अभी तक हमें यही अहसास परेशान कर रहा था कि आजकल लोग शादी का कार्ड तो कुरियर से भेज देते हैं लेकिन स्वयं व्यक्तिगत रूप से आमंत्रित नहीं करते। ऐसे में मेहमान के लिए बड़ी मुश्किल हो जाती है यह निर्णय लेने में कि जाया जाये या नहीं। लेकिन हाल ही में एक ऐसा अनुभव हुआ जिसे देख कर शादियों के बारे में गम्भीरता से सोचने पर मज़बूर होना पड़ा।
हुआ यूँ कि एक मित्र सपत्नीक निमंत्रण देने आए और जोर देकर शामिल होने का आग्रह किया। साथ में एक डिब्बा तथाकथित मिठाई भी दे गए। पुराने मित्र थे , इसलिए न जाने का कोई कारण ही नहीं था। हालाँकि घर से दूर था लेकिन समय बहुत उपयुक्त लगा। पूरा विवरण कुछ इस प्रकार रहा :
कार्ड पर लिखा था :
बारात असेम्बली -- शाम ६ बजे
विवाहस्थल के लिए प्रस्थान --- ७ बजे
दूरी --- २०० मीटर
घर से दूरी ---- २५ -३० किलोमीटर शहर के बीच
समय लगा --- २ घंटे
असेम्बली पॉइंट --- पौने दस बजे -- कोई नहीं मिला
विवाहस्थल पर --- रात दस बजे -- न दूल्हा , न घरवाले
साढ़े दस बजे -- दूल्हा गेट पर
रात ग्यारह बजे -- दूल्हा प्रवेश
रात ग्यारह बजे दूल्हे के प्रवेश के साथ खाना खोल दिया गया। इस बीच मेट्रो से आने वाले बाराती प्रस्थान कर चुके थे , चाट पकोड़ी खाकर। ज़ाहिर है , लिफाफा भी उनकी ज़ेब में ही रह गया। अब हो सकता है कि अगले दिन घर जाकर देना पड़े। हमने भी कुछ छुट पुट खाकर ठंडा पीया और इंतज़ार करते रहे कि कोई घरवाला दिखे तो लिफाफा सौंपें और घर का रास्ता नापें जिसमे फिर एक घंटा लगना निश्चित था और अगले दिन फिर ऑफिस जाना भी आवश्यक था। आखिर मित्र के बेटे की शादी की ख़ुशी में सरकारी अवकाश होने की सम्भावना तो निश्चित ही नहीं थी।
बारात तो सारी की सारी पहले ही अंदर थी। दुल्हे के साथ थी तो बस एक घोड़ी , दो चार रिश्तेदार और बाकि बैंड वाले। लेकिन इन्ही चार रिश्तेदारों ने सड़क पर चक्का जाम कर सब का खाना ख़राब कर रखा था। सर्दी में भी पसीना बहाते हुए ये जाँबाज़ गेट के बाहर ही आधे घंटे तक ऐसे डटे रहे जैसे लोंगोवाल की लड़ाई में हमारे रण बांकुरे अपनी जान की परवाह किये बगैर जमे रहे थे। हमने भी मित्र को उस भीड़ में ढूंढ निकाला और बड़ी आत्मीयता से बधाई देने लगे। लेकिन मित्र न जाने किस पिनक में थे कि लगा जैसे पहचाना ही न हो। वैसे भी हमें तो नाचने का शौक कभी नहीं रहा , इसलिए वहां से हटकर मिष्ठान खाने के लिए आगे बढ़ लिए।
लेकिन इस रिहाई से पहले एक अत्यंत आवश्यक काम भी करना था , लिफाफा सौंपने का। अक्सर यह काम हमें सबसे कठिन काम लगता है। एक तो वैसे ही लिफाफा देते हुए अज़ीब सा लगता है। ऊपर से लेते हुए मेज़बान के नखरे देखकर तो ऐसा महसूस होता है जैसे हम कोई गुनाह कर रहे हों। लेकिन इस महत्त्वपूर्ण कार्य करने के बाद ऐसा रिलीफ मिलता है जैसे सर से कोई बोझ उतर गया हो। फिर भी हमने देखा है कि अक्सर लिफाफा देने वालों की भीड़ सी लग जाती है और पहले मैं पहले मैं की नौबत सी आ जाती है।
आखिर उस दिन भी सफलतापूर्वक लिफाफा विसर्जन के बाद जब हमने प्रस्थान करने की सोची तो पत्नी श्री की फरमाइश आई कि अरे हमने दूल्हा दुल्हन को तो देखा ही नहीं। हमने श्रीमती जी को लगभग खींचते हुए अपनी एक कविता सुनाते हुए गाडी में बिठाया और ड्राइवर को कहा कि चलो , हो गई शादी :
इस भीड़ भाड़ में कौन है अपना कौन पराया
किसने निमंत्रण स्वीकारा, कौन नहीं आया !
दूल्हा कैसा दिखता है, दुल्हन की कैसी सूरत है
यह न कोई देखता है , न देखने की ज़रुरत है !
आजकल मेहमानों को दूल्हा दुल्हन से प्यारा होता है खाना
और मेज़बानों को सम्बन्धियों से ज्यादा प्यारा नाच गाना !
इसी अफ़साने की शिकार प्रेम संबंधीं की ख्वाहिश हो गई है ,
और शादियां आजकल काले धन की बेख़ौफ़ नुमाइश हो गई हैं !
हमारे यहाँ भोजन तो सर्व हो जाता है, चाहे बाराती कभी भी आएं। वैसे शादियों में जाने के बारे में अब सोचना अवश्य चाहिए।
ReplyDeleteआजकल मेहमानों को दूल्हा दुल्हन से प्यारा होता है खाना
ReplyDeleteऔर मेज़बानों को सम्बन्धियों से ज्यादा प्यारा नाच गाना !
बिल्कुल सही आकलन किया है आपने
http://mypoemsmyemotions.blogspot.in/2009/04/blog-post_23.html
ReplyDeleteबारात , खाना और रिश्ते
देर से पहुचती बाराते
ठंडा परसा खाना
ठंडे पड़ते रिश्ते
अपने देश में विवाह हमेसा से ही दिखावे का प्रतिक रहा है , न जाने लोग उन रिश्तेदारो विवाह में क्यों बुलाते है जिनसे सालो तक कोई सम्बन्ध ही नहीं होता है जो केवल किसी के विवाह में ही मिलते है , और उत्तर भारत कि ये रतजगा वाले विवाह भी मुझे नहीं जचते है , सोचती हूँ दिखावे में बर्बाद हो रहे ये पैसे वर वधु को ही दे दिये जाये तो सम्भव है वो ज्यादा अच्छे से अपना वैवाहिक जीवन शुरू करे ।
ReplyDeleteसही कहा . दिखावे पर खर्चा करने के बजाय पैसे का सही इस्तेमाल होना चाहिये . आखिर दिखावे पर होने वाला खर्च टेंट वाला , सजावट वाला और केटरर की जेब मे जाता है .
Deleteडाक्टर साहब कभी देर रात तक शादी मे रुकने का मौका मिले तो असली बात जान पाएंगे की बारात मे कितने रह गए जैमाल देखने के लिये हा चरो तरफ बस डिसपोसबले ग्लास और कागज की प्लेट नज़र आएंगी और फटे हुये लिफाफे जिनका माल निकला हुआ होगा।और सबसे मजेदार बात । शादी मे आया हर शक्ष लिफाफा देने की जल्दी मे रहता है ॥ और हो भी क्यों ना ॥ दरवाजे पर निमंत्रक जो खड़ा है उसके पास सारा हिसाब है आपने लिफाफा दिया की नाही॥ एक अच्छा सत्या प्रहशन ....दराल साहब....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (09-02-2014) को "तुमसे प्यार है... " (चर्चा मंच-1518) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
तमाम बार के ऐसे अनुभवों से मैंने बेटी की शादी में खाना खाने से परहेज करने का संकल्प ले लिया
ReplyDeleteबस निमंत्रण दिया और चल दिए कुछ भी बिना खाये पिए -दृढ़ता और विनम्रता से मन करता हूँ। घर
वाली भी अब यह जानती हैं
हाँ दूल्हे की और से निमंत्रित होने पर जम कर जीमते हैं -
और बेटी वाला रईस हो तो ! :)
Deleteआपकी इस प्रस्तुति को आज की जगजीत सिंह जी की 73वीं जयंती पर विशेष बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबस आज कल ऐसी ही शादियाँ और बारातें हो रही है। किसके पास इतना टाईम है।
ReplyDeleteविवाह में शामिल होना किसी प्रोजेक्ट से कम नहीं :)
ReplyDeleteविवाह में एक नई परंपरा जन्म ले चुकी है। विवाह को पूरी तरह से व्यक्तिगत मानते हुए सिर्फ अपने ही चंद रिश्तेदारों को बुलाने पर जोर रहने लगा है। पहले जहां लोग अपने साथ अक्सर रहने वाले हर इंसान को बुलाते थे अब वो परंपरा खत्म हो गई है। नतीजा ये होता है कि चंद लोगो के बीच शादी सिमट कर रह गई है। इसिलए अंत में जब फेरों का समय होता है तो मेहमान के तौर पर मौजूद होते हैं झूठे डिसपोजल ग्लास और झूठी थालियां...साथ ही कनात उठाने को तत्पर शमियाने वाले..बस।
ReplyDeleteसीमित मेहमान ही सही हैं . शहर को इक्कट्ठा करने का क्या फायदा !
Deleteबिल्कुल सच कहा
ReplyDeleteपरिचितों की शादियों में जाना अब एक रस्मी औपचारिकता भर रह गयी है !
ReplyDeleteअाजकल यूं अबदुल्ले बनने से बेहतर है जहां मौक़ा लगे लिफ़ाफ़ाबाजी करें और निकल लें, हम तो कई बार दिन-दोपहर में ही थमा आते हैं. आज तक किसी ने नहीं कहा कि हमें उन्होंने बहुत मिस किया. आजकल की शादियों में सबकुछ auto mode में चलता है और हम लोग नाहक ही इमोसनल हो हो कर खु़द पर अत्याचार करते रहते हैं
ReplyDeleteसोचता हूँ , ये लिफाफे की बन्दिश भी क्यों !
Deleteसब कुछ बढ़ता धीरे धीरे..
ReplyDeleteइस भीड़ भाड़ में कौन है अपना कौन पराया
ReplyDeleteकिसने निमंत्रण स्वीकारा, कौन नहीं आया !
दूल्हा कैसा दिखता है, दुल्हन की कैसी सूरत है
यह न कोई देखता है , न देखने की ज़रुरत है !
आजकल मेहमानों को दूल्हा दुल्हन से प्यारा होता है खाना
और मेज़बानों को सम्बन्धियों से ज्यादा प्यारा नाच गाना !
इसी अफ़साने की शिकार प्रेम संबंधीं की ख्वाहिश हो गई है ,
और शादियां आजकल काले धन की बेख़ौफ़ नुमाइश हो गई हैं !
शादी में जाना है तो टुन्न होते रहिये अपने रिस्क पे जाइये ड्रिंक्स रखिये साथ में फिर सब कुछ खूबसूरत लगेगा "बरात डांस "भी।
वीरुभाई जी , टुन्न होकर तो कहीं पे निगाहें कहीं पे निशना हो जाएगा ! यानि जाना था कपिल या राम की शादी मे , पहुंच गए कपिल या रमा की शादी मे ! :)
Deleteमहानगरीय शादियाँ अब ऐसी ही हो गई हैं ... वैसे आप जाएँ या न जाएं कोई खास फरक भी नहीं पड़ता अब मेजबानों को ...
ReplyDeleteदिखावे का ज़माना रह गया है बस ...
शादियों में जाना अब एक रस्मी औपचारिकता भर ही रह गयी है !
ReplyDeleteRECENT POST -: पिता
जाते रहिये ...जब तक जा सकते हैं ....
ReplyDeleteशुभकामनायें!
जी , जब तक मूँह मे दांत हैं और घुटनों मे जान ! :)
DeleteWhat a data of un-ambiguity and preserveness of valuable
ReplyDeleteknow-how about unexpected feelings.
my web site: Foot Pain symptoms