जैसे ही गाड़ी चौराहे पर रुकी , वही मैले कुचैले बच्चे व्यस्त हो गए कलाबाज़ी दिखाने मे . तभी सड़क के दूसरी ओर एक गाड़ी आकर रुकी . ड्राईवर की सीट पर गाड़ी मे बैठे मालिक ने एक बच्चे को ईशारा किया और एक गोल सा पैकेट निकाला . लगभग पांच साल की उस बच्ची ने बड़ी हसरत भरी निगाहों से पैकेट को देखा और अपने नन्हे हाथों मे थाम लिया . फिर वहीं सड़क के बीचों बीच बैठ गई फुटपाथ के किनारे पर . हम उत्सुकतावश बड़े ध्यान से बच्ची की गतिविधियों को देखने लगे . उसने भी जल्दी ही हमे उसे देखते हुए देख लिया . यह देखकर वह थोड़ी सी सहम गई . अब वह असमंजस मे थी कि पैकेट खोले या नहीं . लेकिन उसके साथ साथ अब तक हमे भी उत्सुकता होने लगी थी कि पैकेट मे क्या हो सकता है , हालांकि हमे कुछ कुछ आभास हो रहा था .
कुछ झिझकते हुए उसने धीरे धीरे पैकेट खोला जैसे अक्सर दीवाली पर हम गिफ्ट के पैकेट खोलते हैं . जैसा कि अनुमान था , पैकेट मे करीने से पैक की गई चार रोटियाँ थी सब्ज़ी के साथ . उसने एक हाथ से सब्ज़ी मे से हरी मिर्च निकाली और मछली की तरह लटकाया और फेंक दिया . फिर उसने हमारी ओर देखा , हम अभी भी उसे एकटक देख रहे थे . वह फिर शरमाई . इस बीच देखने का लुका छिपी का यह खेल यूं ही चलता रहा . अन्तत: उसने हिम्मत कर रोटियों का हिसाब किया . अब उसके दोनो हाथों मे दो दो रोटियाँ थीं और दोनो पर सब्ज़ी रखी थी . वह उठी और ट्रैफिक के बीच हमारी गाड़ी के पीछे खड़ी गाड़ियों के बीच भीख मांगने की असफल कोशिश करते हुए अपने चार वर्षीय भाई के पास पहुंच गई . बच्चे की रोटियों से ज्यादा पैसों मे रुचि नज़र आ रही थी .
ट्रैफिक सिग्नल की बत्ती हरी हुई और हम आगे बढ़ गए यह सोचते हुए कि क्या शाम के चार बजे बच्चों को भूख रही होगी !
कुछ घटनाएं बड़ी आम होती हैं....
ReplyDeleteहमने भी कभी न कभी देखी होती हैं मगर उनका ज़िक्र उदास कर देता है...
सादर
अनु
मुझे लगता है यह बात हर वक्त पर लागू होती है चार बजे ही क्या आप सुबह-सुबह भी देंगे तब भी उनकी रुचि रोटी से ज्यादा पैसों में दिखेगी। आजकल वर्ग कोई भी हो पैसा ही भगवान है सभी के लिए। हर किसी को बस पैसा ही चाहिए।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति को आज कि गूगल इंडोर मैप्स और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteपेट भरा हो तो पैसे की आवश्यकता अधिक महसूस होती है !
ReplyDeleteबहुत कुछ दिखता है इन ट्रैफिक लाइट पर ऐसा जो उदास कर जाता है.
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ReplyDeleteबड़ा ही कड़वा सच . हम से कम ऐसे व्यक्ति भी हैं, जो रोटियां पैक कराकर इन्हें दे रहे हैं ... पता नहीं इनकी बत्तियां कब हरी होगी .. KAVYASUDHA ( काव्यसुधा )
ReplyDeleteमन दुखी करते दृश्य
ReplyDeleteइस दृश्य मे ना तो बच्चे दुखी थे , ना देखकर हम ! दरअसल दुखी कोई भी नहीं था ! लेकिन देने वाले ने अपनी फालतू रोटियों का सदुपयोग करना चाहा ! यह बात और है कि उस समय बच्चों को शायद भूख नहीं रही होगी !
Deleteमनुष्य प्रयास करे तो वह ऐसी स्थिति से स्वयं ही बाहर निकल सकता है। लेकिन जब कुछ ना करते हुए केवल सरकार की ओर देखते हैं तब ऐसी परिस्थितियां कभी बदलती नहीं हैं।
ReplyDeleteदारुण दृश्य, परन्तु किसी को खाना देना ज्यादा सार्थक है. अनचाहे आपके घटना के पात्र स्त्री एवं पुरुष के स्वभाव को बच्ची एवं बच्चा के माध्यम से स्थापित करता है.
ReplyDeleteऐसा लगता है , हमारे देश मे भीख मांगना एक व्यवसाय सा बन गया है ! ये लोग काम करना चाहते ही नहीं , बच्चों को भी सड़क पर छोड़ देते हैं ! कुछ ना कुछ तो पैसे इक्कट्ठे कर ही लेते हैं !
ReplyDeleteवाकई अाजकल सबको पैसे ही चाहिए.....शायद उन्हें भूख न हो
ReplyDeleteपैसे का उपयोग वो जैसे मर्जी कर सकते हैं इसलिए उन्हें पैसे में ज्यादा रूचि रहती है ...
ReplyDeleteहाँ रोटी अगर भूख होगी तो खा लेंगे नहीं तो साख लेंगे अगली भूख तक ...