फेसबुक पर हम इतना झूल गए,
के कविता ही लिखना भूल गए।
जिसे देनी थी जीवन भर छाया ,
उस पेड़ को सींचना भूल गए।
मतलब में अपने कुछ ऐसे डूबे,
देश पर मर मिटना भूल गए ।
नींद में देखते रहे जिसे रात भर ,
आँख खुली तो वो सपना भूल गए।
बड़े भोले थे जाल में जा फंसे ,
फंसे तो पर निकलना भूल गए।
आँखों पर ऐसा पर्दा पड़ा यारो,
भीड़ में कौन है अपना भूल गए।
के कविता ही लिखना भूल गए।
जिसे देनी थी जीवन भर छाया ,
उस पेड़ को सींचना भूल गए।
मतलब में अपने कुछ ऐसे डूबे,
देश पर मर मिटना भूल गए ।
नींद में देखते रहे जिसे रात भर ,
आँख खुली तो वो सपना भूल गए।
बड़े भोले थे जाल में जा फंसे ,
फंसे तो पर निकलना भूल गए।
आँखों पर ऐसा पर्दा पड़ा यारो,
भीड़ में कौन है अपना भूल गए।
कुछ टिके हुए हैं बरसों से,वे नाम आप भी भूल गए!
ReplyDelete:)
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (27-09-2019) को "महानायक यह भारत देश" (चर्चा अंक- 3471) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। --हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 26 सितंबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार।
Deleteमतलब में अपने कुछ ऐसे डूबे,
ReplyDeleteदेश पर मर मिटना भूल गए ।
बहुत सुन्दर...
वाह!!!
आभार। :)
Deleteये देखिए आज कुछ हुआ है ऐसा अजूबा
ReplyDeleteफ़ेसबुक के बुद्धू लौट के ब्लॉग में आ गए
कॉलेज के दिनों में पड़ी सिगरेट की लत बाद में मुश्किल से छूटी थी। अब फेसबुक की लत को छोड़ने में मशक्कत हो रही है। पर कोशिश ज़ारी है।
Deleteबहुत सार्थक उल्हाना,, अइयो अब लौट आइए ।
ReplyDeleteदेर आए दुरुस्त आए आदरणीय।
अच्छा विचार है। धन्यवाद।
Deleteबहुत खूब... ,सादर नमस्कार
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 03 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह सच ही सच | सचमुच यही हाल है सबका | आभार और शुभकामनाएं आदरणीय सर |
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