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Thursday, October 18, 2012

ओह माई गौड -- ये है गीता का ज्ञान !


नवरात्रे शुरू हो चुके हैं . वातावरण में धार्मिक पर्वों और शादियों की मिली जुली सुगंध एक साथ फ़ैल रही है। अब दीवाली तक मौसम यूँ ही खुशगवार रहेगा। श्राद्ध ख़त्म होते ही नवरात्रे शुरू हो गए , फिर दशहरा , उसके बाद दिवाली तक 20 दिनों की गहमागहमी। वर्ष के ये दिन खुशियों से तो भरे होते हैं लेकिन भाग दौड़ भी खूब रहती है . सडकों पर अभी से ट्रैफिक बढ़ने लगा है . लेकिन इस मौसम में हमारी धार्मिक आस्थाएं और मान्यताएं भी पूरे जोरों पर दिखाई देती हैं . पित्रों को भोग लगाने से लेकर साल दर साल दसमुखी रावण को  जलाने का उपक्रम और फिर दीवाली के बाद गंगा स्नान कर सारे पाप धोने के साथ सर्दियाँ शुरू हो जाती हैं।

शिखा वार्ष्णे जी की पोस्ट पढ़कर अहसास हुआ कि इस समय तीन बहुत अच्छी फ़िल्में चल रही हैं - बर्फी तो हम देख चुके थे लेकिन ओह माई गौड और इंग्लिश विन्ग्लिश देखनी बाकि थी . श्रीमती जी की भी सिफारिश और फरमाईश थी ओ एम् जी देखने की . हालाँकि आजकल हॉल में फ़िल्में देखने में हमें कोई विशेष आनंद नहीं आता लेकिन कभी कभार मेडम को घुमाने के लिहाज़ से मॉल में फिल्म देखने चले जाते हैं . इसी बहाने गुजरे ज़माने में मॉल कल्चर न होने का मलाल भी कम हो जाता है।

हालाँकि परेश रावल और अक्षय कुमार की जोड़ी का हास्य हमेशा ग़ज़ब का होता है . लेकिन इस फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता है, इसका विषय। समाज में फैले अंध विश्वास , धार्मिक मान्यताओं और गलत धारणाओं  पर कटाक्ष करते हुए एक साफ सुथरी हास्य फिल्म बनाने के लिए निर्माता और निर्देशक की दिल खोलकर तारीफ़ करनी पड़ेगी .

फिल्म के नायक वास्तव में परेश रावल ही हैं . भगवान की मूर्तियों के व्यापारी परेश रावल स्वयं धार्मिक ढकोसलों में विश्वास नहीं रखते , लेकिन दूसरों के अंध विश्वास का पूरा फायदा उठाते हुए साधारण मूर्तियों को
महंगे दाम पर बेचकर बढ़िया कमाई करते हैं . किन्तु एक भूकंप में उनकी दुकान ढह जाती है और सब कुछ मटियामेट हो जाता है . क़र्ज़ में डूबे परेश रावल जब बीमा कंपनी जाते हैं तो उन्हें यह कह कर भगा दिया जाता है कि यह एक्ट ऑफ़ गौड है जो बीमा की शर्तों अनुसार कवर नहीं होता . पूरी तरह से लुट चुके परेश किस तरह  नयायालय में भगवान पर मुकदमा कर न सिर्फ केस जीतते हैं बल्कि दूसरों को भी जिताते हैं . यह पूरा प्रकरण बहुत हास्यपूर्ण और एक नए अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है .

फिल्म की सबसे अच्छी बात यह लगी कि इसमें बिल्कुल एक ऐसी सोच को प्रदर्शित किया गया है जिसे कहने सुनने के लिए कोई भी तैयार नहीं होता . आस्तिक और नास्तिक की परिभाषा, लोगों का भगवान के नाम पर अँधा विश्वास , ढकोसले, धार्मिक अफवाहें, जनता का सामूहिक पागलपन और भगवान के नाम का सहारा लेकर भोली भाली जनता को लूटने वाले धर्म के ठेकेदार और तथाकथित साधू महात्माओं का पर्दाफाश बहुत प्रभावी रूप से किया है .

फिल्म में मुख्य रूप से हिन्दुओं के धार्मिक रीति रिवाज़ों पर करारा प्रहार किया गया है , हालाँकि इस्लाम और ईसाई विचारधारा पर भी ध्यान दिलाया गया है . फिल्म में सिक्खों पर कोई टिप्पणी नहीं है। हिन्दुओं में मूर्ति  पूजा , प्रसाद चढाने , वैष्णो देवी और अमरनाथ यात्रा , साईं बाबा को सोने के आभूषण पहनाने , शिव लिंग पर दूध चढाने जाने जैसे अनेक मुद्दों पर कटाक्ष करते हुए यह समझाने की कोशिश की गई है कि भगवान मंदिर, मस्जिद या चर्च में नहीं पाए जाते बल्कि कण कम में और जन जन में समाये हैं . जो धन राशी और सामग्री हम इस तरह व्यर्थ करते हैं , वह किसी गरीब के काम आये तो ज्यादा सार्थक होगा।

फिल्म में संसद पर भी एक कटाक्ष है . धर्म गुरु और माफिया पर गहरी चोट की गई है . इस फिल्म को देखकर ओशो रजनीश की याद आती है जिनके क्रन्तिकारी विचार कहीं न कहीं हमें भी बहुत पसंद आए थे। विशेषकर धर्म के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने वाले, दिखावा करने वाले और अंध विश्वासों से ग्रस्त लोगों को सही दिशा दिखाने का प्रयास अत्यंत सराहनीय है।

फिल्म की सबसे अच्छी बात यह लगी कि फिल्म के अंत में गीता के ज्ञान पर विशेष जोर दिया गया है . गीता के ज्ञान अनुसार जीवन जीने का मार्ग बहुत हल्के फुल्के लेकिन प्रभावशाली ढंग से दिखाया गया है . फिल्म को देखकर लगता है जैसे इसके निर्माता और निर्देशक आर्य समाजी होंगे .

फिल्म देखकर हम तो श्रीमती जी से यह कहने पर बाध्य हो गए कि ऐसा लगा जैसे यह फिल्म स्वयं हमने बनाई हो . विचारों की समानता इससे ज्यादा नहीं हो सकती . 





26 comments:

  1. इंग्लिश विन्ग्लिश भी देख डालिए. वो भी व्यावहारिक फिल्म है बहुत.

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    1. साथ में श्रीमती जी को ले जाना मत भूलिएगा। देख ही आइये..तीनो में सबसे अच्छी फिल्म यही है।

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  2. JCOctober 18, 2012 2:34 PM
    हमारे ज्ञानी- ध्यानी पूर्वज पहले ही यूँ ही "जगत मिथ्या ", और मानव जीवन को " झूटों का बाज़ार " ऐसे ही नहीं कह गए...;)
    हिन्दू मान्यतानुसार हर व्यक्ति के सामने प्रकृति खुली पुस्तक समान रखी हुई है - पढने और मनन करने के लिए...
    गीता में भी धरा पर मानव जीवन का उद्देश्य साफ़ साफ़ लिखा है निराकार परमात्मा और उस के साकार रूपों को जानना... और यह भी कहा गया है कि हर गलती का मूल अज्ञान है...
    और, सभी जानते हैं कि सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्ति के लिए एक जीवन काफी नहीं है...
    और, क्यूंकि सम्पूर्ण सृष्टि " कृष्ण " के भीतर ही दर्शाई गयी है, इस लिए अनुमान लगाया जा सकता है कि " परम ज्ञानी", "परमात्मा " को पाने के लिए जो भले ही " माया " से आत्मा रूप में सबके भीतर दिखाई पड़ते माने गए हैं, "कृष्ण " पर आत्म-समर्पण आवश्यक क्यूँ कहा गया है...

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  3. aapne film ki tarif ki hum apke sameeksha ki tarif karte hain.....(:(:



    pranam.

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  4. अच्छी फ़िल्में देखने से बेहतर रिजुविनेटिंग कुछ नहीं हो सकता.....
    इसे समीक्षा ही कहेंगे न???
    :-P
    बढ़िया समीक्षा...

    सादर
    अनु

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    1. जी इसे आंशिक समीक्षा कह सकते हैं . बात सिर्फ विषय की ही की है.
      लेकिन ये ABCD की भाषा हमारे पल्ले नहीं पड़ती जी . :)

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    2. ये जीभ बाहर निकाले एक पागल है :-)मोबाइल पर ये केरेक्टर डाल के देखिये...

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  5. omg बहुत अच्छी समीक्षा

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  6. आपको अच्छी लगी तो होगी भी बढ़िया ! बहुत दिनों से देखना नहीं हुआ ।

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  7. ओह ये तीनो फ़िल्में मेरी भी सूची में हैं मगर देख नहीं पा रहा ०चलिये कुछ कसर तो पूरी हो ही गयी!
    t

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  8. शानदार समीक्षा के साथ शानदार फिल्म का चुनाव .

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  9. यह नाटक देख चुके हैं..

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  10. बढ़िया समीक्षा लिखी है आपने ....

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  11. ओह माई गॉड ! हम मान लेते हैं की आपने ही बनाई :)
    देखनी है हमें भी !

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  12. हिंदू हो या ईसाई या मुसलमान, धर्म के नाम पे जो असामाजिक और बेवकूफाना हरकतें रोज होती रहती है उससे छुटकारा तभी मिलेगा जब शिक्षा की ज्योति समाज में फैलेगी ...

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  13. ओह माई गॉड यह है गीता का ज्ञान

    पर आपकी समीक्षा वजनी रही .लगता है फिल्मकार ने मेरी तेरी उसकी सभी कबीर वादियों की बात का कह दी है .हमें भी तदानुभूति हो रही है लग रहा है

    समीक्षा हमने लिखी है .


    कुतर्क और पौँगा पंडितों ढोंगी भकुओं साधुओं ,ओझाओं के ,ज्योतिष की माल पुए उड़ाने वालों के इस दौर में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जो समाज के

    अवपतन की वजह बन रहा है कर्म काण्ड को ,भाग्य वाद को बढ़ावा दे रहा है .जबकि हकीकत यह है :

    Our life course depends on the choices we make -not on the stars .

    फिर भी चैनल चैनल ज्योतिष के माल पुए उड़ाने वाले चांदी कूट रहें हैं -

    Most Astrologers downplay the idea of predestination ."We control our own destiny ,"claims one ,bur he adds :"on the other hand

    ,the time of our birth has an influence on the structure of our personality ."Many people believe similarly .They feel that since the

    stars and planets exert a physical influence on our earth ,why should they not also have a metaphysical effect ?

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    1. As per ancient Hindu Belief (reading between lines), EARTH, or/ rather its centre, is the centre of our ever expanding universe where Nadbindu the infinite source of energy resides... And man is its model in its structural formation utilising different permutations and combinations of essences of nine members of our Solar system to reflect the apparent illusory variety inherent in NATURE related with TIME in Yugas in an unending cycle... ...

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  14. हमारी मौलिकता नष्ट होने का मूल कारण हमारा अधार्मिक होना है। धार्मिकता को धर्मभीरूता से जोड़ा गया,मानो धर्म डरने की कोई चीज़ है। यही भीरूता,यही डर धर्म के नाम पर चल रही दुक़ानों का आधार है। इस डर से आगे ही वह जीत है जिसके बाद जीतने को कुछ रह नहीं जाता।

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    1. हमारी मौलिकता नष्ट होने का कारण महाकाल है जिसके हम अस्थायी प्रतिरूप तो हैं किन्तु बहिर्मुखी होने के कारण अज्ञानी के अज्ञानी रह जाते हैं, और मानव जीवन का उद्देश्य केवल माया जगत की फिल्म आदि द्वारा मनोरंजन करना ही मानते हैं!!! यह काल का ही प्रभाव है क्यूंकि हमारे कुछ भाग्यशाली पूर्वज अंतर्मुखी हो परम सत्य अर्थात अजन्मे और अनंत योगेश्वर शिव/ विष्णु को पा गए और "शिवोहम" कह गए, और साथ ही इसे मानव जीवन का उद्देश्य भी बता गए!!!

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  15. अच्‍छा याद दि‍लाया आपने, ओह माई गौड का मैं भी कुछ जुगाड़ करता हूँ

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  16. ओ माय गॉड मैंने भी देखी है थीम बहुत जबरदस्त है मेरे विषय की भी है क्यूंकि मैं भगवान् या एक दैविक शक्ति को तो मानती हूँ पर इन पाखंडों या ढकोसलों में विशवास नहीं करती अच्छे कर्म को ही पूजा मानती हूँ किसी भगवान् की मूर्ती या कलेंडर को देखती हूँ तो भगवान् को नहीं बनाने वाले की कला की सराहना करती हूँ यह पिक्चर तब तक सही दिशा में चल रही थी जब तक कृष्ण का अवतार नहीं हुआ था उसके बाद अचानक लगा जैसे निर्माता भी धार्मिक कट्टरपंथियों द्वारा मूवी पर बैन न लग जाए इससे डर गया और कहानी फिर अंधविश्वास की और मुड़ गई जैसे हास्पिटल में पेरालाइसिस अटैक के बाद कृष्ण द्वारा पेशेंट को एक दम ठीक कर देना और गीता ग्रन्थ की और लोगों का ध्यान आकर्षित करना आदि पर फिर भी कुल मिलाकर फिल्म देखने लायक है इससे अधिक पसंद मुझे इंग्लिश विंग्लिश आई बहुत बढ़िया लगी|

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  17. यही तो खास बात है कि हम घूमफिर कर अपने धर्म के आंडबरों पर प्रहार कर लेते हैं। हंसते रोते इस पर बात करते रहते हैं।
    पर हां आनंद आए न आए..मेरी बनाई फिल्म जब भी बने थियेटर में जाकर जरुर देखिएगा।

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    1. इतनी बोल्ड फिल्म पहली बार देखी है .
      आप भी बनाइये , अवश्य देखेंगे .

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  18. जानदार प्रस्तुति

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