यूँ तो कॉलिज के दिनों में अक्सर उसके पास से जाना होता था। लेकिन किस्मत देखिये की सारी ज़वानी गुज़र गयी और हम एक बार भी इस जगह फटक तक न सके। लेकिन कहते हैं न की दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम। इसी तरह जब तक संयोग नहीं होता तब तक आप कुछ नहीं कर सकते । फिर भले ही वो किसी पार्क में जाना ही क्यों न हो ।
उस दिन दिल्ली यूनिवर्सिटी के नोर्थ कैम्पस में कुछ काम था। हमारे पास दो घंटे का फ्री टाइम था। श्रीमती जी ने कहा ---हमें कैम्पस ही घुमा दो । लेकिन गाड़ी में बैठे बैठे , ५-१० मिनट में ही सारा चक्कर पूरा हो गया। तभी हम उस जगह पहुँच गए जहाँ के बारे में हमने सिर्फ सुना ही था । जाने की तो कभी हिम्मत ही नहीं हुई ।
जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ, दिल्ली यूनिवर्सिटी के एकदम साथ लगा हुआ , डी डी ए ( दिल्ली विकास प्राधिकरण ) द्वारा विकसित एवम अनुरक्षित ये हरित क्षेत्र :
यहाँ खड़ी पचासों मोटरसाइकिलों को देखते ही अंदाज़ा हो जाता है की ये स्थान युवाओं के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है। कारें तो बस इक्का दुक्का ही थी।
गेट से घुसते ही ये ये रास्ता ऐसा लगता है, मानो जंगल से होता हुआ किसी राजा के किले की और जा रहा हो।
लेकिन जल्दी ही घना जंगल शुरू हो जाता है। पेड़ पर बैठा ये बन्दर हमें ऐसे देख रहा था , जैसे कह रहा हो ---
इस ताज़ा नौज़वानों के स्वर्ग में ये भूतपूर्व नौज़वान कहाँ से आ गए।
जी हाँ, यहाँ आने वाले लगभग सभी एक दम ताज़ा ताज़ा ज़वानी की दहलीज़ पर कदम रखने वाले ही होते हैं।
ये तो हमारी बहादुरी ही थी की हम सैकड़ों शरमाई सी , शकुचाई सी नज़रों का सामना करते हुए , यहाँ विचरण करते रहे।
थोडा आगे चलने पर हम पहुंचे इस स्थल पर जहाँ वृक्षारोपण का बोर्ड लगा था। बायीं तरफ जाने पर ऐसा कोई स्थल तो नहीं मिला ।
हाँ, एक नवयुवक अपने ज़वानी के सुनहरे सपनों को साकार करने का प्रयास ज़रूर कर रहा था , जो हमें देखकर झिझक गया।
घने जंगल में ये बेगन बेलिया का पेड़ लाल और गुलाबी रंग के फूलों से लदा अपनी अलग ही छटा बिखेर रहा था ।
और ये जर्मन शेफर्ड भी घूमने आया था ,अपने मालिक के साथ। ये तो हमें इसके मालिक से ही पता चला।
हालाँकि ये पता नहीं चल सका की मालिक इसको घुमाने लाया था या ये मालिक को।
इस बम्बू द्वार के आगे तो एक झील थी, जिसका नाम ही इतना भयंकर था की रोंगटे खड़े हो गए। जी हाई, वहां लिखा था --खूनी खान झील।
खैर हम आगे बढे , और घनी हरियाली में खो से गए।
ये लताएँ देखकर तो किसी का भी मन टार्ज़न बनने का कर सकता था। लेकिन हमने अपनी उफनती भावनाओं को रोका , ये सोचकर की कहीं कोई हड्डी चटक गयी या मुड भी गई तो लेने के देने पड़ जायेंगे।
खूनी खान झील के किनारे ये हरियाली देखकर मन बाग़ बाग़ हुआ जा रहा था।
इस पेड़ को देखकर तो ऐसा लगा मानो सारी पुरवाई बस इसी के लिए चली हो। सारा पेड़ पश्चिम की तरफ झुका हुआ था, अकेला ।
और सच मानिये इतनी स्वादिष्ट चाट जो हमने वहां खाई, आज तक कहीं नहीं खाई थी। बस बंदरों ने नाक में दम कर दिया था। अब चाट वाला तो एक डंडी हाथ में देकर खिसक लिया। और हम डरते डरते चाट खा रहे थे। हमारी श्रीमती जी तो बंदरों से इतना डरती हैं, जितना तो हम कोकरोच से भी नहीं डरते।
वैसे भी कोकरोच भले ही बाहर से घिनोने दिखते हों, लेकिन एक बार पंख हटाओ तो अन्दर से उतने ही साफ़ सुथरे होते हैं। ये हमने प्री-मेडिकल में कोकरोच का डिसेक्शन करते हुए देखा था।
और अंत में यह बोर्ड, मानो जिंदगी का सन्देश देता हुआ।
पेड़ों की छाया, जैसे माँ का आँचल।
इनसे मिलती ओक्सिजन , जैसे माँ का स्तन पान।
यहाँ बैठकर, घूमकर वैसा ही सुकून मिलता है, जैसा माँ की गोद में बैठकर मिलता है।
कमला नेहरु रिज़ दिल्ली यूनिवर्सिटी और रिंग रोड के बीच सैंकड़ों एकड़ में फैला हुआ शायद दिल्ली का सबसे बड़ा पार्क है। इसे पार्क कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि यहाँ कोई खुला स्थान नहीं है। बस पेड़ ही पेड़ चरों ओर । इतनी हरियाली की दिल बोले हडिप्पा !
पहली बार मुझे दिल्ली विकास प्राधिकरण पर गर्व महसूस हुआ।
नोट : कुछ और फोटो देखने के लिए चित्रकथा पर भी देखें।
सुंदर चित्रों के साथ सजीव वर्णन .. चाट की चर्चा से तो मुहं में पानी आ गया !!
ReplyDeleteसुंदर चित्रों के साथ सजीव वर्णन......अच्छा लगा....
ReplyDeleteतस्वीरें तो शानदार है.
ReplyDeleteआपने रिज का सुन्दर और रोचक वर्णन किया हैं। विश्वविद्यालय गए हुए ४-५ महीने हो गए हैं। रिज के चित्र देख कर हमे साइकिल यात्रा याद आ गयी। सारे दोस्त मिलकर मेट्रो स्टेशन से साइकिल लेते थे और पूरे रिज और आस पास के इलाको का चक्कर लगते थे। हरियाली से तो इलाका भरा पड़ा हैं। बंदरो का आतंक भी बहुत हैं परन्तु प्रेमीजन उनसे भी ज्यादा संख्या में दीखते हैं।
ReplyDeleteऔर यह जिस खुनी खान झील की आपने बात करीं हैं न वो वाकई में खुनी हैं, कुछ वर्ष पहले एक छात्र की उसमे गिरने से मौत हो गयी थी। आपकी चाट वाली बात से मुझे हिन्दू कॉलेज के बाहर खड़े होने वाले भेलपुरी वाले की भेलपुरी याद आ गयी। बहुत ही मजेदार होती हैं। कभी खा कर देखिये।
पहली बार मुझे दिल्ली विकास प्राधिकरण पर गर्व महसूस हुआ।
ReplyDeleteडी डी ए पर गर्व बड़ी अजीब बात लगी पर क्या करें आँखों देखी पर तो विशवास करना ही पड़ेगा
हरियाली अच्छी लगी
सुंदर वर्णन , खूबसूरत चित्र
ReplyDeleteकुछ संस्थायें अनजाने में ही अछे काम कर जाती हैं . जैसे उन्होने यहाँ कोई कंक्रीट का जंगल नहीं खड़ा किया . सुंदर चित्र.जगह का असर तो साफ़ दिखाई दे रहा है आपकी युवाई में :)
ReplyDeleteरचना जी, डी डी ए पर गर्व इसलिए की ये रिज़ डी डी ए द्वारा ही निर्मित और अनुरक्षित है।
ReplyDeleteवैसे तो डी डी ए ने दिल्ली को कंक्रीट जंगल बना छोड़ा है।
महेश जी , एक बार हो ही आइये, फिर देखिये असर। ha ha !
बहुत सुंदर लगा,ैस खुनी खान झील के बारे पडा था कही, चलिये कभी मोका मिला तो जरुर आयेगे इसे देखने,धन्यवाद
ReplyDeleteवाह आपने तो कहावत सच कर दी .... बगल में छोरे नगर में ढिंढोरा ....... दिल्ली में ही इतनी हरियाली है तो अब बाहर क्या जाना ........ वैसे मुझे तो ये आपके कैमरे और फोटोग्राफी का कमाल लगता है .......... बहुर्त खूबसूरती से बाँधा है आपने .......
ReplyDeleteबढ़िया सैर करा दी आपने वाह दिल्ली वाहवा दिल्ली
ReplyDeleteवाह! आपके साथ-साथ सैर हमने भी की। लेकिन अब झील का नाम खुनी खान क्यों पड़ा? यह जानने की उत्सुक्ता हो गयी है। अगर इस विषय मे कहीं जानकारी मिले तो अवश्य अवगत करायें। सुंदर पोस्ट के लिये आभार
ReplyDeleteआपसे सहमत हूं कि दिल्ली में इस तरह के हरे भरे बहुत से पार्क हैं.
ReplyDeleteसजी सँवरी पोस्ट के लिए बधाई!
ReplyDeleteडा. दराल साहिब ~ जानकारी और सैर के लिए धन्यवाद! में '५८ सन तक कुछ वर्ष उधर से निकला करता था. किन्तु तब अधिकतर विद्यार्थी बस से यात्रा कर यूनिवर्सिटी गेट पर उतर अपने-अपने विभाग की ओर चले जाते थे...हम लोगों को घर लौटते समय कई बार मीलों चलना पड़ता था बस पकड़ने के लिए क्यूंकि गेट में कोई बस अधिकतर रूकती ही नहीं थी!
ReplyDeleteहिमालय से भी बहुत प्राचीन अरावली रेंज के उत्तरी भाग का यह हिस्सा मैंने कभी देखा ही नहीं - न तब न बाद में...हाँ मैंने बुद्ध जयंती विहार अवश्य देखा - कई बार सन '६५ के बाद...
यशवंत, हिन्दू कॉलिज के सामने वाली भेलपुरी अवश्य खा कर देखेंगे। अभी तो आना जाना लगा ही रहेगा।
ReplyDeleteललित जी, खूनी तो इसलिए की वहां लिखा था की झील की गहराई ८० फीट है, इसलिए इससे दूर ही रहें।
इसके लिए चारों तरफ बाड़ भी लगा रखी थी। लेकिन जैसे की यशवंत ने बताया , वहां किसी छात्र की मौत हो गयी थी, डूबकर। शायद इसीलिए इसका नाम यह पड़ा होगा।
नासवा जी, कैमरे ने सिर्फ खूबसूरती को पकड़ा है। हरियाली तो वास्तव में गज़ब की है वहां।
और सबसे बड़ी बात यह है की पूरा का पूरा क्षेत्र एक घना जंगल है, शहर के बीचों बीच।
जे सी साहब, चलिए इसी बहाने हमारे साथ आपने भी इस क्षेत्र की सैर कर ली।
ReplyDeleteऐसी न जाने कितनी जगहें हैं, जहाँ हम कभी जा ही नहीं पाए। सचमुच दुनिया बहुत बड़ी है।
नए जवानों को मात दे रहे हो, खूब जँच रहे हो डॉ साहब ! शुभकामनायें !
ReplyDeleteदिल्ली की सैर पर देर से आने के लिए माफ़ी...
ReplyDeleteडॉक्टर साहब, आप का फोटो देखकर तो लगता है कि रिज में मौजूद एक से बढ़कर एक गबरू जवान भी मारे साड़े (ईर्ष्या का पंजाबी शब्द) के जलभुन कर कोयला हुए जा रहे होंगे...
चश्मेबद्दूर...
जय हिंद...
ओह! दराल साहब आप इतने दिनों बाद DDA में गए जवानी के दिनों में समय नहीं होगा| खैर आप तो अभी भी स्मार्ट हैं !! वैसे टार्जन बनने का आयडिया बुरा नहीं था !!! मजा आ गया हलकी फुलकी हंसी के साथ हम भी आपके साथ सैर कर आये !!!
ReplyDelete'खूनी खान' के बार में यदि अनुमान लगाया जाये तो, सबसे पहले, 'खान' का मतलब होता है वो जगह जहां से पत्थर, धातु आदि खोद कर निकाले जाते हों...और यह शायद सभी को मालूम होगा, भारत कि राजधानी के निर्माण में 'दिल्ली क्वार्टजाइट' नामक पत्थर इमारतों आदि के निर्माण में उपयोग में लाया जाता रहा है...इस लिए संभव है यहाँ कभी ऐसी ही खान ('क्वेरी') रही हो जहां से पत्थर निकाले गए हों और बाद में ऐसे ही छोड़ दी गयी हो - जिसमें कालांतर में वृष्टि-जल भर गया हो...हमारे पहाड़ों में एक मोहल्ले का नाम 'चीना खान' रख दिया गया है क्यूंकि वहाँ के घरों के निर्माण में एक ही खान से पत्थर काट कर लाये गए - बड़े बड़े भी, सब कुलियों की पीठ पर लाद कर दूर पहाड़ से, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वे कुली कितने ताकतवर रहे होंगे...आज भी आप जैसे शिमला में देख सकते हैं कुली कितना भारी भारी समान अपनी पीठ पर लाद कर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाते हैं...
ReplyDeleteडा० साहब, मजेदार, वैसे एक बात कहूँ, इस पार्क के गलियारे में खींची फोटो में आप भी २१-२२ के ही लग रहे है !
ReplyDeleteभगवान् से प्रार्थना है कि उन भटकती आत्माओ को शान्ति प्रदान करे, जिनके चैन और शकुन में आपने बेवजह वहाँ जाकर खलल डाला :)
जे सी साहब, आपकी बात सही लगती है। शायद ऐसा ही रहा होगा।
ReplyDeleteगोदियाल जी, पहली बात --विघ्न नहीं डाला। दूसरी बात --बेवज़ह तो बिलकुल भी नहीं। हा हा हा !
खूबसूरत फोटोग्राफी की है डा० साहब आपने.
ReplyDeleteविकास प्राधिकरण का यह रूप भी अच्छा लगा
अभी तक तो हम इसे विनाश प्राधिकरण ही समझते थे.
सुन्दर चित्र और सजीव चित्रण - ऐसा लग रहा है कि कंप्यूटर के मोनिटर पर चलती फिरती डौक्यूमेंट्री देख रहे हों. बहुत सुंदर!
ReplyDeleteमहावीर शर्मा
अदभुद चित्र है , ऎसा लग रहा है जैसे स्वय ही पार्क मे विचरण कर रहा हू , इन कंकरीट के जंगलो के बीच रहकर प्रकृति के चित्र को देखना कितना सुखद है यह व्यक्त करना कठिन है
ReplyDeleteदिल्ली में किसी अन्य शहर की तुलना में वाकई काफी हरियाली अभी भी है।
ReplyDelete--------
अपना ब्लॉग सबसे बढ़िया, बाकी चूल्हे-भाड़ में।
ब्लॉगिंग की ताकत को Science Reporter ने भी स्वीकारा।
3 saal se jyada ho gaye par udhar jane ka kabhi mauka nahi mila... par is chhutti pakaa programme...
ReplyDeleteहाँ, एक नवयुवक अपने ज़वानी के सुनहरे सपनों को साकार करने का प्रयास ज़रूर कर रहा था , जो हमें देखकर झिझक गया।
ReplyDeleteआपकी नज़र बड़ी पैनी है .......हा....हा....हा.....!!
और ये जर्मन शेफर्ड.......अरे ये तो मेरा राकी और सेफू है ......!!
खूनी खान झील.....वाह .....!!
बंदर वाले पेड़ की खूबसूरती गज़ब की है ......आपने तो बैठे बैठाये इतने खूबसूरत कमला नेहरु रिज़ की सैर करा दी ....!!
दिल्ली की सैर का आनन्द आया ।
ReplyDeleteअरे इन सबके बीच में ये चाट लाना जरुरी था क्या? dr.Daral! न जाने अब कब तक मूंह में से पानी आएगा....:) सजीव चित्र और सजीव विवरण ....ब्लॉग पर पधारने का बहुत शुक्रिया आपका
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को देख कर तो मुझे भी दिल्ली विकास प्राधिकरण पर गर्व महसूस हो रहा है
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