एक बार फिर जन्माष्टमी बड़ी धूम धाम से मनाई गई । तीन चार बजे के करीब तेज बारिस आ गई । पता चला कि बारिस का आना शुभ माना जाता है ।
हालाँकि इतनी बारिस से क्या शुभ होने वाला है , यह समझ नहीं आ रहा था ।
फिलहाल हम तो डेंगू और स्वाइन फ्लू से भरे अस्पतालों को देखकर यह सोचने पर मजबूर हो रहे हैं कि क्या हम किसी प्राकृतिक आपदा के लिए तैयार हैं ?
सोचिये यदि आप गंभीर रूप से बीमार हैं और अस्पताल में बेड ही खाली नहीं है , तो आप क्या करेंगे ।
यदि हजारों मरीज़ एक साथ आ जाएँ तो कहाँ भर्ती करेंगे ?
खैर बारिस का एक असर तो यह हुआ कि जहाँ हमारा मंदिर हर साल श्रधालुओं से भर जाता था , इस बार वहां कुछ ही लोग मौजूद थे । जो आये थे , उन्हें भी भीगी कुर्सियों पर बैठने में दिक्कत हो रही थी ।
शाम होते ही मंदिर जगमगा उठा । लाउड स्पीकर पर नए और पुराने हिंदी फिल्मों के गानों की धुनों पर संगीत झनझना उठा । हजारों वाट का शोर हवा में फैलने लगा ।
बाहर से विशेष तौर पर बुलाई गई भक्ति संगीत मण्डली ( म्यूजिकल ग्रुप ) ने चीख चीख कर भजन गाने शुरू कर दिए । फ़िल्मी धुनों पर संगीत के साथ भक्तजन भी भक्ति में झूमने लगे, नाचने लगे ।
आधी रात होते होते मण्डली ने धुनों को छोड़ , फ़िल्मी गाने ही गाने शुरू कर दिए ।
पहली बार सुना --
हैप्पी बर्थडे टू यू --हैप्पी बर्थडे टू यू -- हैप्पी बर्थडे टू कृष्णा --हैप्पी बर्थडे टू यू --- बार बार दिन ये आए , बार बार दिल ये गाए ---
हम भी अगर , बच्चे होते --नाम हमारा होता ---और खाने को मिलते लड्डू --हैप्पी बर्थडे टू यू --
यह सब देखकर कुछ सवाल उठते हैं --
* क्या ईश्वर स्तुति के लिए हजारों वाट का शोर करना ज़रूरी है ?
सुनते आये हैं ---भक्ति ऐसी कीजिये , जान सके ना कोय । जैसे मेहंदी पात में , रंग रही दबकोय।
* भगवान तो कण कण में , रोम रोम में बसा हुआ है , फिर उसे मंदिरों में क्यों तलाशते हैं ?
* जिस पत्थर की मूर्ति को हम भगवान मानते हैं , उसको बनाने वाले मूर्तिकार अक्सर मुस्लिम होते हैं । फिर क्यों हिन्दू मुस्लिम आपस में झगड़ते हैं ?
* कुछ लोग मंदिर के आगे से जाते हुए हाथ जोड़कर शीश झुकाते हैं । भगवान तो सर्वव्यापी है , फिर वहीँ क्यों ?
ऐसा नहीं है कि मैं नास्तिक हूँ । भगवान में विश्वास रखता हूँ । एक सर्वशक्तिमान , सर्वव्यापी , अदृश्य शक्ति में विश्वास रखता हूँ । लेकिन आर्य समाजी होने के नाते मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखता ।
इस वर्ष सामान्य से अत्याधिक हुई बारिस , कहीं हमारे भ्रमित कर्मों का फल ही तो नहीं ?
इससे आने वाली विपदाओं से निज़ात कैसे पाई जाए ?
मेरे ख्याल से तो प्रभु के चरणों में जाने के सिवाय और कोई चारा नहीं । ऐसे में वही बेडा पार लगा सकते हैं ।
फिर कैसे मनाया हमने जन्माष्टमी का पावन पर्व ?
यह जानने के लिए अगली पोस्ट पढना मत भूलियेगा ।
नोट : ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं । ज़रूरी नहीं कि आप सहमत हों । कृपया अन्यथा न लें ।
Sunday, September 5, 2010
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बिना किसी को असहज किये भक्ति हो तो बेहतर है।
ReplyDeleteस्वागत है और प्रतीक्षा भी आपकी अगली पोस्ट की..........
ReplyDeleteइस वर्ष सामान्य से अत्याधिक हुई बारिस , कहीं हमारे भ्रमित कर्मों का फल ही तो नहीं ?
ReplyDeleteइससे आने वाली विपदाओं से निज़ात कैसे पाई जाए ?
....राधे राधे जय श्रीकृष्ण .... आगे की प्रतीक्षा में ....
सटीक चिंतन ..
ReplyDeleteशिक्षक दिवस की शुभकामनायें
भक्ति ऐसी कीजिये , जान सके ना कोय । जैसे मेहंदी पात में , रंग रही दबकोय।
ReplyDeleteसही बात
एक इंजिनियर अपने कार्यकाल में आम तौर पर छोटे स्केल पर बने मॉडल का उपयोग करता है - जब आम गणना संभव नहीं होती,,,aur acupuncturist bhi manav shareer ko एक electrical circuit dwaara dikhate aaye hain jismein shareer ki urja ko 12 alag alag channel में bahta maana jaata है shareer ke kisi एक (dil jaise) mahatva poorna ang se sambandhit... is kaaran shayad uske liye hamaare pracheen yogiyon ke manobhav ko samajhne में saralta होती है, jaise जब janne ko milta है ki unhone manav shareer ko svayam krishna का swaroop maana (ghor tapasya ke baad) - yaani andekhe aur anjaane bhagwaan का मॉडल...kintu samay का prabhav dikhaane ke liye har manav shareer ko sunya se anant tak ke kisi एक kaal का pratiroop, shunya se kai arab varsh tak,,, jise samajhne ke liye, मॉडल ke smaan aap अपने hi janm se ab tak ke foto ke madhyam se samajh sakte hain: jaise jo aap aaj kar paate hain wo अपने shaishav kaal में नहीं kar paate the jabki aap ki har tasveer swayam aapki hi है, yaani Tareef Singh ki!
ReplyDeleteशिक्षा दिवस की शुभकामनाएँ .... आपकी अगली पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी ... ....
ReplyDeleteबहुत सटीक और सीधा संदेश, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
शिक्षक दिवस की शुभकामनायें आपकी अगली पोस्ट की प्रतीक्षा है.
ReplyDeleteआपकी बात मुझे बहुत अच्छी लगी.
ReplyDeleteसही हैं, धार्मिक भेदभाव और वैमनस्य नास्तिक होने का सबूत हैं.
ऐसे लोग, दंगा-फसाद कराने वाले लोग सच्चे धार्मिक हो ही नहीं सकते.
बहुत बेहतरीन,
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
अपके ही नही हमारे भी यही ख्यालात हैं। धन्यवाद। शुभकामनायें
ReplyDeleteनही डा० सहाब, कम से कम मै आपके बिचारों से पूर्णतया सहमत हूं ! आज हर चीज को दिखावे ने दबोच लिया है!
ReplyDeleteओशो ने पूछा हैः
ReplyDeleteज़रा सोचो,जिस परमात्मा ने इतनी विशाल सृष्टि रची,वह स्वयं कितना विराट् होगा। तुम्हारे छोटे से मंदिर में वह कैसे समाएगा?
दिल से दिल को राहत होती है डॉक्टर साहिब जी!
ReplyDelete--
भारत के पूर्व राष्ट्रपति
डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म-दिन
शिक्षकदिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
यही तो कमी है हम लोगों में कि काम कम करते हैं और दिखावा ज्यादा करते हैं...आजकल ये धार्मिक अनुष्ठान भी सिर्फ दिखावे के लिए ही रह गए हैं....कहीं दही की हांडी में शराब मिलाई जा रही है तो कहीं गाजे-बाजे और ढोल-ढमक्के की धुनों पर सडकें जाम की जा रही हैं...
ReplyDeleteकहीं ये दूसरे धर्मावलंबियों को अपनी ताकत...अपनी बढ़त दिखाने का अभिमान तो नहीं?...
कहीं जुम्मे की नमाज़ के वक्त सडकें बन्द कर दी जाती हैं तो कहीं सिंधियों के अनुष्ठान पर पन्द्रह दिनों के लिए पूरी सड़क पे ही कब्ज़ा जमा लिया जाता है...
सब कुछ जानने और समझने के बावजूद आम इंसान सिर्फ चुप लगा के रह जाता है कि आखिर...बिल्ली के गले में घंटी बाँधे कौन?...
सोचने पर विवश करता बहुत ही बढ़िया एवं सटीक लेख...
बहुत सुन्दर और सठिक सन्देश देती हुए उम्दा पोस्ट !
ReplyDeleteशिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!
आज चूहा दौड़ के कारण गहराई में जाना संभव नहीं है आम व्यक्ति के लिए...किन्तु समय सदैव बदलता रहता है और उसके साथ पर्यावरण भी बदलता है, जिस कारण जो भी गहराई में कभी भी उतर सके तो जैसी हिन्दू मान्यता है वो जान सकता है कि संभव है कि काल १००% ज्ञान के साथ आरंभ कर उलटी दिशा में नज़ारा दिखा रहा है, यानि बाद से बदतर होता पर्यावरण और मानव कि कार्य कुशलता भी,,,यद्यपि हर काल में कुछ अछे भी दिखाई देंगे...
ReplyDeleteलोग सोचते हैं,,, जितना दिखावा किया जाएगा
ReplyDeleteउनकी उतनी ही सुनी जाएगी
और यही भ्रम हम सब को गर्त में लिए जा रहा है
किसी भी पूजा-स्थल पर जोर जोर से
ऊंची आवाज़ में स्पीकर लगा कर गाना
(ख़ास तौर पर फ़िल्मी धुनें)
आज लोगों की आदत बन चुकी है
कोई कितना भी परेशान क्यूं न हो
उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है
आपके गहरे और सार्थक चिंतन के लिए नमन कहता हूँ
डाक्टर साहब आपने जो सवाल उठाये हैं मैं वो सवाल बचपन से उठा रहा हूँ...धर्म का रूप इतना बिगड़ चूका है के घृणा होने लगी है...माता के जगराते, हनुमान चालीसा के पाठ ओर सत्यनारायण की कथा के पीछे लोग इतना दिखावा करते हैं के मन मसोस कर रह जाना पड़ता है...धर्म को लोग अपने फायदे के लिए मुहरे की तरह उपयोग करते हैं...धर्म का फूहड़ता से बाज़ारी करण कर दिया गया है...
ReplyDeleteयहाँ मुंबई में ,जन्म अष्टमी पर बहुत ऊँचाई पर हांडी लटकाई जाती है जिसे नौजवानों के झुण्ड के झुण्ड पिरामिड बना कर तोड़ते हैं...ऊंचा पिरामिड बनाने को उकसाने के लिए दही हांडी की कीमत कई लाख रुपये रखी जाती है जिसे शहर के स्मगलर, नेता, काला बाज़ारी ओर गुंडे स्पोंसर करते हैं...इस खेल में अक्सर बच्चे ओर युवा जो पिरामिड में सबसे ऊपर होते हैं गिर कर अपनी हड्डी पसली तुडवा बैठते हैं...इस साल पचास के लगभग युवा घायल हुए उन में से तीस की हालत चिंता जनक है...ये कौनसा तरीका है कृष्ण को रिझाने का?
बात यहीं ख़तम हो तो समझ में आती है दिन भर इन गोविन्दाओं की टोलियाँ पूरे शहर को अपने गिरफ्त में ले लेती हैं ओर आती जाती हर उम्र की महिलों को अश्लील इशारे करते हुए उन्हें राधा समझ कर छेड़ती हैं फब्तियां कसती हैं दुप्पटे उतारती हैं...शर्म आती है जब धर्म के नाम पर ये सब देख नंगा नाच देख कर भी हम खामोश हो जाते हैं...
नीरज
आजकल तो आडम्बर में ही भक्ति है... डेकोरेशन नहीं होगा तो भक्त भी नहीं आएंगे :)
ReplyDeleteनीरज जी , सही आंकलन किया है स्थिति का । आज धर्म के नाम पर ढकोसले ज्यादा हो रहे हैं । श्रद्धा और भक्ति भावना नाम मात्र को रह गई है ।
ReplyDeleteधर्म को खेल बनाकर कुछ लोग अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं ।
हैप्पी बर्थडे टू यू -- हैप्पी बर्थडे टू कृष्णा यह तो मैंने भी पहली बार सुना सर.. :) कैसे मनाया आगली पोस्ट में दिखाइएगा..
ReplyDelete" कुछ लोग मंदिर के आगे से जाते हुए हाथ जोड़कर शीश झुकाते हैं । भगवानतो सर्वव्यापी है , फिर वहीँ क्यों ?"
ReplyDeleteआदरणीय दाराल साहब, आपका प्रश्न जायज है.
उत्तर देने की ध्रष्टता कर रहा हूँ, आशा है अन्यथा न लेंगे.............
जिस तरह बीमार होने पर आज का इन्सान "प्रकृति के पास हर समस्याओं का समाधान है" पर विश्वास न रख कर अस्पताल में जा कर इलाज कराना बेहतर समझता है (ध्यान रखें कि ऐसा जानवर, पशु-पक्षी आदि कभी नहीं करते) उसी तरह सर्वव्यापी
भगवान की सत्ता को स्वीकारते हुए भी, भावना के वशीभूत हो कुछ लोग मंदिर के आगे से जाते हुए हाथ जोड़कर शीश झुकाते हैं हैं और ईस्वर के समक्ष अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं (ध्यान रखें कि ऐसा जानवर, पशु-पक्षी आदि ऐसा कभी नहीं करते)
एक बार पुनः निवेदन है कि आप मेरे उत्तर को आशा है अन्यथा न लेंगे.............और अपना स्नेह पूर्वत बनाये रखेंगे.
नमन स्वीकार हो.
चन्द्र मोहन गुप्त
डा.साहिब, आपने कुछेक शंकाएं उठाई हैं, जैसे * भगवान तो कण कण में , रोम रोम में बसा हुआ है , फिर उसे मंदिरों में क्यों तलाशते हैं ?* आदि...जिस कारण प्रश्न उठ सकता है की क्यूँ कोई भगवान के हाथ को इन 'मूर्खता पूर्ण' हरकतों में भी नहीं देख पाता (जबकि जिसका आपने सन्दर्भ दिया उस 'गीता' में कृष्ण कहते हैं कि वो हर प्राणी के भीतर हैं - भले ही माया से भिन्न भिन्न रूप दीखते हों,,, जिस कारण यदि आप किसी को गाली देते हैं तो आप कृष्ण को ही गाली दे रहे होते हैं)?
ReplyDeleteसही प्रश्न उठाये हैं आपने। सहमत हूँ आपसे।
ReplyDelete* भगवान तो कण कण में , रोम रोम में बसा हुआ है , फिर उसे मंदिरों में क्यों तलाशते हैं ?
ReplyDelete* जिस पत्थर की मूर्ति को हम भगवान मानते हैं , उसको बनाने वाले मूर्तिकार अक्सर मुस्लिम होते हैं । फिर क्यों हिन्दू मुस्लिम आपस में झगड़ते हैं ?
* कुछ लोग मंदिर के आगे से जाते हुए हाथ जोड़कर शीश झुकाते हैं । भगवान तो सर्वव्यापी है , फिर वहीँ क्यों ?
ऐसा नहीं है कि मैं नास्तिक हूँ । भगवान में विश्वास रखता हूँ । एक सर्वशक्तिमान , सर्वव्यापी , अदृश्य शक्ति में विश्वास रखता हूँ । लेकिन आर्य समाजी होने के नाते मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखता ।
डाॅ साहब ,
आस्थाएं न हिन्दू होती न मुस्लमान । वह खालिस ईमान होती है।
सियासी लोग और धर्मों की पल्लेदारी करनेवाले भी हिन्दू होते न मुसलमान। वे सिर्फ जुनून के सौदागर होते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं।
आस्थाएं फिर भी व्यक्तिगत होती हैं। एक जैसी आस्थाओं के लोग मिलकर एक आस्तिक समाज का निर्माण करते हैं।
कर्मकांड के तिलिस्म को समझकर अपनी आस्थाओं को कबीर की तरह अपने अंदर जीवित रखनेवाला व्यक्ति ही जागृत होता है
आपके विचार अच्छे लगे।
""यदि हजारों मरीज़ एक साथ आ जाएँ तो कहाँ भर्ती करेंगे ?""
ReplyDeleteसर ये सोच सोच के बचपन से ही मेरा दिमाग खराब होता रहा है अगर जापान की तबाही का एक अंश भी भारत में हो गया तो हम क्या करेंगे। इन हालात में ही लगता है कि पूरा देश ही भगवान भरोसे है। अगर कहीं भगवान है तो वो कम से कम भारत में तो है कहीं कहीं। यहां अकाल औऱ भूख से लोग अब मरते हैं। मजे की बात ये है भूखमरी से लोगो के मरने के सारे आंकड़े अंग्रेजों और काले अंग्रेजों के जमाने में ही ज्यादा मिल रहे हैं।
और सर बारिश तो खैर जमकर हुई है। पिछले कुछ सालों का कोटा पूरा कर दिया है। पर डेंगू जैसी बीमारी पूरी तरह से सरकारी रवैये औऱ खुद कुछ हद तक हमारी ही काहिली से फैल रही है।
वैसे डेंगू को किनारे कर दें तो अच्छा है कम से कम पहली बार ही सही नेताओं की पेशानी पर बल तो पढ़ रहे हैं न। व्यक्गित बातचीत में नेताओं को भी डर है कि अगर सही से गेम्स नहीं हुए तो जनता को जवाब देना भारी पड़ जाएगा।
सर
मैं तो मूर्ति पूजक हूं। स्वामी विवेकानंद को आधुनिक भारत का सबसे बड़ा चिंतक मानता हूं। पर ये बहस हमेशा ही चलती रहेगी। क्योंकि ये भारत है..हैं जहां खुद भगवान भी अनेक कौतुहल करता है। एक तरफ एकमत के प्रचार के लिए संत आते हैं तो दूसरी तरफ दूसरे मत के..सही में गीता से बढ़कर कुछ नहीं।
रोहित जी , अगली पोस्ट में गीता का सारांश ही दिया है ।
ReplyDeleteलेकिन फिर भी लम्बा होने से पढना मुश्किल पड़ेगा ।
वैसे इश्वर एक ही है , उसे किसी भी रूप में देखें । बस सच्ची भावना होनी चाहिए ।