सरकारी नौकरी का एक फायदा तो है कि आप जब चाहो , छुट्टियाँ ले सकते हो। हमने भी गर्मियों में बाहर जाने के ख्याल से १५ दिन का अर्जित अवकाश ले लिया । सोचा था कि इस बार कुछ दिन के लिए शिमला के पास चैल ही हो आते हैं । वहां अपने एक दोस्त का होटल है जिसमे डिस्काउंट भी मिल जाता है ।
लेकिन जो सोचा , वही हो , यह ज़रूरी नहीं । हुआ भी कुछ ऐसा ही । अचानक पिता जी की तबियत खराब हुई और उन्हें एक बड़े प्राइवेट अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा । अब एक सप्ताह के लिए हम सब व्यस्त हो गए । हालाँकि अब ठीक हैं और छुट्टी कर घर आ चुके हैं ।
लेकिन इस एक सप्ताह में कुछ अलग ही अनुभव हुए , जो आपके साथ बांटता हूँ ।
बीमारी में सबसे ज्यादा मुश्किल होती है , रोगी के रिश्तेदारों की । विशेष तौर पर उनको जिन्हें अस्पताल में रहना पड़े , दिन रात । अब रोगी को तो भर्ती कर दिया जाता है , आइ सी यू या सी सी यू में , जहाँ दिन रात नर्सें उनकी देखभाल करती रहती हैं ।
और रिश्तेदार बैठे रहते हैं बाहर बेंच पर , दिन रात । यह सिलसिला तब तक चलता रहता है जब तक मरीज़ को जेनरल वार्ड में नहीं भेज दिया जाता । अब यदि आपको प्राइवेट रूम मिला है तो आप के लिए भी सोने का इंतजाम हो जायेगा । वर्ना वहां भी ज़मीन पर लेट लगाओ।
लेकिन मुझे लगता है कि एक अटेंडेंट के रूप में एक डॉक्टर की हालत सबसे दयनीय होती है । अब जो नॉन मेडिकल रिश्तेदार होते हैं , वे तो डॉक्टर से बात करके संतुष्ट हो जाते हैं । डॉक्टर ने कहा है कि सब टेस्ट भेज दिए हैं , शाम तक रिपोर्ट आ जाएगी । चिंता की कोई बात नहीं है ---वगैरा वगैरा ।
लेकिन एक डॉक्टर को तो पता होता है कि किस टेस्ट का क्या मतलब है । यदि पोजिटिव आया तो क्या परिणाम हो सकता है । वो बेचारा तो चिंता में घुला रहता है जब तक सब कुछ ठीक ठाक नहीं हो जाता ।
सच बड़ा मुश्किल होता है एक डॉक्टर के लिए मरीज़ का रिश्तेदार होना ।
खैर हम भी पहले दिन सी सी यू के बाहर बेंच पर बैठे रहे । खाली , कोई काम नहीं । लेकिन रहना भी ज़रूरी था ।
बैठे बैठे आते जाते लोगों को देखते रहे । और कर भी क्या सकते थे । लोगों की बातें भी सुनते रहे । अलग अलग किस्म के लोग । सबकी अलग अलग समस्याएँ । सबकी अलग अलग प्रतिक्रियाएं ।
सुनकर बड़ा अजीब लग रहा था । मरीजों के रिश्तेदारों के बीच बैठकर और उनकी बातें सुनकर ऐसा महसूस हो रहा था जैसे ऊपर वाला अपना धाम छोड़कर पृथ्वी पर उतर आया हो , जनता से ये जानने के लिए कि लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं । या फिर ऐसा जैसे कोई राजा भेष बदलकर प्रजा के बीच घूम रहा हो उनकी बातें सुनते हुए ।
इस अनुभव को शब्दों में बयाँ करना बड़ा कठिन है । एक आम आदमी के लिए कितना कठिन हो सकता है , जीवन मृत्यु के बारे में निर्णय लेना । कभी कभी ऐसा लगता था कि मैं किसी को कुछ सलाह दे डालूं । लेकिन फिर यही लगता कि बिन मांगे सलाह देना भी कोई उचित बात नहीं । वैसे भी ये फैसले आप खुद ही लें तो बेहतर है ।
खैर , कहते है कि खाली दिमाग शैतान का घर । लेकिन एक कवि का दिमाग भला कहाँ खाली रह सकता है । तो भई खाली बैठे बैठे हमने भी सोचा कि क्यों न इन्ही हालातों पर एक कविता लिख दी जाये । वो भी हास्य व्यंग कविता । आखिर कुछ नज़ारे तो वास्तव में ही बड़े हास्यस्पद लग रहे थे ।
आप भी सोच रहे होंगे कि भला अस्पताल में हास्यस्पद हालात कैसे बन सकते हैं । अब यह तो हमारी कविता पढ़कर ही पता चलेगा ।
तो इंतज़ार कीजिये अगली पोस्ट का ।
Sunday, June 27, 2010
बड़ा मुश्किल होता है एक डॉक्टर के लिए मरीज़ का रिश्तेदार होना---
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डॉक्टर साहब! अच्छी लगी आपकी उक्ति कि राजा भेस बदलकर प्रजा के बीच था… कहते हैं चुभती हुई कील की टीस पहनने वाले को महसूस होती है... लेकिन ऐसे सीरियस माहौल में हास्य... इंतेज़ार रहेगा...
ReplyDeleteअस्पताल में एक मर्रेज़ के रिश्तेदार होने की हैसियत से आपके अनुभव जानने की उत्सुकता है..इंतज़ार है कविता का..
ReplyDeleteपिताजी के स्वास्थ्य के लिए शुभकामनायें
पिताजी के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना ।
ReplyDeleteमानवीय मनोविज्ञान की बात बता दी आपने
ReplyDeleteपिताजी के स्वास्थ्य के लिए शुभकामनायें
बिल्कुल सही कहा…………………कल के चर्चा मंच पर आपकी पोस्ट होगी।
ReplyDeleteअनुभव जो आपने अर्जित किये हैं उसका अनुभव तो आपकी कविता आने के बाद ही होगा.
ReplyDeleteइंतजार है
पिताजी के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिये हमारी शुभकामनाये!!!
ReplyDeleteएक बात पूछना चाहता हुं कि जब अस्पताल मै हम ने मरीज को दाखिल करवा दिया तो फ़िर वहां सारा दिन ओर रात किसी का बेठना??
हमारे यहां तो सुबह शाम मिल आते है, एक दो घंटे बेठे फ़िर सभी वापिस घर आ जाते है, वहां बेठने से ड्रा ओर नर्से भी तंग होती है, ओर लोग गंदगी भी डालते है,मुझे इस बारे कुछ पता नही इस कारण पूछ रहा हुं, कि यह जरुरी है, या प्यार मै करते है, या कोई दुसरा बडा कारण है
निसंदेह यह आपके लिए अलग अनुभव रहा होगा...
ReplyDeleteहमने भी काफी उत्सुकता से पढ़ा..यूँ लगा कि हम मरीज के रिश्तेदार हैं और एक डा० भी हमारा साथी है..हमारी तरह रिपोर्ट के इन्तजार में..चिंतित. कविता का इन्तजार रहेगा.
विशेषकर अपनी पत्नी की बिमारी के दौरान २३ वर्ष से भी अधिक डॉक्टरों और कुछेक सरकारी और निजी अस्पतालों के चक्कर काटने के कारण जो अनुभव प्राप्त हुए वो सुखद कदाचित नहीं कहे जा सकते,,, हाँ इस बहाने आप जैसे कई अच्छे चिकित्सकों / सज्जन पुरुषों से मिलने का सौभाग्य अवश्य प्राप्त हुआ...
ReplyDeleteएक ही मर्ज के मरीज़ जब मिलते हैं तो दुःख थोडा कम हो जाता है...
अपने सामान्य से तनिक अधिक रक्तचाप पाए जाने के कारण एक दिन मैं एक डॉक्टर के कमरे में बैठा था जब डॉक्टर थोड़ी देर के लिए कुछ काम से कहीं और गए. तभी एक उतरा हुवा चेहरा लिए सरदारजी उनको ढूंढते वहां पहुंचे और मुझसे पूछा मुझे क्या तकलीफ थी... मैंने बताया रक्त-चाप बढ़ा बतला रहे हैं... यह सुन उनके चेहरे पर ख़ुशी झलक उठी और उन्होंने हाथ बढा कहा कि वो मुझसे मिलके खुश हुए! उनका भी रक्त-चाप बढा हुआ था!
इस प्रकार के कुछ अनुभव और बाँटिये डॉ साहब , इंतज़ार रहेगा !!
ReplyDeleteभाटिया जी , आपने सही सवाल उठाया है । मैं खुद भी इस बात पर मनन कर रहा था ।
ReplyDeleteमुझे इसके दो कारण नज़र आते हैं ।
एक --हमारी पारिवारिक व्यवस्था ।
दो ---सुविधाओं की उपलब्धता ।
हमारे देश में परिवार के लोग एक इकाई की तरह रहते हैं । सुख दुःख में सब एक साथ हो जाते हैं ।
फिर लोग भी इतने ज्यादा होते हैं कि कम से कम इंसानों की तो कमी नहीं रहती । हालाँकि कभी कभी दिखावा भी हो जाता है ।
लेकिन इससे भी ज्यादा असर है सुविधाओं का न होना । यहाँ अभी भी डॉक्टर पेशेंट और नर्स पेशेंट रेशो ज़रुरत से काफी कम है । सरकारी अस्पतालों में तो एक नर्स ३०-४० पेसेंट्स तक को अटेंड करती है । केवल बड़े प्राइवेट अस्पतालों में , और सी सी यू या आई सी यू में ही एक बेड के लिए एक नर्स होती है , जो सारे काम करती है ।
जनरल वार्ड में सारा काम अटेंडेंट को ही करना पड़ता है ।
वैसे कई लोगों के लिए अस्पताल , घर से बाहर निकलने का एक बढ़िया रास्ता होता है, विशेषकर गृहणियों के लिए ।
जे सी जी , सही फ़रमाया आपने ।
ReplyDeleteएक ज़माना था जब हार्ट डिसीज सिर्फ धनाढ्य लोगों को ही होती थी । लेकिन अब फाइव स्टार अस्पताल में भी सब तरह के लोग नज़र आते हैं । क्योंकि :
एक --अब बी पी , डायबिटीज और हृदयरोग जैसी बीमारियाँ गरीबों और युवाओं को भी होने लगी हैं ।
दो ---अब लोगों के पास पैसा भी आ गया है । इसलिए एक किसान भी एक बड़े प्राइवेट अस्पताल में इलाज करा सकता है ।
यही सब नज़ारे अगली पोस्ट में पढना मत भूलियेगा ।
बहुत सच्ची बात है। ज्ञान कभी-कभी कष्ट भी देता है।
ReplyDeleteअरे यह तो हमने कभी सोचा ही नही कि यह भी एक दुविधा हो सकती है
ReplyDeleteहाँ जी! यह तो सचमुच में मुस्किल काम है।
ReplyDeleteपिताजी शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ करें,
यही कामना है हमारी।
यह तो सही है...सारी जानकारी होने पर , डॉक्टर की उद्विग्नता ज्यादा बढ़ जाती है....और मरीजों के रिश्तेदारों के बीच बैठ उनकी बातें सुनना जरूर एक अलग अनुभव रहा होगा...आपकी कविता का इंतज़ार..
ReplyDeleteपिताजी के शीघ्र स्वास्थ्यलाभ की शुभकामनाएं
पिताजी के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिये हमारी शुभकामनाये!
ReplyDelete--
आपका आलेख बहुत ही सारगर्भित है!
पिता जी के शीघ्र स्वास्थय लाभ के लिए इश्वर से प्रार्थना करती हूँ
ReplyDeleteहां बहुत कष्ट होता है मगर हर फर्ज़ अदा करना पडता है। आप एक दिन मरीजों के रिश्तेदारों के पास बैठे मै तो जान बूझ कर खाली समय मरीजों के रिश्ते दारों मे बैठती थी मेरी कहानियां उस का नतीजा हैं। नही तो लेखन की मेरी विसात ही कहाँ थी। अच्छा लगा आपका अनुभव भी।
ReplyDeleteपिताजी के शीघ्र स्वास्थ्यलाभ की शुभकामनाएं
sachhe ehsas paish kiye aapne aisa hi hota he hospitals me...agli poem ka intzar rahega.
ReplyDeleteसबसे पहले दराल सीनियर सर के अति शीघ्र स्वस्थ होने की कामना...
ReplyDeleteआपका ये कहना सही है, पश्चिम की तुलना में मरीज़ों का अनुपात देखा जाए तो भारत में डॉक्टर-नर्स बहुत कम हैं...इसलिए तीमारदारों को भी अस्पताल में मरीज़ का ध्यान रखना पड़ता है...आदर्श स्थिति तो यही है कि अगर मरीज़ अस्पताल में हैं तो डॉक्टर-नर्स ही उसकी हर वक्त देखभाल करें...मरीज़ के रिश्तेदार बस मिलने के टाइम में मरीज़ से मिल सके...हमारे देश में खास तौर पर छोटे शहरों में रिवाज है कि कोई जानने वाला अस्पताल में या घर में हैं तो मिलने वालों के रेले के रेले हाल पूछने आते रहते हैं...ऐसे में घरवाले मरीज़ की सेहत को लेकर फ़िक्रमंद होते हीं हैं, उनका ध्यान इन मिलने वालों के लिए चाय-पानी पूछने में भी बंट जाता है...मरीज़ को मिलने वालों की बड़ी तादाद से इन्फेक्शन का डर जो रहता है, सो अलग... मुझे याद है कि मैं बहुत छोटा था, मेरे पापा का रेटिना डिचैटमेंट का ऑपरेशन हुआ था...हमारे कुछ नज़दीकी रिश्तेदार पिकनिक की तरह अस्पताल के बाहर बरामदे में चटाई डालकर बैठे रहते थे...और मम्मी पापा के लिए दूध, दलिया वगैरहा के साथ इन रिश्तेदारों के लिए भी खाना वगैरहा बनवा कर ले जाती थीं...अब ऐसे में आप मरीज़ या उसके घर वालों की भलाई कर रहे हैं या अत्याचार, आप खुद ही सोच सकते हैं...
जय हिंद...
देश में अभी स्थिती सही में ऐसी नहीं हे कि अटेंडेंट न हो। बड़े प्राइवेट अस्पताल को छोड़ दिया जाए तो सरकारी अस्पताल में तो इतने विभाग इतने अलग अलग जगह पर होते हैं कि अटेडेंट की हालत खराब हो जाती है। उसपर हमारे सरकारी कर्मचारियों के काम से जी चुराने की आदत। रात में तो कई अस्पतालों में वार्ड में सीनियर डॉक्टर की कमी भी होती है।
ReplyDeleteपिता के शीघ्र स्वास्थय लाभ की शुभकामना स्वीकार करें ...
ReplyDeleteऐसी परिस्थितियां मुश्किल तो होती हैं मगर बाकी मरीजों के मनोस्थिति से परिचित भी होते हैं ...
कविता का इन्तजार रहेगा ...!
खुशदीप , अपने बिल्कुल सही लिखा है । हमारे यहाँ यह भी एक रिवाज़ ही है , मरीज़ को देखने जाना । इससे मरीज़ और उसके घरवालों को कितनी दिक्कत होती है , यह कोई समझने की कोशिश नहीं करता ।
ReplyDeleteसारी सुविधाएँ न होने से अटेंड तो करना ही पड़ता है ।
Indeed it is tough being an attendant for a doctor. Wishing good health for father.
ReplyDeleteThe poem germinated in hospital is awaited..
हम छः भाई-बहन का जन्म घर पर ही हुआ... भारत में पहले संयुक्त परिवार का चलन था और मरीज की देखभाल घर में ही की जाती थी,,, आवश्यकता होने पर डॉक्टर को घर पर ही बुलाया जाता था... सामान्य धारणा थी कि बीमार अस्पताल तब ही जाता था जब इलाज घरेलू डॉक्टर की क्षमता के बाहर हो जाता था... इस कारण जन मानस में अस्पताल जाने में भय होता था कि केवल भाग्यशाली ही घर लौट कर आ पायेंगे...
ReplyDeleteपिताजी के स्वास्थ्य लाभ के लिए इश्वर से दुआ...
ReplyDelete***************************
'पाखी की दुनिया' में इस बार 'कीचड़ फेंकने वाले ज्वालामुखी' !
आपके पिताजी के स्वास्थ्य-लाभ की हार्दिक शुभकामाएं.
ReplyDeleteदराल जी,
मुश्किल तो होता हैं लेकिन ईश्वर कभी-कभी तो माता-पिता की सेवा का मौक़ा देता हैं. कहते भी हैं--"माता-पिता के चरणों में स्वर्ग होता हैं."
मैं भी दो-तीन बार इस स्थिति (दादा-दादी के बीमार होने पर) से गुज़र चुका हूँ.
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
पिताजी के स्वास्थ्य के लिए शुभकामनायें...!
ReplyDeleteआपकी पोस्ट कल ही पढ़ी थी..टिप्पणी भी लिख लिया था....और पोस्ट भी कर दिया था ..अभी आकर देखा तो मेरी टिप्पणी ही नहीं थी....पहले मुझे लगा की मेरी टिप्पणी भी ICU में हो और मैं इंतज़ार कर रही हूँ बाहर...लेकिन तुरंत ही समझ में आया हो न हो मैं अपनी टिप्पणी भर्ती ही करना भूल गयी शायद...खैर सौ बात की एक बात ....सबसे पहले पिता जी ठीक हैं जानकार बहुत अच्छा लगा..उन्हें हम सबकी तरफ से प्रणाम...निसंदेह आपका यह अनुभव आपको अपने मरीजों के और करीब ले आया होगा...ये तो सचमुच किसी राजा का भेष बदल कर अपनी प्रजा के बीच बैठने वाली बात लगी...
ReplyDeleteकविता की प्रतीक्षा है...
आभार , अदा जी ।
ReplyDeleteएक डॉक्टर के लिए सभी मरीज़ एक समान होते हैं ।
लेकिन मरीज़ का रिश्तेदार होना बड़ा कठिन होता है ।
बहुत दिलचस्प बात बताई आपने .अब कविता का इंतज़ार है .
ReplyDeleteबिल्कुल सही अभी हाल ही मेरे कुछ इस प्रकार के अनुभव रहे आई. सी. यू. से बाहर बैठे लोग जो मरीज के शीध्र स्वास्थ्य होने की कामना करते है उनके दिल में एक डर सा बना रहता है जो एक अजीब स्थिति पैदा करता है सभी के लिए चाहे डॉ. हो या कर्मचारी ....बहुत सही अनुभव शेयर किया आपने..अच्छा लगा..अब कविता का इंतज़ार है..
ReplyDeleteअरे वाह ...कविता लिख जेब में डाल ली और हमें कह रहे हैं इन्तजार कीजिये .....जब लिख ही ली थी तो इस बार क्यों नहीं ....??
ReplyDeleteऔर अभी तो रोमानियत भरी ग़ज़ल भी पेंडिंग है .....जिसमें हमारी बारी है चुटकी लेने की ......!!
उम्मीद है पिताजी अब ठीक होंगें .....दुआ है ....!!
हा हा हा ! हरकीरत जी , इतनी जल्दी थोडा ना बलि का बकरा बन जायेंगे ।
ReplyDeleteथोडा इंतजार तो आपको भी करना पड़ेगा ।
बस इंतजार कीजिये कल तक ।
अनुभव अच्छा लगा.. आपने बिल्कुल सही लिखा है ।
ReplyDeleteअब कविता का इंतज़ार है..
सही कहा आपने पाला बदल कर काम करना एक अलग ही अनुभव होता है
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को पढ़ने के बाद जाना कि बड़ा मुश्किल होता है एक डॉक्टर के लिए मरीज़ का रिश्तेदार होना...
ReplyDeleteआपकी कविता को पढ़ने की उत्सुकता जाग उठी है