top hindi blogs

Wednesday, August 5, 2020

कोरोना के इफेक्ट्स और बचने के उपाय --


कोरोना काल अनुभव भाग २ :

हमने देखा है कि इंसान डर से ही डरता है। डर चोर डाकुओं का हो, या चोट लगने का , सज़ा का हो, बीमारी का हो या मृत्यु का।  कोरोना एपिमेडिक ही ऐसा संक्रमण है जिसमे डर जितना मृत्यु का है, उतना ही बीमारी का भी रहा। इसका कारण यह था कि यह एक नया रोग होने के कारण लोगों में और चिकित्सकों में भी इसकी जानकारी लगभग न के बराबर थी। इस कारण इसके उपचार में न केवल उचित सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थी, बल्कि हर दिन सरकार के निर्देश भी बदल जाते थे। आम जनता के मन में भय था कि यदि संक्रमण हो गया तो डॉक्टर्स न जाने कहां भर्ती करके रखेंगे।  इसलिए लोग संक्रमण को छुपाने लगे थे। घर से बाहर अनजान जगह रहने और बाल बच्चों को छोड़ने का डर सबको सताता था। यदि आई सी यू में भर्ती करना पड़ा तो घरवाले शक्ल देखने को भी तरस जाते थे। मृत्यु होने पर तो सरकारी कर्मचारी ही दाह संस्कार कर देते थे और घरवाले अंतिम दर्शन को भी तरस जाते थे।  इस कारण लोगों में दहशत रहती थी।   

लगभग ढाई महीने के लॉक डाउन काल में घर से बाहर बस इतना निकलना होता था कि रोज सुबह कोई एक सदस्य गेट तक जाकर दूध ले आता था।  बाकि सामान भी गेट पर ही सप्लाई होता था।  बाहर जाने की चप्पलें अलग होती जिन्हे बाहर वाले कमरे में ही निकाल दिया जाता। मास्क पहनकर किसी भी वस्तु से  लिफ्ट का बटन दबाकर जाते और वापस आते ही हाथ धोना एक आदत सी बन गई। दूध की थैलियों को सोप सोल्युशन से धोया जाता और कपडे की थैली को भी धोना पड़ता।

लेकिन डॉक्टर्स और स्वास्थ्यकर्मियों के लिए लॉक डाउन तो जैसे था ही नहीं। कम ही सही लेकिन अस्पताल जाना पड़ता तो श्रीमती जी तो ऐसे तैयार होती जैसे चाँद पर जा रही हों। सावधानी बरतने के मामले में उनका कोई सानी नहीं था। सबसे बड़ी बात ये थी कि वे हमें प्रोटेक्ट करती रही। इसलिए अस्पताल से वापस आते समय दुकान से सारा सामान खुद ही खरीद लाती और हमें बुजुर्ग समझकर घर से बाहर निकलने ही नहीं देती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारा रोल रिवर्सल हो गया।  यानि अब श्रीमती जी घर के बाहर के काम करती और हम घर संभालते। कहने को हम वर्क फ्रॉम होम कर रहे थे लेकिन असल में वर्क एट होम करना पड़ रहा था।  इसका एक परिणाम यह भी निकला कि अब हम भी गृह कार्य में दक्ष हो गए।       



क्योंकि कामवाली बाई भी वर्क फ्रॉम होम कर रही थी, इसलिए झाड़ू पोंछा, बर्तन मांजना यहाँ तक कि खाना बनाने का काम भी हम ही करने लगे। 

लॉक डाउन में सबसे ज्यादा परेशानी ये थी कि दिन भर खाने और टी वी देखने के अलावा कोई काम नहीं था। पार्क की सैर या जिम जाने का तो सवाल ही नहीं था। इसलिए बहुत से लोग इन दिनों में मोटापे के शिकार हो गए। शारीरिक श्रम या व्यायाम न होने से ब्लड शुगर और बी पी बढ़ना स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। लेकिन हमने न केवल वज़न को बढ़ने नहीं दिया, बल्कि वज़न कई किलो घटा लिया। सारे कपडे ढीले हो गए, पैंट कमर में टिकनी बंद हो गई , इस तरह खिसकने लगी जैसे लो वेस्ट की जींस। लेकिन यह अपने आप नहीं हुआ।  इसके लिए हमने बड़ी मेहनत की। रोजाना एक घंटा एक्सरसाइज करना एक रूटीन सा बन गया। जिसमे:   



                                                                           योगा

                                                         
                                                                 स्ट्रेचिंग एक्सरसाइजेज





और डांस की भूमिका मुख्य रही।  एक घंटा पसीना बहाकर तन और मन दोनों चुस्ती और स्फूर्ति से भर जाते थे।  सभी मित्रों और रिश्तेदारों से दूर लॉक डाउन में घर में बंद रहकर, मानसिक तनाव और बेचैनी होना भी एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। ऐसे में बहुत से लोगों को मानसिक विकार पैदा हो जाते हैं।  चिड़चिड़ापन, नींद न आना , बात बात पर झगड़ना आदि हरकतें इस दौरान बहुत देखने में आईं। इससे बचने के लिए आवश्यक होता है कि आप अपने आप को व्यस्त रखें, कुछ ऐसे काम करें जो समय के आभाव में पहले नहीं कर पा रहे थे, नए शौक बनायें या पुराने शौक पूरे करें। हमने भी सोशल डिस्टेंसिंग रखते हुए सोशल साइट्स पर खूब सोशियलाइज किया।  कवितायेँ लिखी , ऑनलाइन काव्य पाठ किये , गाने गाये , डांस सीखे और किये और कई तरह के वीडियोज बनाकर सोशल साइट्स पर डाले।       



और जो लोगो में स्मार्ट फोन आने के बाद पिछले कई सालों में लोगों में नया शौक जगा है सेल्फी लेने का , हमने भी जमकर सेल्फी ली। 

अगले भाग में कोरोना से बचने के तौर तरीके।  क्रमशः ... 

3 comments:

  1. मस्ते,

    आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 6 अगस्त 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!


    ReplyDelete