होली के कुछ दिन बाद शाम का समय था। अस्पताल से घर जाते हुए सड़क पर ट्रैफिक बहुत मिला। ऊपर से सड़क पर पुलिस के बैरिकेड, मानो स्पीड कम करने के लिए बस इन्ही की ज़रूरत थी। ऐसे ही एक बैरिकेड के आगे एक मनुष्य सा दिखने वाला जीव बैठा हिल डुल रहा था। मैला कुचैला , होली के रंगों में रंगा लेकिन बेहद गन्दा। सामने एक अद्धे जैसी बोतल रखी थी जिसमे गोल्डन रंग का कोई द्रव्य भरा था। बोतल आधी खाली थी। कहना मुश्किल था कि बोतल में शराब थी या पेशाब। दूसरी सम्भावना ज्यादा लग रही थी क्योंकि वह मानव जीव हवा में हाथ घुमाते हुए खुद से बातें किये जा रहा था। ज़ाहिर था, वह कोई मानसिक रूप से विक्षिप्त पुराना रोगी था।
ऐसे में एक विचार मन में आकर कुलबुलाने लगा कि इस बन्दे का क्या किया जाना चाहिए। यदि विभिन्न पहलुओं पर गौर करें तो कुछ बातें सामने आती हैं :
१) कानून की दृष्टि से :
कानूनन उसे उठाकर किसी अस्पताल में भर्ती किया जाना चाहिये जहाँ उसका उचित उपचार किया जा सके। तद्पश्चात उसे किसी अनाथालय या सेवा आश्रम में सहारा मिलना चाहिए।
लेकिन सवाल यह है कि ऐसा करेगा कौन। आजकल सब को भागमभाग रहती है। अपने काम ही नहीं संभाले जाते , फिर कोई किसी आवारा की ओर क्यों देखेगा। पुलिस को भी कहाँ फुर्सत है अपराधियों से जो दिल्ली की सड़कों पर एक ढूंढो तो सौ मिलते हैं।
२) चिकित्सा की दृष्टि से :
मरीज़ कितना भी गन्दा हो , किसी भी हालत में हो, भले ही शरीर में कीड़े पड़े हों , एक चिकित्सक के लिए वह एक रोगी ही है। उसकी पूरी चिकित्सीय देखभाल करना एक डॉक्टर का फ़र्ज़ है।
लेकिन ऐसे रोगी को डॉक्टर्स भी नहीं देखना चाहते। भर्ती कर भी लिया तो एक दो दिन में बेड खाली कराने का प्रयास रहता है। डॉक्टर्स भी क्या करें , सरकारी अस्पतालों में पहले ही एक बेड पर दो दो तीन तीन मरीज़ पड़े होते हैं। वे गंभीर रोगियों का इलाज़ करें या ऐसे रोगी पर ध्यान दें।
३) मानवता की दृष्टि से :
हर मनुष्य को जीने का अधिकार है। असहाय, बीमार और कष्ट भोगते हुए इन्सान के प्रति उदारता सभी मनुष्यों का फ़र्ज़ है और इंसानियत का तकाज़ा है।
लेकिन हमारे जैसे देश में जहाँ इन्सान थोक के भाव पैदा होते हैं , वहां भला एक ऐसे व्यक्ति की क्या कीमत होगी जो खुद किसी काम का नहीं।
कुछ इसी तरह के विचार मन में विचरने लगे। यानि यदि आप इंसानियत और कानून का पालन करते हुए उसे किसी अस्पताल में भर्ती करा भी दें तो क्या होगा। कुछ दिन और यथासंभव उपचार के बाद उसे भगा दिया
जायेगा या वह खुद ही भाग जायेगा। पुराने मानसिक रोगी को मानसिक रोगों के अस्पताल के अलावा और कहीं रखा भी नहीं जा सकता। शारीरिक रोगों का उपचार तो संभव है लेकिन मानसिक रूप से विक्षिप्त ऐसे रोगी को स्वस्थ करना अक्सर संभव नहीं होता।
इन हालातों में ऐसे मनुष्य का जिन्दा रहना किस के लिए उपयोगी है ? देश के लिए, या समाज के लिए ? परिवार के लिए, या स्वयं के लिए ? वैसे तो ऐसे रोगी का न कोई परिवार होता है , न समाज। ऐसे रोगी हकीकत की दुनिया से दूर एक अलग ही दुनिया में विचरते रहते हैं जिसका हकीकत की दुनिया से कोई वास्ता नहीं होता। फिर उसका जिन्दा रहने का क्या उद्देश्य है ?
वह न सिर्फ समाज पर बल्कि स्वयं पर भी एक बोझ है। ऐसी निरुद्देश्य जिंदगी का क्या फायदा ?
क्या ऐसे में कुछ अलग हटकर सोचा जा सकता है ? यही अहम सवाल है !
हमारा सहयोग, हर जीव का अधिकार होना चाहिए...
ReplyDelete:)
सहमत हूँ॰
Deleteडाक्टर साहब, दो तरीके से अपनी बात रखूंगा, पहली बात वह जो गंभीर मुद्दा है, और आपने उठाया है।
ReplyDelete१. ऐसे प्राणी न सिर्फ अपना मानव वजूद खो चुके होते है अपितु देश समाज के लिए भी ख़तरा है। अभी कल परसों की ही दो खबरे थी, एक वह की मध्य प्रदेश में एक अर्ध विक्षिप्त युवक ने रेल का इंजन चलकर 12 लोगों को मार डाला और दूसरा उधिसा में एक पागल ने ९ लोगो की कुल्हाड़ी से ह्त्या कर दी।
२.देश और समाज का क्या फर्ज बनता है वह बात आपने स्पष्ट कर दी
३. अप्रत्यक्ष तौर पर जो शायद आप कहना चाहते है वह यह कि ऐसे लोगो को कानूनी तौर पर मौत मुहैया करा दी जानी चाहिए। ठीक भी है किन्तु हम लोग (खासकर इस देश के लोग जहां इंसानी जान की ख़ास कीमत नहीं होती ) उसका किस पैमाने पर दुरुपयोग करेंगे, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
४. हम (अधिकांश ) हिन्दू धर्म के अनुयायी है और पौराणिक बातो और तथ्यों पर हमारा अटु-विश्वास है। हम यह मानते है की इंसान अपने इस जन्म और पूर्व जन्मो का फल भोगता है। यदि (मान लो ) यह बात सत्य है, तो जिस इंसान से कुदरत अपने कर्मों ( इस अथवा पूर्व जनम ) का हिसाब वसूल रही है उसमे दखलंदाजी करने वाले आप और हम कौन होते है ?
अब as a lighter note, डाक्टर साहब, पागलों को मृत्यु दान की व्यवस्था का समर्थन कर क्या आप इस देश को बिलकुल ही खाली करवाना चाहते हो क्या ? :) वैसे जब कभी किसी पागल को सड़क पर खुश होकर जोर-जोर से ट्रैफिक को हाथ हिलाते देखता हूँ तो सोचता हूँ, यह इंसान कितना सुखी है :)
वाह गोदियाल जी। सही विश्लेषण किया है। कानूनी तौर पर इस कार्यवाही के बारे में कहने की हिम्मत नहीं हो रही। लेकिन यह सच है कि आदर्शवाद और यथार्थवाद में फर्क होता है। पॉइंट ४ के बारे में यह कहूँगा कि जब कुदरत इन्सान के आगे रुकावट पैदा करती है तब हम उसे हटा देते हैं जैसे सड़क से पेड़।
Deleteवह इन्सान कितना सुखी है --यदि उसी से पूछा जाये तो शायद वो कहेगा -- सुखी क्या होता है। :)
आप जैसे कवि ह्रदय से यह अपेक्षा नहीं थी !मेरा विरोध दर्ज करें :)
Deleteजीव हत्या निंदनीय है ! स्वाभाव वश अगर वह किसी को मार भी दे तब भी बदले में हम उसकी जान ले लें इसकी प्रकृति भी आज्ञा नहीं देती ! शक्तिशाली मानव को क्षमा करना आना ही चाहिए !
शक्ति संपन्न मानव द्वारा एक कमजोर विक्षिप्त मानव की हत्या कायरता पूर्ण कार्य के साथ साथ अमानवीय भी मानी जायेगी !
गोदियाल साहब की बात पर भी गौर करें अगर पागलों की चिंता करने लगे तो देश खाली हो जाएगा !
Deleteसतीश जी , आपने कम शब्दों में बहुत ज्यादा सवाल उठा दिए। :)
Deleteबेशक कवि हृदय और एक डॉक्टर, दोनों ही रूप में हमारा कुछ फ़र्ज़ है। लेकिन फिर भी दोहराता हूँ --आदर्शवाद और यथार्थवाद में फर्क होता है। हकीकत की दुनिया में देखें तो यहाँ क्षमा का सवाल ही नहीं उठता। यह एक ऐसी परिस्थिति है जिसमे सभी लाचार महसूस कर सकते हैं ।
जीव हत्या एक अत्यंत संवेदनशील विषय है। लेकिन कुछ हालातों में इसे हत्या नहीं कहा जा सकता। जैसे युद्ध के समय , अपराधी को मृत्यु दंड देते समय , इसी तरह मर्सी किलिंग भी एक वैधानिक विकल्प होता है कुछ विशेष परिस्थितियों में। हालाँकि अभी तक इस पर कोई आम सहमति नहीं हो पाई है।
कभी कभी जिंदगी खुद मौत से बदतर होती है। ऐसी जिंदगी इसी वर्ग में आती है। लेकिन इस विषय पर हमने सिर्फ कुछ सवाल उठाये हैं , कोई समाधान नहीं दिया, जो इतना आसान है भी नहीं।
कवि और डॉक्टर में एक बुनियादी फर्क होता है -- कवि आदर्शवादी बातें करता है , डॉक्टर यथार्थवादी। :)
कभी कभी लगता है , काश देश खाली ही हो जाये। :)
सतीश जी की बात से ही सहमति बनती है। इंसानियत का पक्ष तो है ही यथार्थवादी होनी भी निर्मम हत्याओं का पक्ष नहीं हो सकता। मारने की बात एक बार शुरू हो गई तो बहानों की कमी नहीं होगी और कोई नहीं बचेगा। जिन देशों में यूथेनेसिया को कानूनी सम्मति है वहाँ डॉक्टरों द्वारा अस्पताल में खाली बिस्तर की ज़रूरत होने जैसे बहानों पर भी मरीजों को मारे जाने के किस्से सामने आए हैं। सिर्फ कानून-सम्मत हो जाना सही होने की पहचान नहीं है। कुछ दशक पहले तक कुछ सभ्य देशों में इंसान की खरीद-फरोख्त भी कानूनी थी।
Deleteआपकी और सतीश जी के विचारों का सम्मान करता हूँ। विचारों का स्वागत है।
Deleteवैसे निरुद्देश्य ज़िन्दगी का क्या फायदा...मगर बड़ा बेरहम होना पड़ता है यूँ कहने को...जबकी वास्तविकता ये है कि दिल में रहम भले हो,मगर कुछ कर सकें ऐसा कोई जज्बा है नहीं भीतर....
ReplyDeleteकडवी बात है मगर सच्ची है.
:-(
सादर
अनु
अनु जी , सच तो यह है कि ऐसे केस में कुछ किया भी नहीं जा सकता। शायद यह कुदरत का ही काम है जैसा कि गोदियाल जी ने कहा।
Deleteगजब का प्रश्न आदरणीय डॉ साहब ये विक्रम वेताल का जैसा पोस्ट हो गया .....किन्तु कठिन मानवीय संवेदना लिए .
ReplyDeleteसबकी मजबूरियाँ जुड़ी हैं दुसरे की मजबूरियों से.
ReplyDeleteहालाँकि यह काम होना चाहिए नगर पालिका जैसी किसी संस्था का जो इन्हें सही जगह पहुंचा कर इलाज आदि करा सके.
ऐसी सूरत मे हम कर भी क्या सकते है जब जानते है कि हमारी कोशिश तब तक कामयाब नहीं हो सकती जब तक पूरा बुनियादी ढाँचा सुधर नहीं जाता ... और यह सिस्टम है कि सुधरता नहीं दिखता ... :(
ReplyDeleteहर दृष्टि से कुछ न कुछ तो किया ही जाना चाहिए ....ऐसे दृश्य मन को व्यथित कर जाते हैं
ReplyDeleteसरकार को ही कदम उठाना चाहिए .... मानवीयता दिखा कर बेचारा मानवीयता दिखने वाला ही फंस जाएगा ... यहाँ ऐसा ही होता है इसी लिए कोई एक दूसरे की सहायता करने से बचता है ।
ReplyDeleteaapne bilkul sahi likhaa hain.
ReplyDeleteaajkal ki bhaag daud mein aise logo ki taraf kisi kaa dhyaan hi nahi jaataa hain.
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ReplyDeleteसमस्या का समाधान बहुत मुश्किल है!
ReplyDeleteSamasya jansankhya kee hai. kis kis kee madad karen. Par wo kahate hain na ki ek ko madad kee to usaki jindagi me thoda kuch sakaratmak hua.
ReplyDeleteमानवीय आधार बस कुछ तो समाधान निकालना ही चाहिए,,,
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन सुंदर आलेख !!!
RECENT POST: जुल्म
डाक्टर साहब, एक गंभीर विषय पर आपके विचार पढ़े और अन्दर तक हिल गया क्यों शायद तुरंत कोई उत्तर नहीं सूझा , हमारे एक रिश्तेदार की पत्नी तीन साल से बिस्तर से हैं और नली और नोज फीडिंग से मात्र ज़िंदा रहकर बिस्तर पर ही नित्य क्रिया की त्रासदी झेल रहीं है वो ही नहीं पूरा परिवार भी .न जाने ऐसे कितने कैंसर ग्रषित परिवार होंगे जो दबे पाँव मौत तो चाहते होंगे मगर संवेदनाओं बस या यूं कहू दिल ..के न मानने बस चाह नहीं सकते . मौत एक दहलानेवाली क्रिया है औए इसे इतनी आसानी से नहीं परिभाषित किया जा सकता या माँगा जा सकता . और विकल्प भी हो सकते है उस मानसिक रोगी को डील करने के. आम आदमी की जिम्मेदारी न भी हो तो वो शहर में भागने वाला आवारा पशु नहीं जिसे मार कर निजात पा ली जाये . सरकार की जिम्मेदारी है प्रत्येक व्यक्ति को संरक्षण देने की और हम इसे म्रत्यु देकर कम नहीं करना चाहते . शेष आप विद्वान् है और किसी भी सोच को सोचने को मुक्त.
ReplyDeleteकुश्वंश जी , सही कहा -- मौत को आसानी से माँगा नहीं जा सकता , न ही मांगने से आती है। यह कभी कभी अत्यंत कष्टदायक भी हो सकता है, जैसे कैंसर से ग्रस्त रोगी के मामले में जो अंतिम सांसे गिन रहा हो लेकिन साँस हो कि बंद होने का नाम ही न ले।
Deleteइस विषय पर अभी बस सवाल ही हैं पूछने के लिए , समाधान नहीं।
लेकिन हमारे जैसे देश में जहाँ इन्सान थोक के भाव पैदा होते हैं , वहां भला एक ऐसे व्यक्ति की क्या कीमत होगी जो खुद किसी काम का नहीं।
ReplyDeleteबस यही है हमारा राष्ट्रीय सत्य.
कटु सत्य।
Deleteटोरंटो में एक पूरा का पूरा अस्पताल ही वर्ल्ड वॉर के सैनिकों के लिए बनाया गया है जो अब ९० से १०० की उम्र के हैं जिनका सारा खर्च सरकार उठती है। ज़ाहिर है , वहां एक एक आदमी की कीमत है।
समाज की बहुत सी बड़ी समस्याओं को व्यक्तिगत स्तर पर नहीं निबटा जा सकता। वह व्यक्ति खुद इसके लिए सक्षम नहीं है और अन्य लोगों के लिए अपने संघर्ष ही इतने हैं की उसकी स्थिति में न पहुँच जाएँ इसमें ही ज़िंदगी निकल जाती है। असंभव को संभव करने वाले भी हैं लेक्न वे भी क्या-क्या करेंगे और उनकी पहुँच ही कितनी है? कुल मिलाकर सामाजिक समस्याओं के निदान के लिए समाज, प्रशासन, सरकार, अरबों का चन्दा खाने वाले गैर-सरकारी संगठन, धार्मिक संगठन, बड़ी संख्या में अनुयायी रखने वाले बाबा, पीर आदि की नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि वे सामने आयें और कुछ कर दिखाएँ। दिल्ली बस एक नगर है जिसमें नागरिक प्रशासन के अलावा एक पूरे राज्य का तामझाम,मंत्रिमंडल, मुख्यमंत्री, लाल बत्तियाँ, नेता, न्यायाधीश, धनाढ्य भरे पड़े हैं। यदि उस एक शहर में भी हम इन मानवीय समस्याओं पर काबू नहीं पा सकते तो यह साफ है कि हम नैतिकता के कितने नीचे स्तर पर जी रहे हैं।
ReplyDeleteआपने जो किया वही मैं भी करता -सोचते विचारते काम पर निकलता !
ReplyDeleteप्रश्न व्यापक भी है और गंभीर भी. ऐसे मानसिक रोगियों को नैतिकता के नाते भी सरकार का दायित्व बनता है लेकिन सरकार और भी जो कार्य करने चाहिये वह भी नहीं करती तो बारे में सोचना बेमानी ही है. फिर सामाजिक संस्थाओं के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं है.
ReplyDeleteमझे लगता है अलग हट के सोचने के बजाए जो जिसका धर्म है अगर वो उसे करता चले तो इस समस्या का समाधान अपने आप ही निकलने लगेगा ... ओर समाज भी बेहतर होता जाएगा ...
ReplyDeleteमानवीयता और इंसानियत के नाते प्राथमिकता के आधार पर जो भी बन सके करना चाहिए ... बहुत ही विचारणीय बिंदु है ...आभार
ReplyDeleteमानसिक रोगियों की संख्या देश और दुनिया में बढ़ती जा रही है, इसके लिए सरकारों को चिंतन की आवश्यकता है। ऐसे रोगियों के लिए चिकित्सालय में सम्पूर्ण सुविधाएं होनी चाहिएं और जहाँ भी ऐसे रोगी हों, उन्हें यहां प्रवेश मिलना चाहिए। ऐसे बहुत से रोगी, उपेक्षा के कारण ही इस रूप तक पहुंचते हैं। वैज्ञानिकों को भी इन पर रिसर्च करनी चाहिए। प्रत्येक मानसिक रोगी हमारा ही विकृत रूप है इसलिए इस विकृति को दूर करने के लिए सम्पूर्ण समाज को मिलकर कदम उठाने चाहिए।
ReplyDeleteव्यापक दृष्टि से देखी गई समस्या का समाधान उपयुक्त ही निकलता है.
ReplyDeleteअसहाय अवस्था में कुछ तो सहायता कर देना चाहिये, जितना और जैसा उचित लगे।
ReplyDeleteहाँ अलग हटके सोचा जा सकता है .पहले यह समझना होगा वह विक्षिप्त नहीं है .जैव रसायनों का आधिक्य ,दिमाग में न्यूरोट्रांसमीटर्स की लोडिंग ,बायोकेमिकल इम्बेलेंस उससे यह सब करवा रहा है .एंटीन्यूरोलेप्तिक ,एंटीसाइकोटिक दवाओं से देर सवेर कुछ न कुछ दिमागी संतुलन इन जैव रसायनों में पैदा हो जाता है .
ReplyDeleteस्ट्रीट डॉग की भी इन दिनों बड़े बड़े लोग पालना कर रहें हैं .सरकार और नवधनाड्य लोगों के अलावा आम आदमी को भी इस कोष में दान देना चाहिए .
बचपन से तकरीबन हर शहर में यहाँ मुंबई के कोलाबा मार्किट में भी मैंने एकाधिक ऐसे विपिन्न लोगों को उत्तेजित अवस्था में देखा है बाला जी (राजस्थान ,महेन्द्र पुर चौक )में भी .
एक गंभीर विषय पर आपके विचार पढ़े
ReplyDeleteशब्दों की मुस्कुराहट पर …..मैं अकेला चलता हूँ
kya mai aapke is antarmanthan ko facebook par share kar sakta hun
ReplyDeleteavshy.
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