top hindi blogs

Wednesday, March 5, 2014

सड़कों पर खेलती , कलाबाज़ी खाती जिंदगियां ----


जैसे ही गाड़ी चौराहे पर रुकी , वही मैले कुचैले बच्चे व्यस्त हो गए कलाबाज़ी दिखाने मे . तभी सड़क के दूसरी ओर एक गाड़ी आकर रुकी . ड्राईवर की सीट पर गाड़ी मे बैठे मालिक ने एक बच्चे को ईशारा किया और एक गोल सा पैकेट निकाला . लगभग पांच साल की उस बच्ची ने बड़ी हसरत भरी निगाहों से पैकेट को देखा और अपने नन्हे हाथों मे थाम लिया . फिर वहीं सड़क के बीचों बीच बैठ गई फुटपाथ के किनारे पर . हम उत्सुकतावश बड़े ध्यान से बच्ची की गतिविधियों को  देखने लगे . उसने भी जल्दी ही हमे उसे देखते हुए देख लिया . यह देखकर वह थोड़ी सी सहम गई . अब वह असमंजस मे थी कि पैकेट खोले या नहीं . लेकिन उसके साथ साथ अब तक हमे भी उत्सुकता होने लगी थी कि पैकेट मे क्या हो सकता है , हालांकि हमे कुछ कुछ आभास हो रहा था .  


कुछ झिझकते हुए उसने धीरे धीरे पैकेट खोला जैसे अक्सर दीवाली पर हम गिफ्ट के पैकेट खोलते हैं . जैसा कि अनुमान था , पैकेट मे करीने से पैक की गई चार रोटियाँ थी सब्ज़ी के साथ . उसने एक हाथ से सब्ज़ी मे से हरी मिर्च निकाली और मछली की तरह लटकाया और फेंक दिया . फिर उसने हमारी ओर देखा , हम अभी भी उसे एकटक देख रहे थे . वह फिर शरमाई . इस बीच देखने का लुका छिपी का यह खेल यूं ही चलता रहा . अन्तत: उसने हिम्मत कर रोटियों का हिसाब किया . अब उसके दोनो हाथों मे दो दो रोटियाँ थीं और दोनो पर सब्ज़ी रखी थी . वह उठी और ट्रैफिक के बीच हमारी गाड़ी के पीछे खड़ी गाड़ियों के बीच भीख मांगने की असफल कोशिश करते हुए अपने चार वर्षीय भाई के पास पहुंच गई . बच्चे की रोटियों से ज्यादा पैसों मे रुचि नज़र आ रही थी . 

ट्रैफिक सिग्नल की बत्ती हरी हुई और हम आगे बढ़ गए यह सोचते हुए कि क्या शाम के चार बजे बच्चों को भूख रही होगी !  

14 comments:

  1. कुछ घटनाएं बड़ी आम होती हैं....
    हमने भी कभी न कभी देखी होती हैं मगर उनका ज़िक्र उदास कर देता है...

    सादर
    अनु

    ReplyDelete
  2. मुझे लगता है यह बात हर वक्त पर लागू होती है चार बजे ही क्या आप सुबह-सुबह भी देंगे तब भी उनकी रुचि रोटी से ज्यादा पैसों में दिखेगी। आजकल वर्ग कोई भी हो पैसा ही भगवान है सभी के लिए। हर किसी को बस पैसा ही चाहिए।

    ReplyDelete
  3. आपकी इस प्रस्तुति को आज कि गूगल इंडोर मैप्स और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

    ReplyDelete
  4. पेट भरा हो तो पैसे की आवश्यकता अधिक महसूस होती है !

    ReplyDelete
  5. बहुत कुछ दिखता है इन ट्रैफिक लाइट पर ऐसा जो उदास कर जाता है.

    ReplyDelete
  6. Please Join This Page - www.facingverity.blogspot.in

    ReplyDelete
  7. बड़ा ही कड़वा सच . हम से कम ऐसे व्यक्ति भी हैं, जो रोटियां पैक कराकर इन्हें दे रहे हैं ... पता नहीं इनकी बत्तियां कब हरी होगी .. KAVYASUDHA ( काव्यसुधा )

    ReplyDelete
  8. Replies
    1. इस दृश्य मे ना तो बच्चे दुखी थे , ना देखकर हम ! दरअसल दुखी कोई भी नहीं था ! लेकिन देने वाले ने अपनी फालतू रोटियों का सदुपयोग करना चाहा ! यह बात और है कि उस समय बच्चों को शायद भूख नहीं रही होगी !

      Delete
  9. मनुष्‍य प्रयास करे तो वह ऐसी स्थिति से स्‍वयं ही बाहर निकल सकता है। लेकिन जब कुछ ना करते हुए केवल सरकार की ओर देखते हैं तब ऐसी परिस्थितियां कभी बदलती नहीं हैं।

    ReplyDelete
  10. दारुण दृश्य, परन्तु किसी को खाना देना ज्यादा सार्थक है. अनचाहे आपके घटना के पात्र स्त्री एवं पुरुष के स्वभाव को बच्ची एवं बच्चा के माध्यम से स्थापित करता है.

    ReplyDelete
  11. ऐसा लगता है , हमारे देश मे भीख मांगना एक व्यवसाय सा बन गया है ! ये लोग काम करना चाहते ही नहीं , बच्चों को भी सड़क पर छोड़ देते हैं ! कुछ ना कुछ तो पैसे इक्कट्ठे कर ही लेते हैं !

    ReplyDelete
  12. वाकई अाजकल सबको पैसे ही चाहि‍ए.....शायद उन्‍हें भूख न हो

    ReplyDelete
  13. पैसे का उपयोग वो जैसे मर्जी कर सकते हैं इसलिए उन्हें पैसे में ज्यादा रूचि रहती है ...
    हाँ रोटी अगर भूख होगी तो खा लेंगे नहीं तो साख लेंगे अगली भूख तक ...

    ReplyDelete