हर साल होली पर मिलते थे हर एक से गले,
इस साल गले मिलने वाले वो गले ही नहीं मिले।
कोरोना का ऐसा डर समाया दिलों में,
कि दिलों में ही दबे रह गए सब शिकवे गिले।
पडोसी पार्क में बुलाते रहे पकौड़े खाने को,
डरे सहमे लोग अपने अपने घरों से ही नहीं हिले।
ना निकली बस्ती में मस्तों की टोली,
ना पिचकारी ना रंग गुलाल ही लगे भले।
ना रंग बरसे ना भीगी किसी की चुनड़िया,
लेकर गुलाल बुजुर्ग भी बैठे रह गए पेड़ों तले।
गुमसुम से रहे कवि जेब रह गई खाली,
होली के कवि सम्मलेन भी जब कल पर टले।
होलिका तो जल गई होली दहन में ,
ये मुए कोरोना वायरस फिर भी नहीं जले।
जले मगर मकान और दुकानें तो बहुत ''दोस्तों'',
अब दुआ करो कि कोरोना नहीं सद्भावना फूले फले।
वाह....बहुत खूब
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteवाह।
सकारत्मक सोच।
होली न खेलने का पछतावा।
नई रचना- सर्वोपरि?
जले मगर मकान और दुकानें तो बहुत ''दोस्तों'',
ReplyDeleteअब दुआ करो कि कोरोना नहीं सद्भावना फूले फले।
वाह!!!
बहुत ही सुन्दर लाजवाब सृजन
वाह! बेहद उम्दा।
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