पिछली पोस्ट में हमने अपने अति व्यस्त होने की बात कहते हुए कहा था -- अब शायद ब्लॉगिंग के लिए समय न मिल सके . लेकिन लगभग सभी मित्रों ने यही कहा -- ब्लॉगिंग छोड़ना मुश्किल ही नहीं , लगभग नामुमकिन है . हमने भी वादा किया था की कम से कम दुबई सैर की कहानी तो अवश्य सुनायेंगे . पोस्ट डाल भी दी थी -- तभी हमारिवानी पर जाते ही श्री पाबला जी के बेटे की असामयिक मृत्यु का अत्यंत दुखद समाचार पढ़कर मन दुःख से भर गया और तुरंत पोस्ट को हटा दिया .
सोच ही रहे थे की इस भयंकर त्रासदी पर पाबला जी को फोन कर कहें भी तो क्या कहें . बड़ी मुश्किल से हिम्मत जुटा पाया उन्हें फोन मिलाने की . लेकिन इस बीच एक और दुखद दुर्घटना ने हिला कर रख दिया . १० सितम्बर को हमारी चचेरी बहन का इकलौता २७ वर्षीय बेटा एक सड़क दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो गया और अस्पताल जाने के बाद दम तोड़ दिया . दो छोटे छोटे बच्चों को छोड़कर परिवार को बिलखता छोड़ दिया और सारी जिम्मेदारी बहन पर आ पड़ी .
इस हादसे से उन्हें भी एंजाइना होने लगा तो उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा . हालाँकि , अब ठीक हैं .
सब कुछ देख कर कभी कभी लगता है -- कभी कभी जिंदगी अपने आप में कितनी कष्टदायक भी हो सकती है . जब तक सब ठीक चल रहा है , तब तक ठीक . वर्ना कब क्या हो जाए , किसी को कुछ नहीं पता . फिर जाने क्यों हम लोग स्वयं को खुदा समझने लगते हैं .
सच पूछा जाए तो मृत्यु से ज्यादा जिन्दगी से डर लगता है .
क्या कहें...यहीं पर खोपड़ी खाली हो जाती है !
ReplyDeleteतुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी हैरान हूँ मैं .
ReplyDeleteतेरे मासूम सवालों से परेशान हूँ मैं
आपका पोस्ट खाली देखकर थोड़ी सी हैरानी हुई थी कारन जानकर बैचैनी बढ़ गई की भले लोगो के साथ ये इश्वर की बेरुखी क्यों ?
३१ मार्च १९९१ को मैं अपने भतीजे शशिकांत का पार्थिव शरीर पाया . ०१ अप्रेल १९९१ को मुखाग्नि दी एक बार सब कुछ याद आ गया बड़ा दुःख हुआ .इस अवसर पर क्या कहूँ सांत्वना के शब्द भी नहीं मिलते .बस इश्वर से प्रार्थना किसी को भी ये दिन न दिखाए .
इस तरह युवावस्था में संसार को छोड़ कर जाना सबसे ज्यादा कष्टदायक होता है , परिवार के लिए .
Deleteafsos hi kar saktae haen ham sab aur kuchh nahin
ReplyDeleteसच कहा आपने....
ReplyDeleteज़िंदगी तो बेवफ़ा है एक दिन ठुकराये गी
मौत महबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी...
पता नहीं कब क्या हो जाये, कहीं हम परीक्षित से न हो जायें..
ReplyDeleteछोटी-छोटी बातों के लिये कितनी तैयारियाँ ,और बड़ी-बड़ी,हिला कर रख देनेवाली घटनायें अचानक घट जाती हैं!
ReplyDeleteबहुत ही दुखद घटनाएं घटी पिछले दिनों... एक तरफ पाबला जी के पुत्र का जाना और दुसरी ओर चंद्रमौलेश्वर जी भी लंबी बीमारी के बाद ब्लॉग जगत के साथ-साथ इस दुनिया को भी अलविदा कह गए...
ReplyDeleteमैं तो अभी तक पाबला जी से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया हूँ...
हमें तो प्रसाद जी का इंतजार था की ठीक होकर फिर ब्लॉग पर आयेंगे . भगवान उन्हें अपने चरणों में जगह दे .
Deleteहे ईश्वर! दुःख दे पर सहने लायक दे। ऐसा ज़ख्म! दुश्मन को भी ना दे।
ReplyDeleteशब्दों से ज़ख्म भरते नहीं....
ReplyDeleteबस शायद शक्ति बढ़ जाती है सहने की....
सादर
अनु
बहुत दुखद घटनाएँ .... सच है ज़िंदगी से दर लगता है ...
ReplyDeleteJCSeptember 15, 2012 7:22 AM
ReplyDeleteडॉक्टर तारीफ जी, यद्यपि सभी के जीवन में अपने प्रियजनों से किसी काल विशेष में बिछड़ना निश्चित है, और कई ऐसे दुखद समाचार प्रतिदिन समाचार पत्रों आदि में पढने-देखने को मिल भी जाते हैं...
यह भी मानव जीवन का सत्य है कि वास्तव में भौतिक कष्ट उस दुर्घटना आदि से निकट रिश्तेदारों को ही होता है... और यदि कोई अल्प आयु में ही चल बैठता है तो उस पर निर्भर परिवार के सदस्यों को तो कष्ट जीवन पर्यंत सहना पड़ सकता है...
आम आदमी केवल भगवान् से दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करने की ही प्रार्थना कर सकता है...
किन्तु, भारत में ही शायद किसी काल विशेष में योगी/ सिद्ध आदि परम सत्य की खोज में निकल संभवतः निराकार ब्रह्म को पा गए! और साकार के सत्य को 'प्रभु की माया' कह मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य निराकार ब्रह्म और उसके साकार प्रतिरूपों को जानना बता गए...
वे परम सत्य को 'हम' साधारण कलियुगी आत्माओं की समझ आना अत्यंत कठिन बता गए क्यूंकि उनके अनुसार बाहरी शक्तियां सत्य की राह में पग- पग पर बाधाएं उत्पन्न कर देती प्रतीत होती हैं... इसी कारण संकट मोचन/ विघ्नहर्ता, हमुमान/ गणेश, आदि की पूजा करते आ रहे हैं अधिकतर हिन्दू जिनके पास पापी पेट के कारण रोजमर्रा जीवन की व्यस्तता के कारण समय का आभाव है - और इसीलिए किसी एक उम्र में संन्यास आश्रम में अंतर्मुखी होने का प्रयास कर सत्य समझने का सुझाव दे गए ज्ञानी-ध्यानी...
ओह!
ReplyDeleteसच है , बहुत कुछ हमारे वश में नहीं !
ReplyDeleteपाबला जी से उस बुरी रात में फोन से बात हुई थी , उनपर वज्रपात हुआ है ! ऐसा दिन ईश्वर किसी को ना दिखाए, पिछला पूरा महीना ही लगभग मनहूस सा बीता था, मगर यह सच है कि हम कुछ नहीं कर सकते , ऐसे क्षणों में ही लगता है कि हम कितने निस्सहाय हैं ...
ReplyDelete........
ReplyDelete........
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yaheen par ham bebas ho jaate hain--
ReplyDeleteकांच का गिलास है जी, पता नहीं कब मेज़ से गिरा और टूटा.....
ReplyDeleteबडो के सामने ,छोटों का जाना ....इससे ज्यादा कष्टदायक कुछ भी नही ?
ReplyDeleteओह!जाने वाले की आत्मा को शांति ...दुःख सहने वालों को दुःख सहने की शक्ति मिले ...
येही दुआ है हम सब की ....
अफसोसनाक.
ReplyDeleteयही संसार का क्रम है। दुख और सुख दोनों ही जीवन के अंग हैं। इसलिए दुख में भी धैर्य बनाए रखने की आवश्यकता है। आप सभी को प्रभु धैर्य प्रदान करावें।
ReplyDeleteमां-बाप के कंधे पर बच्चे की लाश। जिस पर गुजरती है,वही जानता है।
ReplyDeleteसच, जीवन मृत्यु पर कोई वश नहीं।
ReplyDeleteये तो ऐसा दुःख है जिसके लिए सिर्फ यही कह सकती हूँ कि ईश्वर ये पीड़ा किसी को भी न दे ......(
ReplyDeleteफिर जाने क्यों हम लोग स्वयं को खुदा समझने लगते हैं ...नियति पर किसी का बस नहीं.
ReplyDeleteसच..ऐसी पीड़ा भगवान किसी को न दे.
डॉक्टर तारीफ जी, आपने कहा, " सच पूछा जाए तो मृत्यु से ज्यादा जिन्दगी से डर लगता है"...
ReplyDeleteजिंदगी से डर लगता है कि जिंदगी की अनिश्चितता से - अगले क्षण क्या होगा पता न होने से, अर्थात अज्ञान के कारण??? गीता का मनन शायद इस में सहायक हो...?
जे सी जी , अगले पल क्या होने वाला है , यह कोई नहीं जानता . लेकिन अज्ञान के कारण नहीं , बल्कि भगवान ने यह सुविधा इन्सान को दी ही नहीं . और शायद यह सही भी है . क्योंकि यदि हमें अपना भविष्य पता चल जाये तो हम वर्तमान में सुखी ही न रह पायें . जिंदगी की यही अनिश्चितता हमें सांसारिक बनाये रहती है .
DeleteJCSeptember 19, 2012 6:42 AM
Deleteडॉक्टर तारीफ जी, यहाँ पर मैं एक अनुभव शेयर करना चाहूँगा - बात सन १९८०, गुवाहाटी आसाम की है...
पत्नी के अर्थराइटिस के सिलसिले में मेरे कहने पर किसी एक स्टाफ ने एक मुस्लिम सज्जन को मेरे घर बुलाया...
उसने मुझे देखते ही कहा मेरे परिवार में किसी को उच्च रक्तचाप चल रहा है!!! क्यूंकि मेरे पांच सदस्यों वाले परिवार में इस मामले में सभी ठीक थे, उस समय वो बात आई गयी हो गयी... उसने फिर मुझे कुछ जड़ी-बूटी आदि सामान की लिस्ट दे दी, और अगले दिन आ सरसों के तेल में उन्हें मिला, उबाल और छान, दवा बना गया... वो दूसरी बात है कि उस से लाभ नहीं मिला, किन्तु १५ दिन के भीतर ही हमारे पैत्रिक पहाड़ी कसबे से बड़े भाई का तार मिल गया कि दिल्ली से वहाँ उन दिनों रह रहे हमारे पिताजी को हार्ट अटैक हुवा था!!! ... और तीन माह बाद दिल्ली पहुँच मैं जब उन से मिला तो पिताजी ने बताया कि कैसे उसी दिन अटैक के तुरंत बाद उन्हें मेरे द्वारा भेजा गया कामाख्या मंदिर का प्रसाद मिला था जिसको खा उन्होंने वहाँ पर उपस्थित परिवार के अन्य सदस्यों को कहा था कि वो अब माँ का प्रसाद पा मरेंगे नहीं!!!...
उस सज्जन ने मेरे चेहरे में क्या और कैसे पढ़ लिया था भविष्य का एक अंश??? क्या जिसे हम भविष्य कहते हैं वो भूत ही तो नहीं???!!!
बस यही एक चीज़ है जिसपे इंसान का बस नहीं .... उस ऊपर वाले ने अपने हाथ में रखी है ...
ReplyDeleteबहन का ख्याल रखें ... ऐसे समय में अपने ही ढाढस बंधाते हैं ...