFeb 7, 2012 05:30 PM
Deleteउर्दू जुबां आती ही नहीं! शायराना अंदाज़ अपना नहीं हो सकता :) यह कमाल तो अपनी किसी समय रही ससुराल निवासी श्री अली का है :)
ओह ! यह ग़ज़ब कैसे हो गया !
Deleteबेशक यह अंदाज़ अली सा का ही हो सकता था .
बेहतरीन टिप्पण .
जे.सी.जी धन्यवाद को बाजू में खिसकाना नहीं चाहिये :)
Deleteजगदलपुर तो हम दोनों का ही है :)
दराल साहब से चूक हो ही नहीं सकती उन्होंने आपके नाम में से , जे. फार जगदलपुर और सी. फार छत्तीसगढ़ पढ़के ही धन्यवाद दिया होगा :)
इस पर तो वाह वाह ही कह सकते हैं ।
Deleteमैं वैलेंटाइन डे को यहां ज़रूर जाता हूं- एकदम अकेला!
ReplyDeleteकितने साल निकल गए इस विफलता में ? :)
Deleteवाह !"खूबसूरती भरी यारो की टोली " क्या कहने डॉ साहेब बहुत ही सुंदर नजरो का चित्रण किया हैं आपने .....
ReplyDeleteबढिया सैर कराई आपने डॉक्टर साहब
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति एवं चित्रण !
ReplyDeleteआप तो दिल्ली की सर्दी का आनंद ले रहे हैं ... हम भी आपके कैमरे का कमाल देख रहे हैं और दिल्ली को महसूस कर रहे हैं ...
ReplyDeleteविस्तृत तरीके से बढ़िया जानकारी दी है आपने...आभार
ReplyDeleteहालाँकि आजकल विकास की आंधी ने गुलाबों की खुशबू छीन ली है ।
ReplyDeleteसुन्दर विवरण भाई साहब वास्तु परक वास्तु कला को उकेरता हुआ .
ऐतिहासिक गुम्बद संस्कृति पर ऐतिहासिक नज़र
ReplyDeleteअच्छी सैर करवाई लोदी गार्डेन की....पिकनिक के लिए बिलकुल सही जगह...
ReplyDeleteदराल साहब ज़रा स्पैम चेक कर लीजियेगा !
ReplyDeleteजी कर लिया । आप वहां कैसे pahunch गए !
Deleteस्पैम में तो मेरी टिप्पणी आम जाती है... जिस कारण में कॉपी कर फिर चिपका देता हूँ - यदि एक बार में प्रकाशित न हुई तो...
Deleteअली साहिब, मैं तो अभी तक अपने 'जे सी' में जीसस क्राइस्ट, जूलियस सीज़र, जगदीश चन्द्र (बसु)... आदि आदि अतिरिक्त नाम पढता था... शुक्रिया! आपने पहेली सुलझा दी मेरे साथ के दशक में दिल्ली से जगदलपुर (अब छतीसगढ़) जा शादी करने की! जब 'विकास' नहीं हुआ था, और उसके कारण माहौल गर्म नहीं हुआ था, पहले जगदलपुर (मध्य प्रदेश) के प्रवेश द्वार रायपुर के लिए कोई सीधी ट्रेन नहीं होती थी - नागपुर जा, वहाँ से दूसरी पकडनी पड़ती थी, और उसके आगे सरकारी धीमी गति वाली बस... उस यात्रा की तकलीफ के बाद किन्तु चित्रकोट, और तीरथ गढ़ के जल-प्रपात अदि प्राकृतिक दृश्य देख दिल खुश हो जाता था... पहली बार मुझे कुछ पेड़ों में मटके लटके देखने का मौक़ा भी मिला था, और महुआ के फूलों के उपयोग के बारे में जानकार भी :)
अच्छे संस्मरण.
Deleteजे सी जी , कुछ ज्यादा ही एक्स्ट्रा चिप गई थी , जिन्हे हटा दिया है .
@ दराल साहब ,
ReplyDeleteये तो आपको बताना है कि आप हमें स्पैम का रास्ता क्यों दिखा देते हैं :)
@ जे.सी.जी ,
जगदलपुर में बहत फर्क आ चुका है ! अब तो सरकारी बसें बंद हुए सालों हो गए , रायपुर से हर आधे घंटे के अंतराल से चलने वाली प्राइवेट लक्जरी बसों से ६-७ घंटे का सफर शेष रह गया है ! आपके वक़्त में ये एक जिला था जो अब सात जिलों में बदल चुका है :)
पेड़ों में मटके अब भी लटकते हैं ! मेरे अमेरिका में जा बसे एक मित्र आये और जब उन्हें मैंने ताजा माल उपलब्ध करवाया तो वे बेहद खुश हुए और वादा कर गए हैं कि अगली बार पत्नी सहित मटका सेवा प्राप्त करने आयेंगे :)
आपको ये जानकर खुशी होगी कि मल्हार ब्लॉग वाले सुब्रमणियन जी ने अपना बचपन जगदलपुर में ही गुजारा है पर वे महुआ फूलों के जानकार होकर भी उससे बहुत दूर रहे हैं :)
JCFeb 9, 2012 04:35 PM
Deleteअली जी, सुब्रमणिअन जी से उनके ब्लॉग के माध्यम से ही, और ईमेल द्वारा भी, पता चला था उनके बचपन में जगदलपुर में भी रहने के बारे में...
ज्ञान वर्धन हेतु, एक बार कौंडागाँव के गाँव बूढा के घर महुआ का रस पान भी कर के देखा (पता चला था कि उसे बनाने के लिए गढ़े में मटके को कई दिन दबा के रखा जाता है, यद्यपि देर शाम होने के कारण देखा नहीं) ... और जगदलपुर में ही सल्फी पान कर भी देखा...
यदाकदा मुंबई जा ताड़देव में भी कुछेक बार एक रिश्तेदार, (ससुराल के माध्यम से एक निकट सम्बन्धी), के घर रहने के मिले अवसर के कारण ज्ञान वर्धन हुआ कि शिव को ताड़देव भी कहते हैं! और उन्हें एकपदा अर्थात वृक्ष समान अपने एक पैर समान तने पर खड़े, और दूसरी ओर एक धुरी पर खड़े किन्तु घूमते हुए भी पृथ्वी अर्थात गंगाधर शिव / नटराज समान भी!!!...
पुनश्च - यदि गौर से देखें तो मानव का सर भी एक उल्टे मटके (गुम्बद / पृथ्वी के ऊपर आधारित प्रतीत होते आकाश?) समान ही प्रतीत होता है... और पैदाइश के समय ऊपर से खुला सा होता है... किन्तु धीरे धीरे बंद हो जाता है (जब 'रस' भर जाता है!?)... और शायद याद आ सकता है कि कैसे कव्वे आदि पक्षियों को भगाने के लिए, खेतों में किसान उनको आदमी की उपस्थिति होने का आभास कराने के लिए क्राइस्ट के क्रॉस समान खपच्ची धरती पर गाढ़ और उसे पुराने वस्त्रादि पहना देते थे!...
Deleteओह नहीं एक बार फिर से ! दराल साहब लगता है आपने स्पैम को मेरे नाम की सुपारी दी हुई है :)
ReplyDeleteअली सा लगता है स्पैम जगदलपुर वालों से आकर्षित हो रहा है ।
Deleteवैसे पेड़ों पर लटकते मटकों में ऐसा क्या होता है, यह भी बताइए तो ।
अली जी, जो विधि मैं अपनाता हूँ, उसके लिए गूगल के माध्यम से तैयार की गयी टिप्पणी को कॉपी कर ब्लॉग में यथास्थान चेप, उसे फिर कॉपी कर गूगल के पास जा फिर वहाँ चेप देता हूँ... ब्लॉग बंद कर, और फिर खोल यदि प्रकाशित नहीं हुई पाता हूँ, तो फिर गूगल में जा संशोधित टिप्पणी कॉपी कर ब्लॉग में चेप देता हूँ... यदि फिर भी नहीं प्रकाशित होती है तो फिर दोहराता हूँ... मुझे सफलता अवश्य प्राप्त हो जाती है :)
Deleteडाक्टर साहब ,
ReplyDeleteयहां सल्फी और खजूर के ऊपर की शाख काट कर उसपे मटके बाँध कर रस इकठ्ठा करते हैं :) सल्फी , ताड़ की फैमिली से तो है पर ताड़ नहीं है इसका रस सुबह पीने से नशा नहीं होता पर जैसे जैसे धूप लगती है और रस में फर्मन्टेशन बढ़ता है इसे पीने वालों के लिए किसी बहाने की ज़रूरत नहीं पड़ती :)
यानि कि शाम को अगर कोई बन्दा सल्फी पिये तो नशे के लिए ही पियेगा और सुबह तो लगभग ग्लूकोज जैसा ,इसलिए सुबह वाला बन्दा शरीफ माना जाये :)
जे.सी. जी के फार्मूले से तीन चिपकाईं पर एक भी काम ना आई :)
ReplyDeleteहा हा हा ! हमारा भी काम बढ़ गया भाई । :)
Deleteजानकारी देने के लिए शुक्रिया अली सा ।
सुन्दर चित्र यात्रा। चौथा चित्र (पत्रहीन पेड़ के पीछे गुम्बद) सबसे अच्छा लगा!
ReplyDeleteसुन्दर विवरण ...सुन्दर चित्र ...
ReplyDeleteसुंदर चित्र, अली सा की शानदार टिप्पणियाँ... एक संग्रहणीय पोस्ट बन गई यह तो..वाह!
ReplyDeleteचौके पर छक्के वाला आपको मुबारक, सूखे दरख्तों के पीछे गुंबद वाला चित्र बेहत खूबसूरत है।
ReplyDeleteचौके पर छक्के वाला ! यह क्या है भाई !
ReplyDeleteअली सा की तो बात ही कुछ और है ।
दराल साहब ,
ReplyDeleteलगता है , देवेन्द्र पाण्डेय जी आपके चौथे चित्र पे मेरे कमेन्ट की तारीफ कर रहे हैं !
कमेन्ट में चित्र का ज़िक्र भी किया है उन्होंने !
सही कह रहे हैं आप । मूंह में दांत न भी हों तो आशिकी का मज़ा कहाँ कम होता है । :)
Deleteबहुत अच्छे अशोक भाई !शुक्रिया हमारे ब्लॉग पर टिपियाने के लिए .
ReplyDeleteवीरुभाई जी , क्या बात है ! यह तो कहीं पे निगाहें , कहीं पे निशाना हो गया .
Deletebahut hi sundar post aur badhiya tippaniyo ki bajigari !
ReplyDeleteवास्तव में बहुत ही बढ़िया सैर रही ...चित्रों से लुत्फ़ और अधिक बढ़ गया ...बढ़िया ....!
ReplyDeleteसुंदर चित्र,खूबसूरत है।
ReplyDeleteham bhi gaye the ek baar, ek kavita ka rachna shrot bhi rah chuka hai... :)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर चित्रण है ....घूमने का मन हो आया
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteतभी तो दिल्ली में रहने का अलग ही मज़ा हैं...............सब कुछ हैं यहाँ,
ReplyDeleteवैसे मज़ा आ गया सर जी लोधी गार्डेन हम कभी गए नहीं, आपके साथ जरूर घूम लिए.
एक सवाल और क्या आप कभी उग्रसेन की बावली गए हैं, दिल्ली के बाशिंदे भी इस जगह से वाकिफ नहीं होंगे
नाम बहुत सुना है .कस्तूरबा गाँधी मार्ग पर है ना . लेकिन गए कभी नहीं . देखना ज़रूर है .
Delete