दुनिया में
अपनी प्रजाति का अस्तित्व
बनाये रखने को
जीव जंतु,
जलचर, या रहते हों भू पर,
बच्चे या अंडे देते हैं,
तिनका तिनका जोड़
घर बनाकर,
सेंकते हैं,
अपने जिस्म की ऊर्जा से।
पालते हैं बड़ी मेहनत से ,
जुटाते हैं चारा
अपनी जान जोखिम में डालकर।
फिर एक दिन वही बच्चे
बड़े होकर
चल देते हैं अपने रास्ते
एक स्वतंत्र जीवन बिताने को।
मादा फिर तैयार होने लगती है
प्रसूति के
अगले दौर के लिए।
इंसान भी
हर मायने में
होता है इन जैसा ही।
फ़र्क बस इतना है,
वह एक बार की औलाद को,
पालता पोषता है,
अठारह साल तक।
कभी कभी अठाईस तक भी,
फिर एक दिन वे भी
उड़ जाते हैं
ऊँची और लम्बी उड़ान पर।
एक आज़ाद ज़िंदगी की चाह में।
सुकून बस यही रहता है,
कि देर से ही सही,
आ जायेंगे एक बार ज़रूर,
जब होगी ज़रुरत।
बस यही फ़र्क है,
इंसान और जीव जंतुओं की
फ़ितरत में।
आखिर, इंसान भी तो
इन्हीं से विकसित होकर
इंसान बना है।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २ सितंबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
जी आभार ।
Deleteक्या कहूँ
ReplyDeleteजरूरत पर आने की उम्मीद ही तो हमें इंसान बनाए रखती है । यथार्थ सृजन ।
ReplyDeleteइंसान और जीव जंतुओं की
ReplyDeleteफ़ितरत में।
आखिर, इंसान भी तो
इन्हीं से विकसित होकर
इंसान बना है।
उत्कृष्ट रचना....
और अब दिन आ गए हैं कि इंसान फिर से जीव जंतु की तरह विचार करे ।। जब बच्चे उड़ जायँ दूर तो ये उम्मीद बिल्कुल न रखे कि जब हम चाहेंगे तब आ जायेंगे हमारे पास ।
ReplyDeleteअब तो यही मज़बूरी होने लगी है। :)
Deleteइंसान और जीव जंतुओं की
ReplyDeleteफ़ितरत में।
आखिर, इंसान भी तो
इन्हीं से विकसित होकर
इंसान बना है।
पर इंसान ही है जो इस आशा में पालता है कि आयेंगे जरूर जरूरत पर..ये स्वार्थ भी तो हो सकता है न...तो हम इंसान अपनी औलादों को स्वार्थ वश पालते हैं...फिर तो हम से बेहतर हैं सभी जीव जन्तु।
बहुत सुन्दर सृजन।
जी सही कहा। हम विकसित होकर स्वार्थी हो गए। या यूँ कहिये हमने अपने सुख साधन के नए आयाम खोज लिए।
Deleteहृदयस्पर्शी सृजन।
ReplyDeleteसच यही है।
सादर