एक साल में तीन चुनाव,
हर चुनाव में जागती एक उम्मीद।
कि तीन सालों से टूटी सड़कें,
अब तो सज संवर ही जाएंगी।
चंबल के बीहड़ों सी ऊबड़ खाबड़,
बारिशों में बरसाती नाला बनी सड़कें,
सावन आने से दस दिन पहले,
आखिर संवर ही गईं,
बिटुमन की काली चादर ओढ़कर।
ठेकेदार अब रोज मंदिर जाता है,
प्रसाद चढ़ाकर दुआ मांगता है,
पेमेंट होने तक सड़क की सलामती की।
आखिर अगले ही दिन,
सड़क की सतह पर उभर आईं थीं रोड़ियां।
दुनिया में परमानेंट कुछ भी नहीं,
फिर ये तो बेचारी इमरजेंसी सड़क है,
भ्रष्ट अफसरों द्वारा बनाई गई,
भ्रष्ट नेताओं की लाज रखने के लिए।
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteसुन्दर
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