कंडाघाट से चैल जाने वाली सड़क यूं तो रूरल एरिया से होकर जाती है। लेकिन सारे रास्ते पड़ने वाले गांवों/घरों में अब होटल/रिजॉर्ट/होम स्टे खुल गए हैं। ज़ाहिर है, मेन रोड़ पर प्रॉपर्टी सदा ही सोना उगलती रही है। लेकिन जो सबसे ख़तरनाक बात देखी वो थी रास्ते मे पड़ने वाली एक पहाड़ी नदी का दोहन। चैल से लगभग 15 किलोमीटर पहले एक गांव पड़ता है जो अब कस्बा बन गया है। दो पहाड़ों के बीच बहती एक छोटी सी जलधारा के किनारे बसा यह गांव सतपुला कहलाता है। यहां तलहटी में नदी को पार करने के लिए एक पुल बना है जिसके द्वारा एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ तक जाया जाता है। शायद इसी से यह नाम पड़ा होगा।
2015 में जब यहाँ आये थे तब यह पुल टूट गया था। इसलिए सारी गाड़ियां नदी में उतरकर नदी को पार करती थीं। दोनो ओर सीधी ढलान पर कच्चा रास्ता बहुत कठिन था। लेकिन गांव वालों ने इसे ब्लेसिंग इन डिसगाइज समझकर व्यवसायिक लाभ उठाते हुए नदी किनारे चाय पानी के अनेक किओस्क/ ढाबे खोल दिये। गाड़ीवालों के उत्साह को देखते हुए नदी के बीचों बीच टेबल चेयर भी डाल दीं। लोग भी पानी मे पैर लटकाकर बड़े मजे से चाय पकौड़ों का आनंद लेते थे। नदी का पानी भी साफ था।
लेकिन इस बार देखा कि पुल तो सही सलामत था और सारा ट्रैफिक वहीं से गुज़र रहा था, लेकिन नदी का पाट अब एक कैम्पिंग साइट बन गया था। नदी के एक किनारे तो वही पुराने ढाबे थे, लेकिन दूसरी ओर आधुनिक टेन्टेड कैम्प्स बन गए थे। लगभग एक किलोमीटर तक बीसियों कैम्प बने थे। आगे की ओर तो बहुमंज़िला रिजॉर्ट/ होटल भी बने थे। एक 4-5 फुट ऊंची दीवार शायद यह सोचकर बनाई गई थी कि यदि बाढ़ आ जाये तो कैम्प्स को नुकसान न हो। हालांकि पहाड़ों में जब बादल फटता है तो 4 क्या, 40 फुट ऊंची दीवार भी काम नहीं आती।
सबसे खराब बात ये पता चली कि इन सभी होटल्स का सीवर नदी में ही जा रहा था। ऊपर की ओर जहां से नदी निकलती थी, वहां तो बिलकुल नदी के ऊपर होटल बने थे। कोई हैरानी नहीं थी कि नदी का पानी काला क्यों देख रहा था।
अब सोचने की बात ये है कि किसने इज़ाज़त दी होगी इस अतिक्रमण के लिए। क्या प्रशासन आंखे बंद कर के बैठा है। या सब मिलीभगत से हो रहा है। पता चला कि सब प्रॉपर्टीज वहां के प्रभावशाली लोगों की हैं। यानी रक्षक ही भक्षक हो गए हैं। फिर आम जन भी क्षणिक आनंद के चक्कर मे अपना फर्ज़ भूल रहे हैं, आने वाली पीढ़ी के लिए।
प्रकृति का ऐसा निर्मम दोहन कहीं और देखा है क्या !
प्रकृति से छेड़छाड़ के नतीजे हम सब यदाकदा देखते रहते है फिर भी इससे सबक नहीं लेते|
ReplyDeleteसुंदर आलेख |
शुक्रिया रचना जी।
Deleteअब सोचने की बात ये है कि किसने इज़ाज़त दी होगी इस अतिक्रमण के लिए। क्या प्रशासन आंखे बंद कर के बैठा है। या सब मिलीभगत से हो रहा है। पता चला कि सब प्रॉपर्टीज वहां के प्रभावशाली लोगों की हैं। यानी रक्षक ही भक्षक हो गए हैं। फिर आम जन भी क्षणिक आनंद के चक्कर मे अपना फर्ज़ भूल रहे हैं, आने वाली पीढ़ी के लिए।
ReplyDeleteप्रकृति का ऐसा निर्मम दोहन कहीं और देखा है क्या !
कमोवेश हमारे उत्तराखंड के कई गांव के जिसमें हमारा भी गांव है यही हाल है, जिसे जब कभी गांव जाना होता है देखकर बड़ा दुःख होता है, वहां इस बारे में सोचने वाला कोई नहीं, यदि कोई सोचे भी तो वह अपनी दो जून की रोटी की फ़िक्र पहले करता हैऔर फिर यह सब पैसे वालों का खेल होता है, कौन बोले, बेचारी प्रकृति सब सहती रहती है
जी सही कहा। आम आदमी तो रोजी रोटी के चक्कर में पड़ा रहता है। उसे रोका भी जा सकता है। लेकिन यह काम बड़े लोगों का है जिन्हे अपने लालच के आगे प्रकृति की कोई चिंता नहीं होती। ये हैं समाज के असली दुश्मन।
Deleteपढ़कर मन द्रवित हो गया। इंसान कहाँ पहुँच गया, विचार करने की क्षमता का यों गोण होना। कई प्रश्न लिए खड़े है आपका सृजन। बहुत बढ़िया है इसे कहते हैं सृजन की आवाज़।
ReplyDeleteसादर
जी धन्यवाद।
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