एक् सुबह जब हमने अखबार उठाये
हैद्लाइन्स पढ़कर मन ही मन मुस्कराए.
लिखा था,
महंगाई दर शून्य से नीचे चली जा रही है
हमने सोचा, मतलब
मंदी की मार में कमी आ रही है.
मैंने खुश होकर पत्नी से कहा,
देखो, सावन की काली घटा चढी है
ज़रा कुछ चाय पकोडे खिलाओ.
पत्नी बोली, टोकरी खाली पड़ी है
पहले सब्जियाँ खरीदकर लाओ.
आज लगती है मंडे की मंडी
सब्जियां मिलती हैं वहां सबसे मंदी.
तो भई मन में पकोडों की तस्वीर बनाये
हम चल दिए मंडी थैला उठाये.
मंडी में जब मैंने नज़र घुमाई
और फूल सी फूलगोभी नज़र आई.
तो मैंने सब्जीवाले से पूछा
भैय्या गोभी क्या भाव ?
वो बोला १५ रूपये
मैं ने पुछा, किलो ?
वो बोला नहीं, पाव.
ये सुनकर हमतो झटका खा गए
३४००० फीट से सीधा, धरा पर आ गए.
फिर शर्माए से बोले,
अच्छा बीन्स का रेट बतलाओ
वो बोला, ये भी १५ में ले जाओ.
मैंने पूछा,
क्या आज सारी सब्जियां १५ रूपये पाव हैं ?
वो बोला नहीं, ये १०० ग्राम का भाव है।
सब्जियों का रेट सुन मन हिम्मत खोने लगा
उधर अपनी आई क्यु पर भी शक होने लगा।
इसी उधेड़बुन में हमें
हरे हरे से नींबू नज़र आ गए
लेकिन हम तो वहां भी चक्कर खा गए.
मैंने साहस बटोरकर कहा,
बस इनका रेट और बतला दो
वो खीजकर बोला,
बहुत हो गया बाबूजी , अब कुछ ले भी लो
अच्छा चलो, २५ के ढाईसौ ले जाइए
मैंने कहा भाई, मुझे तो बस ५ ही चाहिए।
बाबूजी, इतने में कैसे काम चलेगा
५ ग्राम में तो एक टिंडा भी पूरा नहीं चढेगा.
अब हम समझे,
सब्जीवाला तो शोर्टकट मार रहा था,
पर अपनी तो इज्ज़त उतार रहा था।
अब तो हम मन ही मन बड़े शर्मिंदा थे,
क्योंकि अब समझ चुके थे
की वो नींबू नहीं टिंडा थे.
फिर भी इज्ज़त तो बचानी थी
इसलिए जिद भी दिखानी थी.
सो अकड़कर कहा, मुझे तो पांच टिंडे ही चाहिए
२५ रूपये लेकर वो बोला,
ठीक है, ले जाइए.
मैंने महंगाई को कोसा,
फ़िर मन ही मन सोचा
भई पांच रूपये का मिला एक टिंडा !
अरे ये टिंडा है या,
शतुरमुर्ग का अंडा.
खैर कुछ अदरक, धनिया, आलू, टमाटर
और मटर की छोटी छोटी पोटलियाँ बनवाकर.
जब घर पहुंचे तो पत्नी बोली
ये क्या, खली पड़ी है सारी झोली.
अजी सब्जियां खरीदने गए थे,
ये क्या लेकर आये हैं?
मैंने कहा भाग्यवान,
रूपये तो बस ५०० लेकर गए थे
हमारी सौदेबाजी देखिये,
फिर भी पूरे ५० बचाकर लाये हैं.
प्रिये
मंडे की मंडी पर,
पड़ गई है मंदी की मार
इसलिए सब्जियां खरीदने को अगले मंडे
रूपये देना पूरे हज़ार।
भले ही महंगाई दर शून्य से नीचे ढह गई है,
लेकिन सब्जियाँ अब केवल दर्शनार्थ रह गयी हैं
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यह पोस्ट एडिट करने के चक्कर में उड़ गई और फिर पकड़ में ही नहीं आई. इसलिए साथ साथ सारी टिप्पणियां भी डिलीट हो गई. कभी कभी कंप्यूटर हम पर भारी पड़ जाता है. खेद है लेकिन अगली रचना प्रस्तुत है.
ReplyDeleteमंदी की इस मार में सस्ता
ReplyDeleteहोता नहीं कुछ भी मंडी में,
मंडी मंडे की हो या संडे की
क्रय का करे कोई भी ख्याल,
मॆडम या आप,फ़र्क नहीं पडता
सिर्फ़ मानस का मोल हॆ घट्ता
या महंगाई की मंद होती हॆ चाल
ये महगाई तो मानो जैसे सुरसा का मुंह हो...बढ़ती ही जाती है...थमने का नाम ही नहीं लेती...
ReplyDeleteव्यंग्य को अपने में समेटे बढ़िया हास्यात्मक कलेवर लिए रचना