कहते हैं -- अतिथि देवो भव: । हमारे देश में अतिथि का आदर सत्कार करना परम कर्तव्य माना जाता है । लेकिन ऐसा लगता है कि बदलते ज़माने के साथ यह सोच भी बदल रही हैं ।
बोर्ड रूम में मीटिंग चल रही थी । अस्पताल की गर्म समस्याओं पर गर्मागर्म बहस चल ही थी । बाहर भी गर्मी , अन्दर भी गर्मी झलक रही थी । ए सी भी प्रभावी नहीं हो रहा था । ऐसे में किसी ने पानी माँगा । हमने अटेंडेंट को पानी लाने के लिए कहा । थोड़ी देर बाद वह आदत से मजबूर , यंत्रवत सा चाय की ट्रे लिए आ गया । हमने उसे फिर पानी के लिए कहा और महमान को ये पंक्तियाँ लिखकर थमा दी , ताकि उनकी पिपाषा कुछ देर शांत रह सके :
किल्लत ये पानी की है या सोच की ,
मेहमान को चाय बिन मांगे
और पानी मांगने पर ही हम पिलाने लगे ।
बस इसी से जन्मी यह ग़ज़ल सी रचना ।
तकनीकि बारीकियों में न जाकर , भावार्थ पर ध्यान देकर पढेंगे तो अवश्य आनन्द आएगा ।
चित्र साभार हिंदुस्तान टाइम्स के सौजन्य से ।
महमाँ जो घर में मंडराने लगे
घर जाने से हम घबराने लगे ।
पानी की यूँ किल्लत होने लगी
मांगे पर ही पानी लाने लगे ।
खाने को जब कुछ और नहीं मिला
माटी के लड्डू वो खाने लगे ।
खुद की आईने में जो छवि दिखी
अपने साये से कतराने लगे ।
ज़ालिम पर जब कोई जोर न चला
दे गाली दिल को बहलाने लगे
मुर्दों की बस्ती में 'तारीफ' क्यों
गूंगे बहरों को समझाने लगे ।
नोट : खाना पानी एक सीमित साधन है। यदि अभी से सचेत नहीं हुए तो एक दिन इन्ही की वज़ह से चित होना पड़ेगा ।
Thursday, June 17, 2010
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bahut badhiya prastuti....abhaar
ReplyDeleteमेहमान की महिमा अपरंपार।
ReplyDeleteमेह से ही सराबोर होता है संसार।
नेह भी बरसता रहना चाहिए बन सदाचार।
ब्लॉगिंग में लॉबिंग बंद होनी चाहिए, है सद्विचार।
तकनीकी बारीकियों में न जाकर , भावार्थ पर ध्यान देकर पढेंगे तो अवश्य टिप्पणी में आनन्द आएगा ।
ज़ालिम पर जब कोई जोर न चला
ReplyDeleteबना कर पुतला हम जलाने लगे ।
यही तो हो रहा है. दो चार पुतले जलाकर हम कितनी शांति से सो जाते हैं
सभी शेर लाजवाब
वाह ये तो नज़ीर अकबराबादी:) की तरह की ग़ज़ल हो गई़. बहुत सुंदर.
ReplyDeleteमुर्दों की बस्ती में क्यों 'तारीफ'
ReplyDeleteगीत देश प्रेम के सुनाने लगे ।
वाह! कुछ शेर तो निहायत ही उम्दा बन पड़े हैं।
आभार
अच्छी रचना है सर ,बस आप महमान को मेहमान कर दीजिये ।
ReplyDeleteसर गुस्ताखी माफ , अगर आप ’पानी मांगे से ही पिलाने लगे”को ऐसे लिखें -’मांगने पर ही पानी पिलाने लगे’तो शायद और अच्छा लगेगा ।
ReplyDeleteएकदम सही बात। आभार्……।
ReplyDeleteअजय कुमार जी , संशोधन कर दिया है । आभार ।
ReplyDeleteखुद का आईने में जो रूप दिखा
ReplyDeleteअपने साये से कतराने लगे ।
ग़ज़ल के बारे में तो कोई ग़ज़ल का मास्टर ही बता पाएगा..मुझे तो भाव अच्छे लगे...बढ़िया रचना...धन्यवाद डॉ. साहब
डॉक्टर साहिब, बढ़िया प्रस्तुति!
ReplyDeleteरहीम भी कह गए थे, "रहिमन पानी राखिये / बिन पानी सब सून..."
हम भी कहते फिरते हैं "जल ही जीवन है", किन्तु रिकॉर्ड के समान ही...
'पेयजल' को 'सागरजल' में मिलने को बेचैन पा बहने देते हैं,
मछली आदि का कुछ अंश शायद हम सब के भीतर भी है क्यूंकि,
और पानी तो पानी ही है मीठा हो या खारा!
खाने को जब कुछ और ना मिला
ReplyDeleteमाटी लड्डू समझ वो खाने लगे ।
...इस शेर से पता चलता है कि अभी हमारे देश में कितनी गरीबी है.
पानी की यूँ किल्लत होने लगी
मांगने पर ही पानी पिलाने लगे ।
...पीने के पानी का भी आभाव है.
...जब लोग भूखे-प्यासे हैं तो कैसे कह दें कि हमारे देश ने तरक्की की है..!
...उम्दा भाव.
bahut sateek kavitaaaj ke khatm hote sansaadhno par...
ReplyDeleteमुर्दों की बस्ती में क्यों 'तारीफ'
ReplyDeleteगीत देश प्रेम के सुनाने लगे ।
लाजबाब डा० साहब !
अब जब भी चाय की इच्छा होगी आपके आफिस आता हूँ , पड़ोसी का धर्म निभाना पड़ेगा :-)
ReplyDeleteअच्छी रचना है सर
ReplyDeleteडाक्टर साहब मेरे परिवार ग्रीनफेक्सन ( Greenfection ) को हो गया है , कोई इलाज है क्या ?
बहुत बढ़िया और गहरे अर्थो वाली कविता लिखी हैं आपने.
ReplyDeleteमुझे पसंद आई.
कविता के कटाक्ष की मैं विशेष रूप से सराहना करना चाहूँगा.
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
खुद का आईने में जो रूप दिखा
ReplyDeleteअपने साये से कतराने लगे ।
इन दो पंक्तियों से सब कुछ कह दिया....सुन्दर रचना ..
खुद का आईने में जो रूप दिखा
ReplyDeleteअपने साये से कतराने लगे
सुन्दर पंक्तियाँ...
सच्चाई बयाँ करती हुई
ज़ालिम पर जब कोई जोर न चला
ReplyDeleteबना कर पुतला हम जलाने लगे ।
बहुत ही सटीक कहा है डॉ. साहब .बहुत भावपूर्ण गज़ल है.
डा. साहिब, पुतले से याद आया कि भारत एक महान देश रहा है. ऐसी मान्यता है कि यहाँ बड़े-बड़े पहुंचे हुए तांत्रिक हुए हैं जो पुतले में सुई चुभा व्यक्ति विशेष के शरीर में भयानक वेदना पहुंचाने में सक्षम थे, और उनका तोड़ जानने वाले भी थे,,, किन्तु आज अज्ञान वश आम आदमी पुतला जला शायद दुष्ट नेताओं की उम्र बढ़ा देते हैं!
ReplyDeleteपानी की यूँ किल्लत होने लगी
ReplyDeleteमांगने पर ही पानी पिलाने लगे ।
खाने को जब कुछ और ना मिला
माटी लड्डू समझ वो खाने लगे ।
bahut sundar rachna hai.
डॉक्टर साहब... सोचा कुछ सर्जरी करके दुरुस्त करूँ.. फिर लगा कि पत्थर में जो स्वाभाविक ईश्वर का रूप दिखता है, उसे कला का नाम देकर क्यों तराशूँ... बहुत खूबसूरत रचना...और उससे भी ख़ूबसूरत भाव!!
ReplyDeleteडॉक्टर साहब... सोचा कुछ सर्जरी करके दुरुस्त करूँ.. फिर लगा कि पत्थर में जो स्वाभाविक ईश्वर का रूप दिखता है, उसे कला का नाम देकर क्यों तराशूँ... बहुत खूबसूरत रचना...और उससे भी ख़ूबसूरत भाव!!
ReplyDeleteइतनी सच्ची बात इतने सरल शब्दों में ...वाह ।
ReplyDeleteबहत सुंदर लगी यह ग़ज़ल....
ReplyDeleteडॉक्टर साहब,
ReplyDeleteफिक्र क्यों करते हैं मेहमानों के लिए भी टीचर का कोटा बढ़ा लीजिए न...सब दुआएं देंगे...
जय हिंद...
ज़ालिम पर जब कोई जोर न चला
ReplyDeleteबना कर पुतला हम जलाने लगे ...
और कर भी क्या सकते हैं ...
खाने को जब कुछ और ना मिला
माटी लड्डू समझ वो खाने लगे ...
बहुत प्रगति कर ली है देश ने ....अमीर और अमीर गरीब और गरीब ...भूखमरी को दर्शाती अच्छी पंक्तियाँ ...
पानी की किल्लत है बिना मांगे चाय पिलाने लगे ....गनीमत है ...बात बोतल तक नहीं पहुंची ...
@ खुशदीप जी और वाणी गीत जी
ReplyDeleteएक फिल्म में विदूषक कहता है कि पी तो उसके बाप दादा ने थी,
वो तो केवल बोतल देख क़र झूम लेता है:)
आदमी और बोतल में समानता क्या है? पूछा एक ने,
तो दूसरा बोला दोनों की एक सीट है और एक गला भी है!
और, अंतर क्या है?
बोतल का ढक्कन खोल उसे साफ़ किया जा सकता है,
किन्तु आदमी का ढक्कन बंद होने के कारण सफाई कठिन है, लगभग नामुमकिन है!
मुर्दों की बस्ती में क्यों 'तारीफ'
ReplyDeleteगीत देश प्रेम के सुनाने लगे ।
वाह वाह .....अब तो आप कमाल करने लगे ....
तारीफ की जगह अपना तखल्लुस लगाइए न ......?
मुर्दों की बस्ती में क्यों 'दराल'
गीत देश प्रेम के सुनाने लगे ।
After reading the post i was thinking, how..
ReplyDeleteemotional you are,
caring you are,
considerate you are,
and far-sighted above all.
'Jal hi jeevan hai '
....लाजवाब!!!
ReplyDeleteतकनीकी जानकारी तो हमें है नहीं, इसलिए मैंने सिर्फ शब्द और भाव ही देखे, और सचमुच मुझे गजल पसंद आई।
ReplyDelete--------
भविष्य बताने वाली घोड़ी।
खेतों में लहराएँगी ब्लॉग की फसलें।
हरकीरत जी , आज की आपकी पोस्ट पढ़कर अब कुछ समय के लिए व्यंग लिखना बंद कर दिया है । अगली ग़ज़ल रोमानियत पर लिखने की कोशिश है । लेकिन शायद आप समझी नहीं , अपना तखल्लुस तारीफ ही तो है ( टी फॉर तारीफ)।
ReplyDeleteहौसला अफज़ाई के लिए शुक्रिया ।
पानी की यूँ किल्लत होने लगी
ReplyDeleteमांगने पर ही पानी पिलाने लगे
आब ऐसा ही समय आ गया है । हम तो सोच रहे थे कि दिल्ली गयी तो दराल साहिब के घर भी जायेंगे मगर आपने तो हमे ही डरा दिया। भगवान जाने क्या होगा
पूरी गज़ल के भाव बहुत अच्छे लगे
"खुद का आईने में जो रूप दिखा
ReplyDeleteअपने साये से कतराने लगे ।"
सत्य वचन!
किन्तु, जादुई शीशे में तो नहीं देख रहे हैं कहीं सभी?
ऐसा प्राचीन ज्ञानी इस संसार को समझे
और इसे 'मिथ्या जगत' कह गए...
जबकि 'जगत' मुंडेर को भी कहा उन्होंने
एक ब्लैक होल समान गहरे कुएं की
जिसके किनारे खड़े-खड़े हम पानी खींचते हैं
और खींचते आ रहे हैं सभी नश्वर अनादिकाल से!
तारीफ जी, आपके तारीफ के लायक विचार, "खाने को जब कुछ और ना मिला / माटी लड्डू समझ वो खाने लगे ", ने मुझे नदी-जल की भूख तक पहुंचा दिया! मजबूर हूँ!
ReplyDeleteदिल्ली में रहते भी शायद समाचार पत्रों, टीवी आदि से भी कभी-कभी पता चलता रहता है कि कैसे, उदाहरणतया, मणिपुर में एक ३० फुट चौड़ा नाला ३०० फुट चौड़ी नदी बन गया (क्यूंकि थोड़े से समय में उस क्षेत्र में वर्षा-जल की बहुतायत ने भूखे शेर समान उसके तट की माटी पर हमला कर दिया)! या असम में ब्रह्मपुत्र नदी अपने तटों की माटी कई स्थानों पर हर वर्ष खा जाती है, और बाढ़ की समाप्ति पर खायी गई मिटटी को उपजाऊ मिटटी में परिवर्तित कर किसी क्षेत्र में छोड़ जाती है (यह नदी की मानव समान प्राकृतिक कार्य-प्रणाली है, जिसे देख कवियों ने भी उद्गम स्थान से समुद्र तक नदी के बहाव को मानव जीवन समान पाया है,,, और प्राचीन भारतीयों ने नदियों को मानव समान ही नाम भी दिए)...
बांधों से सम्बंधित वैज्ञानिक जानते हैं कि कैसे बाँध पानी द्वारा लायी मिटटी को रोक लेते हैं (जैसे हॉकी को गेंद, फुटबॉल आदि को गोलची रोक लेता है)... और इस कारण बांध से छोड़ा गया पानी भूखे आदमी के समान निचले क्षेत्रों की मिटटी खा जाता है, समुद्र-तट की भी! इन कारणों से नदी और समुद्र के तटों के बचाव हेतु उपाय ढूंढें और बनाये भी जाते हैं,,, भले ही वो शत प्रतिशत सफल हों या नहीं...
पानी की यूँ किल्लत होने लगी
ReplyDeleteमांगने पर ही पानी पिलाने लगे ..
आने वाले समय में ... माँगने पर भी कोई पानी नही पिलाएगा ...बहुत अच्छी ग़ज़ल ....
आदरणीय डॉ टी एस दराल साहब
ReplyDeleteनमस्कार !
सबसे पहले शस्वरं पर पधारने और मेरी मित्र मंडली में सम्मिलित हो'कर मेरी इज़्ज़तअफ़्ज़ाई के लिए शुक्रिया ! आभार !!
आपके दोनों ब्लॉगों की सैर की है अभी अभी ।
छुपे रुस्तम हैं जनाब ।
मेडिकल डॉक्टर, न्युक्लीअर मेडीसिन फिजिसियन भी
आज तक पर -दिल्ली हंसोड़ दंगल चैम्पियन - नव कवियों की कुश्ती में प्रथम पुरूस्कार भी
कितने सारे रूप हैं आपके !
… और आपकी ग़ज़ल को तकनीकी बारीकियों में न जाकर , भावार्थ पर ध्यान देकर ही पढ़ा , वाकई आनन्द आ गया ।
और यह आपने हरकीरतजी को क्या लिखा है आज की आपकी पोस्ट पढ़कर अब कुछ समय के लिए व्यंग लिखना बंद कर दिया
डॉक्टर साहब ! अपने मरीज़ों मेरा मतलब मुरीदों का भी ख़याल रखें । ज़िंदा रहने की सबसे बड़ी ज़रूरत , सबसे बड़ा तोहफ़ा यानी हंसी - मुस्कुराहट बांटना आप बंद कर देंगे तो ज़माने का क्या होगा ?
वैसे रूमानियत पर लिखी आपकी ग़ज़लियात का मैं भी इंतज़ार करूंगा । आप जैसे वरिष्ठ का अनुभव जब अभिव्यक्ति के रूप में ढलेगा तो निश्चय ही कुछ उम्दा और बेहतर मिलेगा ।
स्नेह - सद्भाव बनाए रखें ।
…और हां , शस्वरं को अपनी आशीषों से नवाज़ते रहें ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
राजेन्द्र जी , शुक्रिया ब्लॉग पर आने का और एक आत्मीयता से भरी टिप्पणी देने का ।
ReplyDeleteहमारे लिए तो आप छुपे हुए थे हालाँकि आपको छुपा रुस्तम बिल्कुल भी नहीं कह सकते ।
वो तो भला हो हरकीरत जी का , जिन्होंने आपसे परिचय करा दिया और एक उत्कृष्ट ग़ज़लकार और गायक को पढने सुनने का अवसर मिला ।
राजेन्द्र जी , हम तो बस यूँ ही हंसी मजाक कर लेते हैं । इसलिए पहले ही बता देते हैं कि भाई हमें ग़ज़ल लिखने का कोई ज्ञान नहीं है , ताकि लोग पढ़कर हम पर न हंसें।
सच मानिये , रोमानियत पर ग़ज़ल लिखने का दुस्साहस करने का साहस नहीं हो रहा ।
लेकिन असफल ही सही , एक प्रयास करने का प्रयास ज़रूर रहेगा , आपके लिए । शुभकामनायें ।
बहत सुंदर लगी यह ग़ज़ल.
ReplyDeleteबढ़िया रचना...धन्यवाद डॉ. साहब
ReplyDeleteपूरी गज़ल के भाव बहुत अच्छे लगे
ReplyDeleteज़ालिम पर जब कोई जोर न चला
ReplyDeleteबना कर पुतला हम जलाने लगे ।
वाह दराल साहब, आप तो शायर भी हैं. बधाई हो.
बहुत ही बढ़िया...प्रभावशाली रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteटी.सी. दराल जी
ReplyDeleteआशीर्वाद
किन पंक्तिओं पर लिक्खूँ
और किन पर नहीं
मोगा मोतिओं के शब्दों से गुंथी हुई हैं गजल
ऑरकुट पर लोड की और संग्रह में भी
धन्यवाद व शुभ कामनाएँ