हालाँकि आजकल मनुष्य की औसत आयु ( लाइफ एक्सपेक्टेंसी एट बर्थ ) लगभग ७० वर्ष है , लेकिन मनुष्य की जिंदगी कब गुजर जाती है , पता ही नहीं चलता। देखते देखते जवानी बीत जाती है , बच्चे बड़े होकर अपने काम धंधे पर लगकर अपनी अलग गृहस्थी बसा लेते हैं। अक्सर ६० वर्ष की आयु तक आते आते अधिकांश लोगों की सांसारिक जिम्मेदारियां पूर्ण हो जाती हैं। और घर में रह जाते हैं सेवा निवृत पति पत्नी। इस उम्र में इंसान के खर्च भी बहुत कम हो जाते हैं। खाने पर , कपड़ों पर तथा अन्य खर्च कम से कम होते हैं। ज़ाहिर है , इस समय तक इंसान की आवश्यकताएं न्यनतम रह जाती हैं।
लेकिन देखा गया है कि फिर भी इंसान की पैसे की भूख कम नहीं होती। धन कमाने की होड़ ऐसे लगी रहती है जैसे अगले जन्मों के लिए भी अभी से जोड़ कर रख लेंगे। भले ही मनुष्य की जिंदगी की अवधि बढ़ गई है लेकिन जिम्मेदारियां पूर्ण होने के बाद जो भी धन कमाया जाता है, वह अक्सर आवश्यकता से अधिक ही होता है और स्वयं के काम आने की सम्भावना बहुत कम ही होती है। लेकिन लालच की प्रवृति मनुष्य को यह समझने नहीं देती और हम अंधाधुंध पैसे के पीछे दौड़ लगाते रहते हैं।
बहुत कम लोग होते हैं जो पैसा कमाते भी हैं और उसका उपयोग भी कर पाते हैं। ज्यादातर तो जोड़ जोड़ कर खुश होते रहते हैं, या जगह जगह प्रॉप्रटी बनाकर गर्वान्वित महसूस करते रहते हैं। अक्सर ये प्रॉपर्टीज भी यूँ ही खाली पड़ी रहती हैं , और उनके रख रखाव का काम और बढ़ जाता है। बच्चे अक्सर बड़े होकर बाहर निकल जाते हैं और रह जाते हैं बुजुर्ग जिनके जब तक हाथ पैर चलते हैं , वे चिपटे रहते हैं धन दौलत से। फिर एक दिन सब यहीं रह जाता है, अंजान बेकद्र सा।
लेकिन इंसान की समझ में यह बात नहीं आती। बहुत कम लोग अपनी जिंदगी से संतुष्ट नज़र आते हैं। काश हम यह समझ सकें तो आधा भृष्टाचार तो स्वयं ही समाप्त हो जाये। लेकिन भृष्टाचार को ख़त्म कौन करना चाहता है , यह तो जिंदगी का एक अहम हिस्सा बन गया है। जब तक इंसान की सोच नहीं बदलेगी ,तब तक यह यूँ ही पनपता रहेगा और हम जीते रहेंगे एक मृग मरीचिका के पीछे दौड़ते हुए।
No comments:
Post a Comment