भाई तिलक राज कपूर जी का लेख पढ़कर ग़ज़ल लिखना सीखने का प्रयास किया है । इस में मत्ला और मक्ता सहित सिर्फ पांच शेर (अश`आर ) कहे हैं । इसमें काफिया --आत है जैसे गात , रात , बात आदि । रदीफ़ है --नहीं आती । पहले शेर यानि मत्ला में काफिया और रदीफ़ दोनों मिसरों (पंक्तियाँ ) में हैं । बाकि में सिर्फ दूसरे मिसरा में । सभी शेर स्वतंत्र हैं । इसलिए इसे ग़ज़ल ही कहेंगे ।
पसीने की गंध गात नहीं आती
नींद उनको सारी रात नहीं आती ।
वो काम करते नहीं जब तलक
काम के बदले सौगात नहीं आती ।
क्या बताऊँ उनको मैं जात अपनी
सिवा इंसानियत कोई जात नहीं आती ।
नेता हम भी बन जाते लेकिन
सच को छोड़ बात नहीं आती ।
ज़ज्बा लड़ने का बहुत है `तारीफ`
शैतान को देनी मात नहीं आती ।
अब यह प्रयास कैसा रहा , यह तो ग़ज़ल के जानकार ही बता सकते हैं । आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा ।
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नेता हम भी बन जाते लेकिन
ReplyDeleteसच को छोड़ बात नहीं आती ।
ज़ज्बा लड़ने का बहुत है `तारीफ`
शैतान को देनी मात नहीं आती ।
बहुत खूब डा0 साहब , सुन्दर
अब गज़ल का तो पता नहीं .परन्तु .पढकर बहुत अच्छा लगा हमें तो.
ReplyDeleteक्या बताऊँ उनको मैं जात अपनी
ReplyDeleteसिवा इंसानियत कोई जात नहीं आती ।
नेता हम भी बन जाते लेकिन
सच को छोड़ बात नहीं आती ।
वाह...बहुत सुन्दर भाव हैं....एक एक शेर सच को कहता हुआ
अरे वाह...!!
ReplyDeleteक्या बात है डॉ. साहेब...आप भी !!
हम भी ज़रा ट्राई मार लेवें...हाँ नहीं तो...हा हा हा ...
इंतज़ार करते हैं अब उन नामचीन उस्तादों की
है क्या शय ये ग़ज़ल समझ में बात नहीं आती
waah badi shaandaar gazal...
ReplyDelete"नेता हम भी बन जाते लेकिन
ReplyDeleteसच को छोड़ बात नहीं आती ।
ज़ज्बा लड़ने का बहुत है `तारीफ`
शैतान को देनी मात नहीं आती ।"
जी ग़ज़ल के तो ना जान है ना कार है पर आपकी ये पंक्तियाँ छाती से कही चिपकी सी रह गयी...जब तक गौर किया तो पाया कि ये तो थोडा अन्दर भी धंस चुकी थी.....
कुंवर जी,
अदा जी , एक सीधा सादा सा अफसाना है
ReplyDeleteकुछ सुना सुनाया था , कुछ सुनाना है ।
पहला --अमीरों के नाम
दूसरा --रिश्वतखोरों के नाम
तीसरा --जात पात के ठेकेदारों के नाम
चौथा --झूठों के नाम
आखिरी ---शरीफों के नाम ।
ज़ज्बा लड़ने का बहुत है `तारीफ`
ReplyDeleteशैतान को देनी मात नहीं आती ।
...इस शेर में "तारीफ़" का भावार्थ स्पष्ट करने का कष्ट करें !!!!
रदीफ़ और काफिये की बात तो गुणीजन जानें...हमें तो ग़ज़ल अच्छी लगी..
ReplyDeleteबहुत खूब !! अच्छा प्रयास है ... मै शायर तो नहीं हूँ लेकिन जितना सहज बुद्धि ईश्वर से मिली है उस के आधार पर मै आपकी गजल पर चंद बातें कहना चाहता हूँ ...
ReplyDeleteआपका काफिया एकदम दुरुस्त है
आपकी रदीफ एकदम दुरुस्त है
मिसरा उला और मिसरा सानी दोनों अपनी जगह दुरुस्त हैं
सभी शेर स्वतंत्र हैं इस लिए गज़ल भी है दुरुस्त
अब बात करें बहर(शेरों की लम्बाई) की
तो या बहर गेय नहीं लगती ...मतलब तरन्नुम पर नहीं कसी गयी है... और कहीं कहीं तो बहर दुरुस्त भी नहीं है जैसे
क्या बताऊँ उनको मैं जात अपनी
सिवा इंसानियत कोई जात नहीं आती ।
वैसे तो गज़ल में मात्राएँ न गिन के रुक्न का ध्यान रखा जाता है लेकिन अगर हिंदी पदों की तरह मात्राएँ गिनें तो पहले पद में 17 मात्राएँ और दुसरे पद में 23 मात्राएँ आती हैं .. जिससे बहर दुरुस्त नहीं रह पाई है
२- रुक्न या कह सकते हैं गज़ल की लय नहीं बन पाई है ... ये भी बहर के चुनाव के कारण हुआ है .. सरल शब्दों में इसे ताल पर नहीं बोल सकते हैं इस लिए रुक्न का ध्यान रखना चाहिए
३- एक बात और ये शेर देखिये
वो काम करते नहीं जब तलक
काम के बदले सौगात नहीं आती ।
इस शेर का अर्थ स्पष्ट नहीं हो रहा है और एक विरोधाभास सा लग रहा है ... और कोई रचना की सुंदरता इसी में है कि अपनी बात सबकी बात बन जाय
मै आपके बालक के सामान हूँ ... अल्पज्ञानी हूँ ...कृपया बिलकुल अन्यथा न लें ... ये सब मैंने अपने अल्पज्ञान और सहज बुद्धि से लिखा है ... किसी त्रुटि के लिए माफ़ी चाहूँगा
पदमसिंह जी , आपने दुरुस्त फ़रमाया ।
ReplyDeleteमात्राओं में अंतर नज़र आ रहा है ।
जैसा कि मैंने पहले ही कहा -यह एक प्रयास मात्र है । इसीलिए ग़ज़ल के जानकार लोगों के समक्ष त्रुटि सुधार के लिए रखा है।
दूसरा शेर रिश्वतखोरी पर लिखा है । आजकल बिना किसी सौगात के कोई काम करता ही नहीं ।
विस्तृत जानकारी के लिए दिल से आभार ।
बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteहिन्दी में नई कविता इन्हीं झंझटों से छुटकारा पाने का नाम था. जैसा आपको पसंद हो वैसा लिखें...कुछ नहीं रखा बेड़ियों में...बस बहने भर दें निर्बाध
ReplyDeleteडॉक्टर साहब, कविवर नीरज से मुलाक़ात करवाने का कर्ज़ था मुझपर, सोचा इसी बहाने उतार लूँ... वैसे ऐसे कर्ज़ ताउम्र रहें तो भी इंसान नहीं घबराता... आपकी ग़ज़ल पर बहर क़ायम करने की गुसताख़ी की है... इसी चक्कर में लफ्ज़ हेर फेर हो गए हैं... बुरा लगे तो मैंने पहले ही कान को हाथ लगा रखा है... बुज़ुर्ग हैं आपकी फटकार भी दुआ समझ कर क़बूल करूँगा... आशीर्वाद दें:
ReplyDeleteक्यूँ पसीने की बू गात आती नहीं
नींद उन्हें क्यूँ किसी रात आती नहीं.
काम करते नहीं जब तलक वो जनाब
काम के बदले सौग़ात आती नहीं.
क्या बताऊँ उन्हें ज़ात मेरी है क्या
छोड़ इंसानियत ज़ात आती नहीं.
नेता बन जाते हम बन सके ना मगर
छोड़कर सच कोई बात आती नहीं.
जज़्बा लड़ने का ‘तारीफ’ है तो बहुत
देनी शैतान को मात आती नहीं.
डा. साहिब, में शायर अथवा कवि तो नहीं, किन्तु जल की सतह पर फेंके पत्थर जैसे तरंग तो उठती ही है मन में, कविता बने न बने!
ReplyDeleteजब में कुछ स्वादिष्ट खाता हूँ
मेरी जिव्हा कहती है बहुत बढ़िया!
असर भले ही शरीर पर उल्टा पड़े उसका!
और जब सुनता हूँ कुछ कर्णप्रिय
तब भी जुबां ही कहती है अति सुंदर!
भले ही वो बात किसी अन्य को किसी कारण चुभ जाये!
ज्ञानी कह गए सोचता मन है सही-गलत!
और हुक्म भी वही देता है!
किन्तु दोष जुबां को ही मिलता है सदा!
@ संवेदना के स्वर :
ReplyDeleteआपकी ग़ज़ल पर बहर क़ायम करने की गुसताख़ी की है..॥
इस गुस्ताख़ी के लिए आभार । बढ़िया है।
@ जे सी जी :
ज्ञानी कह गए सोचता मन है सही-गलत!
और हुक्म भी वही देता है!
किन्तु दोष जुबां को ही मिलता है सदा!
बेशक । सही कहा है ।
ज़रा काज़ल कुमार जी की बात पर भी गौर फरमाएं ।
क्या बताऊँ उनको मैं जात अपनी
ReplyDeleteसिवा इंसानियत कोई जात नहीं आती ।
हर एक बन्द बहुत ही बढ़िया है!
--
शानदार गजल है!
मीटर में होने के बाद भी इस गज़ल को पढ़ने में वह मजा नहीं आया जो इधर लगातार प्रकाशित हो रही आपकी ज्ञानवर्धक और प्रेरक पोस्ट को पढ़ने से आ रहा था.
ReplyDeleteमुझे तो सिर्फ एक शेर दमदार लगा..
नेता हम भी बन जाते लेकिन
सच को छोड़ बात नहीं आती
...सरल शब्दों में बेहतरीन कटाक्ष है. इसी की टक्कर के सभी शेर हों तो बात बने.
बहुत अच्छे डा०साहब, लगे रहिये एक दिन आप बहुत खूबसूरत ग़ज़ल लिख कर हम लोगों को सुनायेंगे...
ReplyDeleteवाह...बहुत सुन्दर भाव हैं....
ReplyDeleteहमें तो पसंद आई बहुत!!व्याकरण अपनी जगह है.
ReplyDeleteमुझे ये नियम कानून तो पता नहीं बस इतना कह सकती हूँ की ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी
ReplyDeleteबहुत शानदार प्रयास.... आपने एक मुकम्मल ग़ज़ल लिखी है....
ReplyDeleteमुझे आपकी कविता अच्छी लगी हैं.
ReplyDeleteलेकिन, अगर बुरा ना माने तो एक बात कहूँ????
बेचैन आत्मा जी की बात से मैं सहमत हूँ.
कृपया कविता को जारी जरूर रखिये लेकिन ज्ञानवर्धक और प्रेरक पोस्ट्स मैं मुझे ज्यादा आनंद आता हैं.
एक सुझाव देना चाहूँगा कि-सिर्फ कविता मत लिखिए अपनी ज्ञानवर्धक और प्रेरक पोस्ट्स में ही कविता का उपयोग/समावेश कर लिया कीजिये)
धन्यवाद.
(अगर आपको बुरा लगा हो तो अडवांस में क्षमा चाहता हूँ)
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
बहुत ही सुन्दर, शानदार और भावपूर्ण ग़ज़ल लिखा है आपने जो प्रशंग्सनीय है! उम्दा प्रस्तुती!
ReplyDelete'तारीफ़' तो हम कर देते है डाक्टर साहब......
ReplyDeleteग़ज़ल की बारीकियां मगर हम को नहीं आती !
डा. साहिब, काजल कुमार जी की यही बात बचपन में एक लतीफे के माध्यम से भी सुनी थी:
ReplyDeleteकिसी एक ने किसी दूसरे से कहा "xट रे xट तेरे सर पर खाट"
तो दूसरे से उत्तर मिला, "xली रे xली तेरे सर पर कोल्हू!"
पहला बोला कि कविता तो बनी ही नहीं!
दूसरा बोला, "कविता बने न बने तेरे सर पर भार तो पड़ गया!" :)
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
ReplyDeleteखूबसूरत गजल भाई साहब
ReplyDeleteमजा आ गया
आपकी पोस्ट की चर्चा यहां भी है
“जहाँ न पहुंचे रवि / वहां पहुंचे कवि!”
ReplyDelete“बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी.”
लतीफे में सर पर अधिक भार डालने की बात से शायद किसी आधुनिक हिन्दू खोजी, अथवा सत्यान्वेषी, के मन में लहर उठे कि प्राचीन भारतीय खगोलशास्त्रियों ने सांकेतिक भाषा द्वारा समझाया था कि कैसे हमारी आकाश-गंगा, और उस की नक़ल सी करते पृथ्वी आदि अन्य गृह भी, अनादिकाल से अनंत शून्य में घूम रहे हैं… और आज हम भी इसे जान पाए हैं सत्य की खोज में लगे आधुनिक वैज्ञानिकों के माध्यम से,,, यद्यपि वो प्रकाश के स्रोत सूर्य को अधिक महत्व दे रहे हैं,,, जबकि उन्हें यह भी मालूम है कि अनंत तारा मंडलों से भरे ब्रह्माण्ड में हमारा सौर-मंडल एक छोटा सा ही किन्तु आश्चर्यजनक भाग है - (क्यूंकि इस में संपूर्ण ब्रह्माण्ड में हमारी सबसे सुंदर धरा स्थित है, जिसके धरातल पर 'हम' भी हैं!) - हमारी कृष्ण के तथाकथित सुदर्शन-चक्र समान घूमती अनंत आकाशगंगा का…
शेष कभी और...जिससे कोई यह न कह सके कि उनके पूर्वज अर्जित ज्ञान को अपने साथ ही ले गए, बाँट कर नहीं गए :)
sabhi sher bahut hi sundar.
ReplyDeleteपांचवें शेर पर अर्ज़ है...
ReplyDeleteबस यही अपराध हर बार करता हूं...
आदमी हूं, आदमी से प्यार करता हूं...
(डिस्कलेमर...यहां आदमी से आदमी को लेकर कोई दोस्ताना फिल्म जैसा किस्सा समझने की भूल न करे)
आभार इस कविता को प्रस्तुत करने का..अच्छी पोस्ट!
ReplyDeleteवो काम करते नहीं जब तलक
ReplyDeleteकाम के बदले सौगात नहीं आती
वर्तमान हालात यही है. शेर का मंतव्य तो बिलकुल स्पष्ट है.
बहुत सुन्दर रचना
शुक्रिया वर्मा जी , वर्तमान हालात को समझने के लिए उम्र का अनुभव तो चाहिए ।
ReplyDeleteदराल साहब,
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद घर आया तो सबसे पहले आप ही का ब्लाग खोला. ताज़ा प्रयास आइना दिखा गया, हमें हमारे स्वार्थ से भरे कर्मों का.
खासकर अंतिम शेर की तारीफ "तारीफ'' लायक है.
ज़ज्बा लड़ने का बहुत है `तारीफ`
शैतान को देनी मात नहीं आती ।
आ जाएगी, आ जायेगी, ज़रा दूसरे और चौथे शेरों की तरह जीना तो सीख लें हम.
बधाई कबूल फरमायें, यही हमारी सौगात है,
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
इतनी सारी पोस्ट डाल ली .....और हमें खबर तक नहीं .....दार्जलिंग मनाली की सैर ....नीरज जी साथ कवि सम्मलेन और आज ये अपनी ग़ज़ल ....वाह क्या बात है .....अब तो अगली पोस्ट में एक बढ़िया सी रोमानियत की ग़ज़ल हो जाये .....!!
ReplyDeleteनेता हम भी बन जाते लेकिन
ReplyDeleteसच को छोड़ बात नहीं आती ।
ज़ज्बा लड़ने का बहुत है `तारीफ`
शैतान को देनी मात नहीं आती ।
बेशक कहीं कहीं मात्राओं मे कुछ कमी पेशी है मगर प्रयास बहुत अच्छा है सम्झ लें श्री तिलक कपूर जी से सीखना शुरू किया है तो जरूर जल्दी सीख लेंगे। ये दो शेर गज़ब के हैं बधाई और शुभकामनायें
चंदर मोहन जी , आपका स्वागत है।
ReplyDeleteहरकीरत जी , बस एक और मौजूदा हालात पर ।
फिर रोमानियत की भी कोशिश करेंगे ।
शुक्रिया निर्मला जी । ज़ाहिर है , सीखने की कोई उम्र नहीं होती ।
Bhai ji, Nirantarata banae rakhe.....achhi gazalon ko padne ki bhi....bus..kahi to aap jaengi....shubhkamnaen....
ReplyDeleteजो हमने जाना, उसके अनुसार सबसे पहले तो उर्दू जुबाँ का अच्छा ज्ञान आवश्यक है (जिसके बारे में पता नहीं) और दूसरा, चुनिन्दा शब्दों द्वारा श्रोता (पाठक) के दिल को छू लेने की क़ाबलियत, जिसकी झलक डा. दराल के ब्लॉग में देखने को मिलती ही है... शुभ कामनाएं!
ReplyDeleteसुंदर ,सार्थक प्रयास ।
ReplyDeleteमैं गजल /गीत के शास्त्रीयता में नहीं पड़ता ,क्योंकी समझ भी नहीं है ।
मैं तो बस ये देखता हूं कि शब्द चयन ठीक हो और गुनगुनाया जा सके बस ।
नेता हम भी बन जाते लेकिन
ReplyDeleteसच को छोड़ बात नहीं आती ..
तकनीकी तो ग़ज़ल के जानकार ही बताएँगे ... पर मुझे तो डाक्टर साहब बहुत ही लाजवाब लगी आपकी ये ग़ज़ल .. मेरा मानना है जब तक अलग सोच है ... नयी सोच है .. ओरिजिनल सोच है ... रचना है ... शिल्प तो सीखा जाता है ... सोच नही ... आपकी ग़ज़ल का ये शेर बहुत ही कमाल का है...
बहुत समय बाद आपका ब्लाग देखा आपने बहुत अच्छी गजल लिखी है ।
ReplyDeleteगज़ल की समझ तो नहीं है मुझे लेकिन आपकी ये रचना अच्छी लगी
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