दिल्ली में चलने वाले ६० लाख वाहनों में आधे से ज्यादा दोपहिये हैं जिनमे से ९० % मोटरसाइकल हैं। इनकी सबसे बड़ी खूबी ये है की जो दूरी कारवाले एक घंटे में तय करते है वो ये आधे घंटे में तय कर लेते हैं। इसकी एक वज़ह तो ये है की इनको सड़क पर चलने के लिए बस दो फुट चौडी जगह चाहिए। ऊपर से जिग जैग चलते हुए आजकल के युवा ऐसे चलाते हैं मानों मौत के कुँए के कलाकार हों।
रोज़ सुबह हॉस्पिटल जाने के लिए दस किलोमीटर का रास्ता तय करने में मुझे तीन निर्माणाधीन फ़्लाइओवर से होकर गुजरना पड़ता है। एक तो वैसे ही ट्रैफिक की स्पीड ५ से १० किलोमीटर से ज्यादा नहीं होती, ऊपर से जगह जगह पुलिस के बैरिकेड। हॉस्पिटल तक पहुंचते पहुंचते सर भन्ना चुका होता है।
उस दिन भी मैं ट्रैफिक से जूझता हुआ आगे बढ़ रहा था। सावन के सफ़ेद बादल बिन बरसे चिढाते हुए से आसमान में अठखेलियाँ कर रहे थे. मेरे मन में एक नयी कविता की भूमिका बन रही थी. तभी मेरे ख्यालों की श्रंखला लगातार आती पीं पीं की आवाज़ से टूट गयी. मैंने रीअर व्यू मिरर में झाँका तो देखा की एक २०-२२ साल का युवक मोटरसाइकल पर, हेलमेट एक हाथ में टंगा हुआ, दुसरे हाथ की उँगलियों के बीच सिगरेट होठों से लगी हुई, बाल हवा में उड़ते हुए, कमीज़ के छाती के बटन खुले हुए, मुहँ से सिगरेट का धुआं ऐसे निकलता हुआ, जैसे पुराने ज़माने में स्टीम इंजिन से निकलता था. स्पीड तेज़ थी इसलिए धुएं के छल्ले तो बन नहीं सकते थे. लड़का अंगूठे को हार्न पर रख लगातार हार्न बजाये जा रहा था. मेरा पारा भी अब धीरे धीरे बढ़ने लगा था . मैं समझ रहा था की वो साइड मांग रहा था, लेकिन साइड तो तब देता जब जगह होती. एक तरफ फुटपाथ, दूसरी तरफ ढेरो गाडियाँ. अचानक मोटरसाइकल वाले ने स्पीड बढाई और शार्प कट मारता हुआ बायीं तरफ से एकदम मेरे आगे से चीते जैसी फुर्ती से जम्प करता हुआ गोली की तरह आगे निकल गया।
इस आकस्मिक आक्रमण के लिए तो मैं तैयार नहीं था। इसलिए स्टीयरिंग वाला हाथ ज़रा घूमा और मैं फुटपाथ से टकराते टकराते बचा. एक ही पल में गुस्सा, फरस्त्रेसन, डर और दहशत की मिली जुली प्रतिक्रियाएँ दिमाग में घूम गयी. गुस्सा तो इतना आया की मन किया की पकड़कर दो झापड़ रशीद कर दूं. लेकिन एक तो वैसे ही हम कानूनी डरपोक, ऊपर से अब उम्र भी ऐसी नहीं की ६ फुट लम्बे चौडे नौजवान से भिड सकें. कहीं उसी ने हमें दो के बदले चार लगा दिए तो. हालाँकि कालिज के दिनों में तो हम भी बॉडी बिल्डर हुआ करते थे और दो महीने तक जे ऍन यु में गुरुंग नाम के ब्लैक बेल्ट २ डान ताइकोन्दो को़च से मार्सिअल आर्ट सीखा था. लेकिन जे ऍन यु में हड़ताल होने की वजह से ट्रेनिंग बीच में ही ख़त्म हो गयी. अब नीम हकीम खतराए जान वाली बात तो आपने सुनी ही होगी. इसलिए ये रिस्क नहीं ले सकते थे.खैर, डॉ अस्थाना की तरह हंसकर तो नहीं, पर लम्बी लम्बी सांसें लेकर हमने अपना बी पी डाउन किया और गाड़ी को संभाला।
अभी आधा किलोमीटर ही ड्राइव किया था की सड़क किनारे भीड़ देखकर मैं रुका। गाड़ियों वाले गाड़ी धीरे करते और देखकर आगे निकल जाते. आजकल किसके पास इतना टाइम है की फालतू में अपनी टांग घुसाएँ. मैंने देखा तो हैरान रह गया. सड़क पर वही युवक औंधा पड़ा था, हेलमेट दूर पड़ा था, सिगरेट का बट अभी तक उसकी उँगलियों में था और धुएं की एक पतली सी लकीर उड़ रही थी. जाहिर था उसका एक्सीडेंट हुआ था. पूछने पर पता चला की मोटरसाइकल के पहिया के नीचे एक ईंट का टुकडा आ गया था, जिसकी वजह से बाइक उलट गयी।
लड़का बेहोश था. कहीं से खून नहीं निकल रहा था. शायद अंदरूनी चोट थी. एक डॉक्टर होने के नाते मुझसे रुका नहीं गया. मैंने उसकी नब्ज़ टटोली, नब्ज़ ठीक थी. शुक्र था की जिन्दा था. मैंने फोरन १०० नंबर पर फोन मिलाया ये सोचकर की पोलिस की पी सी आर कम से कम जल्दी हॉस्पिटल पहुंचा देगी. ऐसे में एक एक पल की कीमत होती है. कुछ ही मिनटों में पी सी आर आ गयी और लेकर चली गयी।
दोपहर को अपना काम निपटाने के बाद जब मैं इमर्जेंसी वार्ड गया राउंड लेने, इमर्जेंसी के इंचार्ज को स्वाएइन फ्लू हो गया है, तो मैंने उसी लड़के को लेटे हुए पाया. पुलिस उसे हमारे ही हॉस्पिटल में ले आई थी. मैंने उसकी रिपोर्ट देखी, सी टी सकेन नोर्मल था. यानि कोई गंभीर चोट नहीं लगी थी. लड़का अब होश में आ चुका था. साथ ही उसके मात- पिता भी पहुँच चुके थे. पिता को देखकर मुझे हैरानी हुई क्योंकि वो तो मेरे पुराने दोस्त निकले. सारी बात जानने के बाद वो बड़े शर्मिंदा थे. एक पल जो उनकी नज़रें मुझसे मिली तो उन आँखों में क्रत्य्गता और शर्मिंदगी के मिले जुले भाव नज़र आये. युवक आँखे बंद कर लेटा था, शायद सोने का बहाना कर रहा था. मैंने उसके सर पर हाथ फेरा और आगे बढ़ गया दुसरे मरीज़ के पास.
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New generation play with death.
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने........
ReplyDeleteये युवा युवा मरने में ही यकीं रखते हैं ..इन्हें बूढा होने तक का धीरज नहीं है........
बिल्कुल सही कह रहे हैं. जिन्दगी को मजाक समझते हैं.
ReplyDeleteजिस तरह की घटना की आपने चर्चा की वह आम होती जा रही है आये दिन सडकों पर ये नयी पीढी ऐसे ही गुजराती है और हम दोनों हाथ जोड़े दुआ माँगते हैं इनकी सलामती की
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है आपने! बिल्कुल सच्चाई का ज़िक्र किया है ! आजकल के बच्चे जोश में आकर होश खो बैठते है!
ReplyDeleteदोष किसे दिया जाये, प्रश्न ये उठता है.
ReplyDeleteहरकत सही या गलत का विश्लेषण करने को दूसरे के केस में कहा जाये, तो शायद हर कोई सही या गलत को एक तरह से ही निरूपित करेगा. कहने का आशय यह कि सही गलत की पहचान तो सब को है पर लगभग हर उस युआ पर निरंकुश और अराज़क होने का आरोप लगता है, जो ऐसे ही समझदार माता-पिता की लाडली औलाद होते हैं. बच्चों के प्रथम शिक्षक तो माँ-बाप ही होते हैं, उन्हीं के संरक्षण में जैसे संस्कारों को आरोपित किया गया, युआ होते ही वैसे ही परिणाम या कहें फल मिलेंगें.
यदि प्रथम शिक्षक के आवश्यकता से अधिक लाड-प्यार ने या खुद की व्यस्तता के चलते समय न दे पाने के कारण औलाद बिगड़ गई तो पैसे के लिए हर क तरह के काम करने वाले अधिकांश टीचर क्यों कर अतिरिक्त श्रम कर बिगड़ी औलादों को सुधारेंगे?
ले-दे कर अंतिम एक ही उपाय प्राकृतिक रूप से बच रहता है और वह है "ठोकरों की अचूक शिक्षा"
लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.........................
और इसके प्रतिफल को अंततः माँ-बाप को ही झेलना पड़ता है............
जय बोलो ठोकर महाराज की.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
मैं चंदर मोहन जी से पूर्ण रूप से सहमत हूँ. बच्चों के बिगड़ने में कहीं न कहीं अभिभावकों की ही कमी रहती है. जितनी आवश्यक स्कूल कोलिज की शिक्षा होती है, उतनी ही महत्त्वपूर्ण होती है घर की शिक्षा. इसमें तो माँ- बाप का ही दोष है यदि हम १५-१६ साल के बच्चे को मोटरसाइकल चलाने दें, या सिफारिस या पैसे देकर लाइसेंस बनवा दें. इसी तरह बनते हैं--रईस बाप के बिगडे हुए बच्चे. और बदकिस्मती से यदि कुछ अनहोनी हो जाये तो इसका खामियाना तो माँ-बाप को ही भरना पड़ता है उम्र भर के लिए. इसलिए मैं सभी से यही अपील करता हूँ की समय रहते अपने बच्चों को संभालें ताकि वे अच्छे इंसान बन सकें.
ReplyDeleteअंधे जहां के अंधे रास्ते, जाएं तो जाएं कहां...
ReplyDeleteमौत के कुयें के कलाकार इस उपमा का जवाब नहीं ।
ReplyDeleteदिल्ली की व्यस्त सड़कों पर ऐसे नज़ारे हर वक्त देखने को मिल जाते हैं...
ReplyDeleteआपके जज्बे को सलाम