top hindi blogs

Sunday, April 6, 2014

कुछ रिश्तों का कोई नाम नहीं होता -- भूली बिसरी यादें ...


तब हम नए नए डॉक्टर बने थे . ऊर्जा , जोश और ज़वानी के उत्साह से भरपूर दिल , दिमाग और शरीर मे जैसे विद्युत धारा सी प्रवाह करती थी . काम भी तत्परता से करते थे . सीखने की भी तमन्ना रहती थी . उन दिनों ६ महीने का पहला जॉब सर्जरी डिपार्टमेंट मे किया था . सप्ताह मे दो दिन ओ पी डी होती थी, दो दिन वार्ड मे काम और दो दिन ओ टी जाना होता था . ऐसी ही किसी एक ओ पी डी मे एक दिन एक युवा लड़की अपनी मां के साथ दिखाने आई . सांवली सलोनी सी , घबराई सी , उम्र यही कोई १८ वर्ष . सिख परिवार से थी . उसके एक स्तन मे गांठ थी जिसके उपचार के लिये आई थी . हमने उसे एग्जामिनेशन रूम मे जाकर स्तन दिखाने के लिये कहा तो वह रोने लगी . हालांकि साथ ही उसकी माँ भी खड़ी थी और एकांत का भी पूरा ध्यान रखा गया था , लेकिन लड़की थी कि कपड़े हटाने को तैयार ही नहीं थी . ऐसे मे किसी भी डॉक्टर को गुस्सा आ सकता था क्योंकि ओ पी डी मे भीड़ बहुत थी और एक एक मिनट कीमती था . 

लेकिन समझा बुझा कर आश्वस्त करने की पूरी कोशिश के बावज़ूद भी जब उसने रोना बंद नहीं किया तो हमे जाने क्यों उससे सहानुभूति सी हुई . हमने उसे वहीं रुकने के लिये कहा और बाहर आकर अपने सीनियर कन्सल्टेंट को सारी बात बताई और उनसे अनुरोध किया कि वो खुद लड़की को देख लें . सफेद बालों वाले कन्सल्टेंट लगभग बुजुर्ग से थे और शक्ल से भी शरीफ दिखते थे . उन्होने उसका मुआयना किया और उसे आपरेशन के लिये भर्ती कर लिया . आपरेशन सही सलामत हो गया और जैसा कि अनुमान था , कोई गंभीर रोग भी नहीं निकला 


लेकिन जाने क्या हुआ कि उसके बाद ना सिर्फ वो लड़की बल्कि उसका सारा परिवार हमारा भक्त सा बन गया . लड़की ने तो किसी और डॉक्टर को हाथ लगाने से भी मना कर दिया . अब उसकी सारी देखभाल हमे ही करनी पड़ रही थी . अन्तत : पूर्णतया ठीक होने पर उसे छुट्टी दे दी गई . लेकिन उसके बाद फॉलोअप मे वह हमारे पास ही आती रही और उसका पूरा परिवार भी आत्मीयता दिखाता रहा . ऐसा लगता था जैसे वे हमारे एक सामान्य से व्यवहार से बहुत प्रभावित हुए थे . 

१३ अप्रैल १९८४ को हमारी शादी हो गई . फिर भी यदा कदा उनका आना जाना चलता रहा था हालांकि अब हम भी काम मे बहुत व्यस्त हो गए थे . फिर ३१ अक्टूबर १९८४ को सिख विरोधी दंगे शुरू हो गए . उसके बाद उसकी और उनके परिवार की हमे कभी कोई खबर नहीं मिली . आज भी जब कभी याद आ जाती है तो उसका मासूम सा चेहरा आँखों के सामने आ जाता है . राम जाने ---

28 comments:

  1. हृदयस्पर्शी। सज्जनता की गर्मी में ऐसे रिश्ते फूलते-फलते हैं। अकेले में याद आते हैं तो किसी दूसरे रिश्तों से भी ज्याद उर्जावान बन जाते हैं।..अच्छा लगा आपका संस्मरण।

    ReplyDelete
  2. मर्मस्पर्शी संस्मरण.....

    ReplyDelete
  3. ऐसी यादें ...दिल के किसी कोने में हमेशा महफूज़ रहती हैं ....

    ReplyDelete
  4. डॉक्टर और मरीज का रिश्ता ही विश्वास का होता है।

    ReplyDelete
  5. सहृदय-संवेदना, और जो कहा न जा सके ऐसे संकट से उबारनेवाले को कभी भुलाया नहीं जा सकता .

    ReplyDelete
  6. बहुत ही संवेदनशील संस्मरण.... मेरे फ्रेंड हैं डॉ आनन्द पाण्डेय … अक्सर वो भी अपने संस्मरण रोज़ सुनाते हैं। डॉक्टर्स के पास रोज़ के बहुत ही नए संस्मरण होते ही हैं आखिर इतना नोबल प्रोफेशन जो है.

    ReplyDelete
    Replies
    1. डॉक्टर रोगी का सम्बंध विश्वास पर आधारित होता है . इसलिये रोगी के बारे मे गोपनीयता रखना भी अत्यंत आवश्यक होता है . अक्सर किसी भी रोगी के बारे मे नाम लेकर हम घर मे भी बात नहीं करते .

      Delete
  7. कई बातें जीवन में ऐसी होती हैं जो याद रह जाती हैं .. कई लोग जीवन में आते हैं चाहे कुछ पल के लिए पर हमेशा दिल में रह जाते हैं ... शायद इसी का नाम जीवन है ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी हाँ , दिल की गहराईयों मे अनेक रिश्ते दबे पड़े रहते हैं , जिनका कोई नाम नहीं होता .

      Delete
  8. मानवता के संबंध कहाँ भुलाये भूलते हैं।

    ReplyDelete
  9. इसीलिए तो डॉक्टर को भगवान का रूप माना जाता है …मर्मस्पर्शी संस्मरण...

    ReplyDelete
  10. OH! इन दिनों अपना ब्लॉग तक भी नहीं लिख पा रहे हैं -धन्य समझिये यहाँ आ गए :-)

    ReplyDelete
  11. होता है ऐसा डॉक साब. 1995 में मैं जब बीमार हुई तो, डॉ. विपिन चतुर्वेदी ने मेरी जान बचाई, और तब से उनसे ऐसा रिश्ता बना, जो आज तक निभ रहा है. मेरे लिये वे पितातुल्य हैं. हां बहुत सालता होगा उस परिवार का ऐसे लापता होना.....

    ReplyDelete
    Replies
    1. वन्दना जी , पता नहीं लापता है या बस पता नहीं . लेकिन फिर उसके बाद कोई मुलाकात नहीं हुई .

      Delete
  12. बेटी को नया जन्म देने वाली नर्स तो इतना जुड़ गयी थी उससे कि डिस्चार्ज के समय उसकी आँखों में आंसू थे , हम भी डॉक्टरर्स की उस टीम को कभी भुला नहीं पाते . कुछ लोग यूँ ही याद आते हैं , बिना किसी रिश्ते के कोमल अहसास में बंधे !

    ReplyDelete
    Replies
    1. वाणी जी , अक्सर हम डॉक्टर्स अपना फ़र्ज़ निभाते हुए भी रोगी के साथ भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ते . वर्ना हमारे लिये काम करना ही मुश्किल हो जायेगा . इसलिये बस नेकी कर कुए मे डालने वाली बात होती है .

      Delete
  13. सच में कई संबंध ऐसे ही होते हैं....कई बार समझ नहीं आता कि दुनिया कि इस भीड़ में वो रिश्ते कहां खो गए

    ReplyDelete
  14. कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जिन को ना तो भुलाया जा सकता है ना ही कोइ नाम दिया जा सकता है बस अनुभव किया जा सकता है |उम्दा प्रस्तुति सर |

    ReplyDelete
  15. आभार . वर्तमान मे ब्लॉगिंग मे इसकी बहुत आवश्यकता है .

    ReplyDelete
  16. आभार शास्त्री जी . ब्लॉगिंग को जिंदा रखने के लिये आपका प्रयास सराहनीय है !

    ReplyDelete
  17. मर्मस्पर्शी रचना

    ReplyDelete
  18. दराल साहब, डॉक्टर्स का कार्य बहुत ही संवेदनशील है...सिर्फ एक हल्का सा पर्सनल टच...मरीज़ के प्रति थोड़ी सहानुभूति...उन्हें देवता की कैटेगरी में खड़ा कर देती है...बहुत ही उम्दा संस्मरण...

    ReplyDelete
    Replies
    1. सही कहा . डॉक्टर को अपने प्रोफेशनल कार्य मे इंसानी रूप से उपर उठना पड़ता है .

      Delete
  19. यूँ तो ये छोटी छोटी बातें हैं पर न जाने कब मर्म को छू जाएँ ऐसे कि निकले नहीं कभी मन से.
    संवेदनशील संस्मरण.

    ReplyDelete
  20. मर्मस्पर्शी संस्मरण कई संबंध ऐसे ही होते हैं..

    ReplyDelete
  21. संवेदनशील संस्मरण....

    ReplyDelete