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Saturday, August 1, 2020

कोरोना काल की ज़िंदगी - एक अनुभव:


कोरोना एपिडेमिक के कारण . ठहरी हुई ज़िंदगी को १२५ दिन पूरे हो चुके हैं। इन १२५ दिनों में जिंदगी की गाड़ी ऐसे हिचकौले खाते हुए चली है जैसे गाड़ी का एक पहिया टूटने पर गाड़ी चलती है।  कभी आशा, कभी निराशा, कभी डर, कभी राहत के अहसासों के बीच झूलते हुआ अब जाकर बेचैनी कुछ कम हुई है जब दिल्ली में कोरोना संक्रमण के केस कम होने लगे हैं, हालाँकि देश में कुल केस दिन प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं जो काफी चिंताज़नक बात लगती है।

मार्च के महीने में जब लॉक डाउन घोषित हुआ, तब सब घरों में जैसे कैद से हो गए।  लेकिन हमारा तो क्वारेंटीन  पहले ही आरम्भ हो चुका था क्योंकि बेटा लन्दन से घर वापस आया था और सरकार के आदेश अनुसार उसके साथ सभी घरवालों को १४ दिन क्वारेंटीन में रहना था। आरम्भ में इस रोग के बारे में किसी को कोई ज्ञान नहीं था।  इसलिए सरकार की ओर से भी रोजाना सुबह शाम निर्देश ज़ारी किये जा रहे थे। जनता में भी सही जानकारी के अभाव में अफवाहों का बाजार गर्म था।  ऐसे में १४ दिन का क्वारेंटीन कब २८ दिनों में बदल गया , पता ही नहीं चला, क्योंकि जितने मुंह, उतनी बातें होती थीं। इसी कारण सोसायटी के लोगों में डर और अविश्वास के रहते, तरह तरह की बातें सुनी जाने लगीं। लोग डॉक्टर या स्वास्थ्यकर्मी के नाम से ही डरने लगे थे।  कुछ तो अनाप शनाप बातें भी करने लगे थे।  कहीं कहीं तो स्वास्थ्यकर्मियों को घर में ना घुसने देने के समाचार भी आने लगे थे।  अंतत: जब सरकार ने निर्देश निकाला कि स्वास्थ्यकर्मियों के साथ बदसलूकी करने वालों के विरुद्ध कार्रवाई की जाएगी और जेल भी हो सकती है, तब कहीं जाकर लोगों का व्यवहार ठीक हुआ।  कुछ हद तक हमें भी इस दौर से गुजरना पड़ा।  लेकिन अनुभवी और वरिष्ठ होने के कारण हमने जल्दी ही स्थिति को संभाल लिया और सोसायटी के अध्यक्ष को पत्र लिख कर वास्तविक स्थिति से अवगत कराया और सोसायटी के निवासियों को कोरोना से बचाव से सम्बंधित जानकारी वितरित कराई।   

लॉक डाउन और क्वारेंटीन का आरंभिक एक महीना बड़ी कशमकश में बीता। उस समय इंग्लैण्ड में कोरोना तेजी से बढ़ रहा था, इसलिए वहां से आने वाले यात्रियों में संक्रमण की सम्भावना बहुत ज्यादा दिखाई देती थी। दूसरी ओर अस्पतालों में भी सम्पूर्ण और उचित चिकित्सीय व्यवस्था का अभाव था। ऐसे में यही डर सताता था कि यदि संक्रमण हुआ तो घर बार को छोड़कर सभी को अस्पताल या कोविड सेंटर में भर्ती होना पड़ेगा। यह भी विदित था कि इस रोग में सबसे ज्यादा हानि वरिष्ठ नागरिकों को ही होती है।  हालाँकि भारत में कोरोना की मृत्यु दर ३% के आस पास रही है, लेकिन ६० वर्ष की आयु से ऊपर वालों में यह दर ६ % से भी ज्यादा है। भले ही वरिष्ठ लोगों में भी केवल ६% की ही मृत्यु होती है , लेकिन मृत लोगों में आधे से ज्यादा ६०+ वाले लोग ही हैं।  यही सबसे ज्यादा चिंताजनक बात रही। बहुत से केस ऐसे सुनने में आ रहे थे कि किस तरह किसी को बुखार हुआ और एक दो दिन बात मृत्यु हो गई। वैसे तो मृत्यु एक वास्तविकता ही है , इसलिए मृत्यु से कैसा घबराना।  लेकिन इस तरह बिना बात बैठे बिठाये चले जाना किसी को भी गंवारा नहीं हो सकता।     

कहते हैं, इग्नोरेंस इज ब्लिस। यानि यदि आप अनभिज्ञ हैं तो आप सुखी हैं।  हमारे साथ यही प्रॉब्लम थी कि दोनों डॉक्टर होने के कारण  हम थर्ड ईयर सिंड्रोम से ग्रस्त थे। हर तरफ़ अदृश्य कोरोना ही कोरोना दिखाई देता था। लेकिन लॉक डाउन में यह तो समझ में आता था कि जब तक घर में ही हैं,तब तक सुरक्षित हैं ।  एक और अच्छी बात यह रही कि क्वारेंटीन के दौरान सोसायटी ने प्रबंध कर दिया था कि रोजमर्रा की ज़रुरत की चीजें गार्ड द्वारा सीधे घर पहुंचा दी जाती थीं।  इस मामले में पड़ोस में अकेली अकेली रहने वाली दो वृद्ध महिलाओं ने भी यथासंभव सहायता प्रदान की। ज़ाहिर है, बाद में अब हम उनका ध्यान रख रहे हैं।

महीनों लगातार घर में बंद रहकर अहसास हुआ कि कैद क्या होती है, हालाँकि जेल और घर में बहुत फर्क है।  लेकिन जब आपकी स्वतंत्रता पर अंकुश लग जाये और आप समाज से, सगे सम्बन्धियों से और सम्पूर्ण विश्व से अलग होकर मात्र आभासी संपर्क में ही रह पाएं तो भले ही जीवन भौतिक रूप से ज्यादा कष्टदायक नहीं लगता, लेकिन देर सबेर आपको मानसिक रूप से बेचैनी सी होने लगती है, क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और अकेले जीवन जीने वाले समय से आगे बढ़ चुका है।  यही कारण है कि दीर्घकालीन लॉक डाउन में बहुत से लोगों को मानसिक विकार पैदा होने लगते हैं।
डर और डर का निवारण -- क्रमश:अगली पोस्ट में .... 


2 comments:

  1. शब्द नहीं है, पर आभार व्यक्त करना चाहता हूं
    मौका मिला, तो आपसे मिलना चाहता हूं।

    पहली बार आपके ब्लॉग में आया हूँ, अच्छा लगा आपको पढ़ के
    आभार

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