एक मित्र हमारे ,
बन्दे सबसे न्यारे।
मूंछें रखते भारी ,
सदा सजी संवारी ।
कोई छेड़ दे मूंछों की बात ,
फरमाते लगा कर मूछों पर तांव।
भई मूंछें होती है मर्द की आन ,
और मूंछ्धारी , देश की शान ।
जिसकी जितनी मूंछें भारी ,
समझो उतना बड़ा ब्रह्मचारी ।
फिर एक सुहाने सन्डे ,
जोश में आकर , मूंछ मुंडवाकर ,
बन गए मुंछ मुंडे।
मैंने कहा मित्र , अब क्या है टेंशन ,
माना कि साइज़ जीरो का है फैशन।
और फैशन भी है नेनो टेक्नोलोजी का शिकार ,
तो क्या ब्रह्मचर्य को छोड़ इस उम्र में ,
अब बसाने निकले हो घर संसार ।
वो बोला दोस्त , ये फैशन नहीं ,
रिसेशन की मार है ।
जिससे पीड़ित सारा संसार है ।
और मैंने भी मूंछें नहीं कटवाई हैं ,
ये तो खाली कॉस्ट कटिंग करवाई है ।
अरे ये तो घर की है खेती ,
फिर निकल आएगी ।
पर सोचो जिसकी नौकरी छूटी ,
क्या फिर मिल पाएगी ?
वो देखो जो सामने बेंच पर बैठा है ,
अभी अभी पिंक स्लिप लेकर लौटा है ।
और ये जो फुटपाथ पर लेटा है ,
शायद किसी मज़दूर का बेटा है ।
दो दिन हुए शहर से गांव आया है ,
तब से एक टूक भी नहीं खाया है ।
कृषि प्रधान देश में ये जो नौबत आई है,
हमने अपने ही हाथों बनाई है ।
अरे अन्न के भरे पड़े हैं भंडार ,
फिर क्यों मची खाने की दुहाई है !
ग़र देश की जनता में हो अनुशासन ,
लॉक डाउन के नियमों का करें पालन।
हाथ धोते रहें बार बार ,
बाहर जाएँ तो मास्क पहने हर बार।
लक्ष्मण रेखा का ना अतिक्रमण हो ,
फिर कभी ना कोरोना का संक्रमण हो।
देश जब कोरोना मुक्त हो जायेगा ,
खुशहली का वो दौर फिर आएगा।
जनता जब भय मुक्त हो जाएगी,
तो भैया ये मूंछें भी तब लम्बी हो जाएँगी ।
माना कि मूंछें मर्द की आन हैं ,
मूंछ्धारी देश की शान हैं ।
मगर इस मंदी की मार से ,
कोरोना से मचे हाहाकार से ,
ग़र सबको मिले मुक्ति ,
तो ये मूंछें , एक नहीं ,
बारम्बार कुर्बान हैं , बारम्बार कुर्बान हैं ।
यह रचना एक पूर्व प्रकाशित रचना का कोरोना रूपांतरण है।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 03 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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