1.
हर साल होली पर मिलते थे हर एक से गले,
इस साल गले मिलने वाले वो गले ही नहीं मिले।
कोरोना का ऐसा डर समाया दिलों में,
कि दिलों में ही दबे रह गए सब शिकवे गिले।
2.
कोरोना का कहर जब शहर में छाया ,
हमें तो वर्क फ्रॉम होम का आईडिया बड़ा पसंद आया।
किन्तु पत्नी को देर न लगी ये बात समझते ,
कि घर तो क्या हम तो ऑफिस में भी कुछ काम नहीं करते।
3.
हम भी वर्क फ्रॉम होम का मतलब तब समझे ,
जब पत्नी ने कहा कि अब ये सुस्ती नहीं चलेगी।
उठो और हाथ में झाड़ू पोंछा सम्भालो,
आज से कामवाली बाई भी वर्क फ्रॉम होम ही करेगी।
4.
लॉकडाउन जब हुआ तो हमने ये जाना ,
कितना कम सामां चाहिए जीने के लिए।
तन पर दो वस्त्र हों और खाने को
दो रोटी ,
फिर बस अदरक वाली चाय चाहिए
पीने के लिए ।
पैंट कमीज़ जूते घड़ी सब टंगी पड़ी
बेकार ,
बस एक लुंगी ही चाहिए तन ढकने
के लिए ।
कमला बिमला शांति पारो का क्या
है करना ,
ये बंदा ही काफी है झाड़ू पोंछा
करने के लिए।
आदमी तो बेशक हम भी थे काम के 'तारीफ़',
किन्तु घर बैठे हैं केवल औरों
को बचाने के लिए।
चलिए कोरोना के कारण कुछ तो काम समझ आया घर का, नहीं तो ऑफिस-ऑफिस खेलते दिन कैसे निकल रहे थे कोई नहीं जान पाता
ReplyDeleteबहुत अच्छी सामयिक प्रस्तुति
धन्यवाद जी ।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (23-12-2020) को "शीतल-शीतल भोर है, शीतल ही है शाम" (चर्चा अंक-3924) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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धन्यवाद शास्त्री जी ।
Deleteकोरोना काल का सटीक विश्लेषण।
ReplyDeleteधन्यवाद जी ।
Deleteमजेदार ।
ReplyDeleteधन्यवाद जी । :)
Deleteसुंदर सृजन सामायिक विषय सटीक लेखन।
ReplyDeleteधन्यवाद जी ।
Deleteसुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteधन्यवाद जी ।
Deleteकोरोना काल के बदलावों को दर्शाती सुंदर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteThanks.
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