कल चाणक्य पुरी में अशोक होटल के सामने नेहरू पार्क के एक कोने में बने PSOI कल्ब में आयोजित पैलेट फैस्ट २०१५ में जाकर १९७५ - १९८० के दौरान अपने कॉलेज के समय की यादें ताज़ा हो गईं। वहीँ पास ही चाणक्य सिनेमा हॉल में देखी अनेकों फ़िल्में जिन्हे देखने के लिए अक्सर मेनेजर के पास जाकर सिफारिश लगाकर टिकटें लेनी पड़ती थी। या फिर ग्रेटर कैलाश में अर्चना सिनेमा हॉल में रॉजर मूर की जेम्स बॉन्ड की अनेकों फ़िल्में , जॉहन ट्रेवोल्टा की सेटरडे नाइट फीवर और अन्य अनेक इंगलिश फ़िल्में जो हमने फ्रंट स्टाल में बैठकर देखी थी ६५ पैसे की टिकेट लेकर। बोनी एम और एब्बा ग्रुप के गाने जिन्हे आज भी सुनकर तन और मन नृत्य करने लगता है।
निश्चित ही दक्षिण दिल्ली का यह पॉश इलाका सदा ही मन लुभाता रहा है। आखिर बचपन और जवानी के २० साल हमने यहीं गुजारे थे। इस क्षेत्र और अन्य क्षेत्रों के निवासियों में उतना ही अंतर दिखाई देता है जितना झुमरी तलैया और मुंबई के हीरानन्दानी क्षेत्र में। फिल्मों या फैशन शोज में दिखाई जाने वाली पोशाकें पहने सिग्रेट और बियर पीती लड़कियां सिर्फ यहाँ ही दिखाई दे सकती हैं।
उधर सभी ५ सितारा होटलों और जाने माने फ़ूड चैन रेस्ट्रां के एग्जोटिक व्यंजन चखने के लिए आये खाये पीये अघाये कुछ मोटे कुछ थुलथुल लोगों की भीड़ को देखकर कहीं ऐसा महसूस नहीं हुआ कि हमारे देश में कहीं गरीबी भी है। भूख भले ही न हो , लेकिन भूख लगाने के लिए सूप और स्टार्टर्स से शुरुआत करके मुख्य भोजन करने के बीच मनोरंजन के लिए एक ऊंची सी स्टेज पर एक्रोबेटिक्स करता एक पंजाबी मुंडा चिंघाड़ कर गाता हुआ युवा वर्ग को तालियां बजाने और साथ गाने के लिए लगातार उकसा रहा था। बेशक हम जैसे नॉट सो युवा भी इसका भरपूर आनंद उठा रहे थे।
आजकल मोबाईल कैमरे ने तो जैसे कल्चर ही बदल दिया है। सबके हाथों में तने कैमरे पल पल फोटो खींचते हुए इन पलों को कैमरे में कैद किये जा रहे थे। लेकिन सबसे ज्यादा पॉपुलर तो सेल्फ़ी हो गई है। हम भी जब सेल्फ़ी ले रहे थे तो एक बहुत ही सुन्दर सी कन्या ने हमें देखा तो बोली , लाइए मैं फोटो ले देती हूँ। उसकी सुंदरता देखकर श्रीमती जी की तो आँखें ही चुंधिया गई। लेकिन हमने प्यार से उसका धन्वाद करते हुए कहा कि बेटा फोटो तो हो गई। हालाँकि अंग्रेजी स्टाइल में देसी हसीनाओं को देखकर तो किसी की भी आँखों की पुतलियाँ फ़ैल सकती हैं।
यही है दिल्ली का ग्लेमर वर्ल्ड। आम आदमी के एकदम नज़दीक , लेकिन इतना दूर।
"यही है दिल्ली का ग्लेमर वर्ल्ड। आम आदमी के एकदम नज़दीक , लेकिन इतना दूर।"...... सहमत हूँ!
ReplyDeleteदिल्ली क्या, अब तो बाकि शहरों में भी पार्टीज में यही महौल देखने को मिलता है. मुझे तो लगता है वर्गीय फासला बहुत कम हुआ है.
ReplyDeleteवर्गीय फासला कम नहीं जी , बढ़ रहा है।
Deleteशादी-ब्याह या किसी भी उत्सव का जीता -जगता वर्णन किया है आपने ..बहुत पैसे वाले सौ-सौ किलो के लोग भी इन कार्यक्रमों में मिलने वाले भोजन पर भूखे भेड़ियों की तरह झपटते है ..
ReplyDeleteऔर जब दिल्ली का यह हाल है तो बाकि का क्या कहें ! गगनचुम्बी इमारतों के साथ झोपड़पट्टियां ... शायद यही झोपड़ पट्टियां इन गगनचुम्बी इमारतों को सजाये - संवारे रखतीं है
जी सही कहा।
Deleteअपन के लिए तो दिल्ली दूर है! और पहुँच से भी दूर है यह ग्लैमर की दुनियाँ। बस आभासी दुनियाँ में देख-देख जानकारी प्राप्त करते रहते हैं और आप सब को धन्यवाद देते रहते हैं। :)
ReplyDeleteपाण्डेय जी , आप कम से कम शांति से तो रहते हैं ।
Deleteआभार शास्त्री जी।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति।
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