कल लोहड़ी थी। हालाँकि लोहड़ी तो हम भी हर साल मनाते रहे हैं। कल भी मूंगफली, रेवड़ी और फुल्ले खाकर विधिवत रूप से लोहड़ी मनाई। लेकिन भाई खुशदीप सहगल की पोस्ट पढ़कर पहली बार दूल्हा भट्टी के बारे में पता चला। यही ब्लोगिंग का एसेंस है।
आज ब्लोगिंग जानकारी का एक सशक्त माध्यम बनती जा रही है।
आज संक्रांति है। और इस त्यौहार को अलग अलग राज्यों में अलग अलग तरीके से मनाया जाता है। जहाँ लोहड़ी मुख्यतय पंजाब का पर्व है, वहीँ उत्तर भारत में संक्रांति--- हरयाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक ही तरीके से मनाई जाती है।
और जहाँ लोहड़ी हर्ष और उल्लास की प्रतीक मानी जाती है, वहीँ संक्रांति को मनाने का तरीका बिलकुल अलग है।
मुझे याद है, बचपन में हम गाँव में देखते थे की इस दिन कैसे घर के बड़े बूढ़े अचानक रूठ जाते थे। और कहीं दूर दूसरे मोहल्ले में जाकर बैठ जाते थे। फिर घर की नई नवेली बहू उन्हें मनाती थी ।
इसका भी एक अजीब सा तरीका होता था । मोहल्ले की सारी औरतें इकट्ठी होकर , गीत गाती हुई ताऊ या दादा जी को मनाने जाती थी , एक लस्कर बनाकर। फिर घर की बहू, उन्हें एक शाल, चादर या कम्बल भेंट करती थी, साथ में कुछ रूपये श्रधानुसार।
इस तरह ताऊ या दादा की नाराज़गी दूर हो जाती थी। हालाँकि यह सब बनावटी ही होता था। लेकिन इसे सभी खूब एन्जॉय करते थे।
आज ये सब लुप्त सा हो गया है। शहरी जिंदगी ने शायद रूठने का हक़ भी छीन लिया है।
और कोई रूठ भी जाये , तो अपनी बला से । मनाता कौन है।
सब अपनी अपनी दुनिया में मस्त हैं।
लोहड़ी हो या संक्रांति या पोंगल ---सबका उद्देश्य एक ही है ।
--- की सब मिलकर रहें, --- मिलकर खुशियाँ मनाएं, --- सारे गिले शिकवे भूलकर।
आप सब को लोहड़ी, संक्रांति और पोंगल की ढेरों बधाई और शुभकामनायें।
संक्रांति के बारे में अधिक जानकारी आपकी टिप्पणियों में अपेक्षित है।
डॉक्टर साहब,
ReplyDeleteआपको भी मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या और महाकुंभ शुरू होने की बहुत बहुत बधाई...
वैसे डॉक्टर साहब आपने ये रूठने-मनाने का फंडा खूब बताया...चलिए आप और मैं ढ़ूंढते हैं अपने ब्लॉगवुड में तो नहीं हैं कोई रूठे हुए...उन्हें मनाने चलते हैं....हमारी बात मानें न मानें, टीचर्स की बात ज़रूर मान लेंगे...
जय हिंद...
सही कह रहे हैं,
ReplyDeleteआप सब को लोहड़ी, संक्रांति और पोंगल की ढेरों बधाई और शुभकामनायें।
हमारे यहाँ तो इस दिन खिचड़ी, चोखे, पापड़ और चटनी की बहार होती थी...बस!!फिर तिल पट्टी और तिल गुड़ के लड्डू!!
ReplyDeleteलोहड़ी, संक्रांति और पोंगल की ढेरों बधाई और शुभकामनायें।
"मुझे याद है, बचपन में हम गाँव में देखते थे की इस दिन कैसे घर के बड़े बूढ़े अचानक रूठ जाते थे। और कहीं दूर दूसरे मोहल्ले में जाकर बैठ जाते थे। फिर घर की नई नवेली बहू उन्हें मनाती थी ।"
ReplyDeleteयह भी हमारे लिये एक बिल्कुल नई जानकारी है।
ok
ReplyDeleteअब याद ही कर सकते हैं बचपन के दिनों को .. सुबह सुबह सबके नहाने का पानी गर्म होता .. छोटे बच्चे से लेकर बूढे तक स्नान करते .. उसके बाद सबके दान के लिए अलग अलग बरतन में सीधा और सामान निकला होता .. जिसे हमें सिर्फ छूना होता .. रेडिमेड बने तरह तरह के लाय यानि लड्डुओं,तिलकुट और दही चूडे का नाश्ता .. फिर मौसमी सब्जियों को डालकर बनायी गयी मसालेदार खिचडी का दोपहर का खाना .. आज की व्यस्तता में ये सब पीछे छूट गए .. आप सब को भी लोहड़ी, संक्रांति और पोंगल की ढेरों बधाई और शुभकामनायें।
ReplyDeleteअपने लिये तो संक्रांति खिचड़ी, तिल के लड्डू, गिल्ली डंडा और पतंगबाजी है।
ReplyDeleteसंक्रांति व लोहड़ी की शुभकामनाएँ।
लीजिये ये मैं टिप्पणी दान कर रहा -शुभ हो यह पर्व
ReplyDeleteलोहडी़ और संक्रांति पर आप को बहुत बहुत शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteसभी को मकर संक्रांति की शुभकामनाएं!!!
ReplyDeleteभारत एक कृषि-प्रधान देश यानि 'सोने की चिड़िया' रहा है...तथाकथित सोने का अंडा देने वाली मुर्गी के समान इसकी जमीन का दोहन अनादि काल से होता आया है - 'गंगा-जमुना' आदि माताओं की कृपा से काल-चक्र के साथ बदलते मौसम के अनुरूप...शायद अधिक मात्रा में जब से हिमालय श्रंखला का जन्म हुआ जम्बूद्वीप के उत्तर में भूमि अथवा धरती माता के गर्भ से...जिस कारण इस इलाके ने चुम्बक के समान अन्य देशों से समय-समय पर यहाँ रह रहे खाते-पीते निवासियों, और इस कारण सुस्त हो चले, उनसे अधिक शक्तिशाली और अधिक सेहतमंद व्यक्तियों को खींचा - जिसका गवाह इतिहास है (जिसमें मैं शून्य था स्कूल के दिनों में - इस लिए क्षमा प्रार्थी हूँ यदि कोई त्रुटी हो जाए ;)...
अब मशीनी युग में हम अधिक मान्यता लोहे को देने लगे हैं (मुर्गी के पेट से सीधे खनिज पदार्थ यानि 'सोने के अंडे' निकालने में विश्वास करने लगे हैं ;) जिस कारण संयुक्त परिवार अब कुछेक गांवों में ही रह गया है...पर अधिकतर बच्चे कनाडा/ अमेरिका/ आदि और भारत में भी बड़े छोटे शहरों में अधिक दूर दूर रहने लगे हैं...फिर भी इस 'चूहा दौड़' में थक के हमारा मन फिर से आनंद उठाने को तरसता है जो भूत में इस महान धरती पर सदैव उपलब्ध था, जिस कारण यह आज भी त्योहारों का देश माना जाता है, और मजबूर करता है सोचने को कि कोई न कोई शक्ति होगी जो स्वयं सदैव 'सतचिदानंद' अवस्था में है किन्तु मानव को न मालूम क्यों दो नावों में जैसे सफ़र करा रही है - एक दिन डुबाने के लिए :).......
"आज ये सब लुप्त सा हो गया है। शहरी जिंदगी ने शायद रूठने का हक़ भी छीन लिया है।
ReplyDeleteऔर कोई रूठ भी जाये , तो अपनी बला से । मनाता कौन है। "
बिलकुल सत्य बात , आपको भी लोहड़ी, मकरसंक्रांति और पोंगल की हार्दिक शुभकामनाये !
सही कह रहे हैं डा साब शहरी ज़िंदगी ने तो त्योहारों,परंपराओं की ऐसी की तैसी कर दी।ये भी सच है ब्लागिंग जानकारी बढाने का काम कर रहा है,दूल्हा भट्टी के बारे मे कल खुशदीप से पहली बार जाना और आज एक नई जानकारी आप से भी मिल गई है,नाराज़ बुज़ुर्गों को मनाने की,अब तो कोई नाराज़ रहे तो रहे,किसी के फ़ुरसत ही नही है।
ReplyDeleteहम लोगों को भी याद है पहले सुबह-सुबह नहाना पड़ता था।पानी मे तिल्ली के दाने,तो नहाने के लिये तिल्ली का उबटन,खाने मे हर चीज़ मे तिल्ली।और हां सुबह-सुबह तिल्ली और गुड़ के बने लड़ड़ू मिलते थे साथ मे ये सुनने को मिलता था और कहना पड़ता था,तिळ-गुळ घ्या अण गोड़-गोड़ बोला।यानी तिल-गुड़ खाओ और उसी तरह मीठा-मीठा बोलो।मुझे याद है सब भाई-बहनो को सारे गिले-शिकवे,यानी खट्टी-मिट्ठी छोड़ कर एक दूसरेसे बात करनी पड़ती थी।घरों मे आना-जाना और तिल-गुड़ के साथ महिलायें चावल के साथ चना,मूंगफ़ली,रेवडियां,तिल्ली,के अलावा कोई उपयोगी वस्तु गिफ़्ट दिया करती थी।पतंग तो खैर यंहा छत्तीसगढ मे संक्रांति पर नही उड़ाई जाती थी,मगर सभी लोग इसी बहाने एक-दूसरे के घर मिलने ज़रूर जाते थे।ये एक त्योहार था और दूसरा दशहरा जिसमे यंहा पर सोन-पत्ती देने की परंपरा है,लोग एक दूसरे के घर ज़रूर जाते थे,पर अब वो बात रही नही,मराठी लोग आज भी संक्राति पर पूरे सप्ताह या पखवाडे भर एक अपने-अपने घर आज भी मिलन-समारोह रखते हैं और जैसे-तैसे ही सही परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं।
आपको संक्रांति की बहुत-बहुत बधाई,तिळ-गुळ घ्या आणी गोड़-गोड़ बोला।
मकर संक्रांति की पावन सुबह है ये... सभी को बधाई!!
ReplyDeleteहमारे यहाँ तो इस दिन
प्रातः स्नान,
सूर्य नमस्कार,
चावल छूना, दान सीधा देना,
तिल मुढ़ी के लाइ,
दही चुडा, खिचड़ी, तरकारी, चोखे, पापड़...
- सुलभ
हमेशा की तरह ज्ञानवर्धक पोस्ट बाकी लोगों से भी बहुत जाना. हमारे यहाँ भी मकर संक्रांति को वही स्नान, तिल, गुड, खिचड़ी दान और उसी का खान . पर हाँ गुजरात में आज के त्यौहार को उत्तरायण कहते है उसके अगले दिल को बासी उत्तरायण स्कूलों में छुट्टी होती है दोनों दिन. सारा गुजरात छत पर ही होता है. खानें में उन्धिऊ (एक प्रकार की मिक्स वेजिटेबल) और जलेबी होता है.
ReplyDeleteहमारे यहाँ भी खिचडी, तिल लड्डू से मकर संक्राँति मनाई जाती है। मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या की बहुत बहुत शुभकामनायें
ReplyDeleteरूठने मनाने का अच्छा चित्रण । अब तो शायद अगर बुजुर्ग रूठ कर घर से चले जायें, कोई मनायेगा ही नही
ReplyDeleteत्योहार होते ही है आपस मै मेल मिलाप करने के लिये, जिस से रिस्तो मे मिठास बनी रहे.... लेकिन आज के युग मै हम सब भूल गये है.... आज बुजुर्ग बोझ बन गये है, या फ़िर एक दबा हुआ खजाना, बच्चे सोचते है कब बुढा या बुढी मरे ताकि मकान बेच कर ऎश करे...ओर जो आप ने नयी जानकारी दी बहुत नयी लगी, ओर सुंदर भी.
ReplyDeleteआप सभी को संक्रांति व लोहड़ी की शुभकामनाएँ।
बिल्कुल सही कहा डाक्टर साहब, इसीलिये हम कल से रुठे बैठे हैं ..कोई भी नही आया मनाने.
ReplyDeleteलगता है संपुर्ण कलयुग आचुका है. आज ठंड ज्यादा होगई सो खुद ही चुपचाप आकर घर मे घुस गये.
रामराम.
हा हा हा !रामपुरिया जी , हम खुशदीप सहगल जी को भेज देते हैं, आपको मनाने के लिए।
ReplyDeleteवैसे आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद, इतनी सारी जानकारी के लिए।।
यानि पता चला की संक्रांति पर :
सुबह सुबह स्नान करना पड़ता है।
दान दिया जाता है।
फिर तरह तरह के पकवान खाए जाते हैं, जिन में तिल से बने मिष्ठान बहुत लोकप्रिय हैं।
कहीं पतंग भी उड़ाई जाती है।
और हरियाणा में रूठ कर बैठा जाता है।
लेकिन संगीता जी, राज जी, अजय जी, गोदियाल जी, आपकी बात सही है की आज लोग इन रीति रिवाजों को भूल गए हैं। और जैसा की अनिल जी ने कहा , जैसे तैसे निबाह रहे हैं।
फिर भी कहीं न कहीं ये त्यौहार हमें एक सूत्र में बाँधने का काम तो करते हैं।
समय के साथ साथ कुछ परंपराएँ भी छूटती जा रही हैं .......
ReplyDeleteआपको भी मकर संक्रांति की बहुत बहुत बधाई .........
मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या और महाकुंभ शुरू होने की
ReplyDeleteआपको भी बहुत-बहुत बधाई!
Kisi bhi bindu par pahunchne ke liye pahle uski paridhi se arambh karna padta hai (prakaash ke srot surya tak seedhe pahunch sakta hai koi?), is liye main kahna chahoonga ki mera janm Shimla mein hua jab yah pahadi shahar Punjab mein hua karta tha...aur, 'jab meri aankh khuli to khud ko dilli mein paaya' :) (is vakya se juda ek joke kabhi baad mein :)
ReplyDeleteMere maata-pita moolroop se kumaon ke pahad ke the...yadyapi jaisa un dinon chalan tha, ladke high school pass kar, ek school leaving certificate mein pass ho sarkaari naukri ki taalaash arambh kar dete the...we bhi Shimla pahunch gaye jo un dinon British kaal ki Bharat sarkar ki garmiyon ki rajdhani hua karta tha...aur 16 varshoparant dwitiya mahayudh ke kaaran '40 mein dilli pahunch gaye the...
Pahadon mein, paramparanusaar makar sankranti ke din til-gud se bane laddoo ke atirikt shakkar pare (vibhinn aakaar, talwar aadi), bada ityaadi bante the. Dilli mein hamare ghar bhi in pakvanon se har bachche ke naam ki ek maala banti thi jise agle din subah savere naha kar हम gale mein pahan lete the aur phir ek ek kar, unko tod, kale kavvon ko khilaaate the...udaharantaya, bolte hue, "Le kavva bada/ mainke de suno ko ghada (ya talwar aadi) !" arthat, jab kavve jadon mein pahadon par bhojan ki kami ke kaaran marte the, tab unko diye gaye pakvaan bade aadi ke badle bhavishyqa mein unse sone ke ghade aadi ki aasha karte the :)
अब तो ओल्ड एज होम का जमाना आ रहा है .
ReplyDeleteसारे त्यवहारों की वाट लग रही है
बढ़िया संस्मरण जे सी साहब।
ReplyDeleteसुन्दर रचना आभार
ReplyDeleteआपने सही कहा कि आज ब्लोगिंग जानकारी का एक सशक्त माध्यम बनती जा रही है|...
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट से भी कई नई जानकारियों प्राप्त हुई ...आभार