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Thursday, April 5, 2012

फूलों की तलाश में , भटकते रहे हम गुलशन गुलशन ---

रविवार का दिन था । श्रीमती जी कहने लगी --जी बहुत दिन हो गए , फूलों को देखे हुए । चलिए कहीं चलते हैं । मैंने कहा भाग्यश्री, ऱोज तो रोज को देखती हो , फिर कहती हो , फूल नहीं देखे बोली , नहीं जी वो वाला नहीं ,वो वाले । हम समझ गए कि मेडम को पार्क घुमा कर लाना पड़ेगा ।
गाड़ी निकाली और पहुँच गए घर के सबसे पास वाले पार्क --मिलेनियम पार्क में । लेकिन डेढ़ किलोमीटर लम्बे पार्क में पार्किंग के लिए डेढ़ सौ गज ज़मीन भी नहीं थी । जाने क्या सोचा था होर्टीकल्चर डिपार्टमेंट ने । या शायद सोचा ही नहीं ।
खैर , हमने सोचा चलो पुराना किला चलकर बोटिंग करते हैं । यहाँ पार्किंग चिड़िया घर के सामने ही मिलती है । गेट पर पहुंचे तो पार्किंग अटेंडेंट ने पूछा --कहाँ जाना है । हमने कहा -- बोट क्लब । बोला ज़नाब --सब बंद हो चुके हैं --ज़ू भी , पुराना किला भी और बोट क्लब भी । सब साढ़े पांच बजे बंद हो जाते हैं । अज़ीब लगा लेकिन फिर सोचा --चलो चिल्ड्रन्स पार्क चलते हैं इण्डिया गेट पर । वैसे भी वहां बहुत हरियाली होती है ।

रास्ते में ये फूल नज़र आए तो हमने श्रीमती जी को दिखाकर अपना वायदा पूरा किया ।


लेकिन चिल्ड्रन्स पार्क के गेट पर पहुंचे तो गेट बंद पाया । हमने सामने बैठे चौकीदार से पूछा तो पता चला यह भी साढ़े पांच बजे बंद हो जाता है । खीजकर हमने उसी पर सारा गुस्सा निकाल दिया । फिर सोचा , चलो बाहर से ही कुछ फोटो लिए जाएँ अपने मोबाईल से ।



प्ले एरिया ।



मुख्य प्रवेश द्वार से एक नज़ारा ।



यह भी । दूर से ही देख , हम निकल पड़े इण्डिया गेट की ओर । शाम का धुंधलका हो चुका था ।



पश्चिम में सूरज डूब रहा था ।



डूबते सूरज की चमक , इण्डिया गेट की प्रष्ठ भूमि में ।



एक पेड़ के साथ भी ।



इण्डिया गेट पर भी एक बोट क्लब है । हालाँकि फव्वारा बंद था ।



श्रीमती जी की बड़ी तमन्ना थी कि बोटिंग की जाए , लेकिन भीड़ इतनी ज्यादा थी कि कई घंटे का इंतजार करना पड़ता ।
इसलिए विचार त्याग दिया । इस बीच मेडम चना जोर गर्म ले आई । हमने श्रीमती जी से कहा --क्यों न चने खाते हुए एक फोटो हो जाए । लेकिन हमारी गाय्नेकोलोजिस्ट पत्नी के हाथ भले ही महिलाओं के पेट काटते हुए कभी नहीं कांपते , परन्तु हमारी फोटो खेंचते हुए ऐसे कांपे कि फोटो में हमारी जगह हमारा भूत नज़र आ रहा था ।



अब तक लाइट्स जल चुकी थी । सामने यह ठूंठ देखकर बड़ा अचरज़ हुआ ।



एक फोटो पीछे से लेकर हम निकल पड़े घर की ओर । लेकिन मेडम की पसंद की आलू कचालू चाट , और आईस क्रीम खाने के बाद ।

नोट : ऐसा लगता है , सुरक्षा की दृष्टि से सभी पब्लिक एरिया जल्दी बंद कर दिए जाते हैंहालाँकि गर्मियों में घर से शाम को ही निकला जा सकता है

Tuesday, April 3, 2012

क्या एक आम आदमी को अपने ही घर में शांति के साथ रहने की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार नहीं होना चाहिए--


बचपन में गाँव में रहते थेबाद में शहर आने के बाद भी गर्मियों की छुटियाँ गाँव में ही बीततीमई जून के महीने गाँव में शादियों के दिन होते थेइसका कारण यही रहा होगा कि अप्रैल मई तक सारी फसल कटकर , घर में गेहूं के रूप में जाती थी जिसमे से कुछ हिस्सा बेचकर कुछ पैसे हाथ में जाते थेफिर होती थी शादी की तैयारियां

उन दिनों मनोरंजन के नाम पर भजनी बुलाये जाते थेभजनी यानि संगीत मंडली जिसमे सब पुरुष होते थे जो क्षेत्रीय भाषा में क्षेत्रीय लोक गीत और कहानी किस्से सुनातेइनमे प्रमुख होते थे राजा हरीश चन्द्र का किस्सा , नल दमयंती का किस्सा आदि आदि


उस दिन गाँव के दो मोहल्लों में एक ही दिन दो शादियाँ थी । उस
दिन भी दोनों परिवारों ने भजनी बुला रखे थेदोनों खेमे करीब १०० मीटर के फासले पर जम गए और शुरू हो गया गानों का दौरसारी रात निकल गई , लेकिन दोनों मंडलियों ने बंद करने का नाम नहीं लियाजिद यही थी कि कौन पहले हार मान ले

गाँव के भोले भालेअनपढ़ लोग इस प्रतिस्पर्धा का भरपूर आनंद लेते रहेहालाँकि एक पार्टी में हम भी शामिल थेआखिर पौ फटनेके साथ ही दोनों का शोरगुल बंद हुआलेकिन किसी को कोई शिकायत नहीं थी

शहर में :

स्कूल के दिनों में घर के पास एक गुरुद्वारा थाजहाँ रोज सुबह लाउड स्पीकर पर गुरबाणी सुनने को मिलतीबोले सो निहाल का नारा पहली बार तभी सुना थालेकिन नींद में विघ्न पड़ता था
इसलिए लोगों की शिकायत पर लाउड स्पीकर को बंद कर दिया गया

दिल्ली में हर कॉलोनी में एक मस्जिद भी होती है जहाँ रोज अज़ान की जाती हैयहाँ भी लाउड स्पीकर का प्रयोग प्रतिबंधित है

गिरजाघर में तो वैसे ही परम शांति का वास रहता है

१ अप्रैल २०१२ :

कल से हमारी सोसायटी के दायीं ओर से एक अखंड पाठ की आवाज़ रही थीआज रामनवमी को बायीं ओर से संगीत की आवाज़ आने लगी
पहले धुन शुरू हुई --तुम अगर साथ देने का वादा करो -- हमने सोचा सुबह सुबह किस का मूड रोमांटिक हो गया । लेकिन फिर जाना कि यह तो फ़िल्मी धुन पर भजन गाया जा रहा हैपहले तो सारी रात पाठ ने नींद ख़राब की , फिर सुबह से ऐसा आलम पैदा हुआ कि हमें वही गाँव का दृश्य नज़र आने लगाऐसा लग रहा था जैसे कोई कॉम्पिटिशन हो रहा होसबसे ख़राब बात तो यह रही कि एक छोटा सा शामियाना लगाकर एक नौकर गानों के टेप बदलता जा रहा था और कोई सुनने वाला भी नहीं था

दोनों कानों से अलग अलग संगीत सुनते सुनते कान पक चुके हैं -- दोपहर होने को आई लेकिन कोई थकने का नाम ही नहीं ले रहा । सारे खिड़की दरवाज़े बंद कर देता हूँ -- शोर कुछ कम लगता है -- श्रीमती जी ने रामनवमी के अवसर पर विशेष भोजन की व्यवस्था की है -- देसी घी का हलवा , पूरी भाजी और काले चने ।
शुद्ध सात्विक भोजन देखकर मन प्रसन्न हो गया --एक पल के लिए आँखें बंद कर ईश्वर का धन्यवाद किया --फिर सभी प्रतिबन्ध भूलकर डटकर खाया --जल्दी ही उसका असर आने लगता है और मैं सो जाता हूँ , वहीँ कार्पेट पर , टी वी के सामने ।

दो घंटे बाद नींद खुलती है -- बायीं ओर का शोर अब बंद हो चुका है -- दायीं ओर से आती हुई आवाज़ अब थक चुकी है -- फटी फटी सी बेसुरी आवाज़ -- गाँव का वो किस्सा याद आने लगता हैअखंड पाठ में घर के लोग बारी बारी बैठते हैं -- गायक मंडली भी बारी बांध लेती है -- लेकिन वाद्य यंत्र कभी नहीं थकते -- इन्सान नहीं हैं ना -- अब बस हौर्मोनियम की आवाज़ आ रही है --- पुराने हिंदी फिल्म के एक रोमांटिक गाने की धुन -- इक परदेसी मेरा दिल ले गया -- अब कोई नहीं पहचान सकता , भजन है या फ़िल्मी गीत - - वाद्य यंत्र संगीत के साथ छेड़ छाड़ नहीं करते -- इन्सान नहीं हैं ना

शाम के ६ बज चुके हैं -- मैं तैयार होने लगता हूँ --- आज शाम ७ बजे डॉक्टर्स की एक मीटिंग है -- नवरात्रे ख़त्म जो हो गए हैं ।