रोज़ सोचते हैं
कल बदल लेंगे,
रोज़ थोड़ा और निकल आता है।
इस और और के चक्कर में,
इंसान का सारा
जीवन ही निकल जाता है।
और अनंत है
असंतुष्टि का घर है,
किंतु यह बात
जाने क्यों
नादाँ इंसान
समझ नहीं पाता है।
जो इंसान
इस और को
काबू कर संतुष्टि पा ले,
वही इंसान
सही मायने में
सात्विक कहलाता है।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 07 सितम्बर 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार 🙏🏻
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ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(०७ -०९-२०२१) को
'गौरय्या का गाँव'(चर्चा अंक- ४१८०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
शुक्रिया जी। 🙏🏻
Deleteवाकई थोड़े थोड़े मे जीवन निकल जाता है ।
ReplyDeleteअलबत्ता कल तो कभी आता नहीं, पर एक कल आज बन कर ऐसा आता है..और सब यहां ही धरा का धरा रह जाता है !
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर सटीक व सराहनीय रचना |
ReplyDeleteशब्दशः सत्य ।
ReplyDeleteजी सही दृष्टि, बुद्ध बनने के लिए दृढ़ता से अंदर उतर कर अवलोकन आवश्यक है।
ReplyDeleteयथार्थ रचना।
आभार आप सभी का ।
ReplyDeleteये कल ही तो नहीं आता । रोज़ रोज़ करते वक़्त निकल जाता है ।
ReplyDeleteबेहतरीन रचना ।
बहुत ही सुंदर और सटीक रचना!
ReplyDeleteपसंद करने के लिए आप सभी का बहुत बहुत आभार।
ReplyDeleteये कल ही तो नहीं आता । रोज़ रोज़ करते वक़्त निकल जाता है । बेहतरीन रचना ।
ReplyDeleteFree me Download krein: Mahadev Photo | महादेव फोटो