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Friday, August 28, 2020

कोरोना काल में मंद मंद चलती जिंदगी ...


आँखों देखी :

लगभग ५-६ महीने बाद एयरपोर्ट जाना हुआ। जिस रास्तों से आना जाना हुआ , उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था , मानो वर्षों बाद वहां से गुजरे हों। सब कुछ जैसे नया नया सा लग रहा था। दूसरी ओर ऐसा भी लग रहा था जैसे कुछ नहीं बदला, सब वैसा का वैसा ही है। ऐसा अहसास हो रहा था कि ये दुनिया यूँ ही चलती रहती है, भले ही आप हों या ना हों।

यमुना पार कर बारापुला पर पहुंचे तो ऐसा लगा कि पुल पर नई लाइट्स लगाई गईं हैं।  फिर सोचा तो पाया कि लाइट्स तो पहले भी थीं। और ध्यान से देखा तो यह निश्चित भी हो गया क्योंकि पोल पुराने ही दिख रहे थे। लेकिन यह नए पुराने का अहसास हैरान सा कर रहा था। एयरपोर्ट के पास पहुंचे तो ऐरोसिटी को लगभग उजाड़ सा वीरान सा पाया। कभी होटल्स का ये जमघट बड़ा वाइब्रेंट लगता था। लेकिन अब शायद वहां यात्री नहीं , कोविड के रोगी रहते हैं, क्वरेन्टीन पूरा करने के लिए।  ऐरोसिटी के आगे एयरपोर्ट तक का रास्ता पहले से कहीं ज्यादा हरा भरा और सुन्दर नज़र आया। हालाँकि एयरपोर्ट पर अब उतनी भीड़ नज़र नहीं आई जितनी अक्सर हुआ करती थी।

वापसी पर चाणक्य पुरी स्थित कमला नेहरू पार्क जो अक्सर युवाओं और प्रेमी युगलों से भरा रहता था, बिलकुल खाली पड़ा था। बाहर से खूबसूरत तो उतना ही दिखा लेकिन सोचने पर मज़बूर हो गए कि क्या पार्क में अब लोगों की जगह वायरस विचरण करता है। नेहरू पार्क के एक छोर पर दिल्ली का सबसे पुराना और जाना पहचाना अशोक होटल बाहर से बड़ा उदासीन सा लग रहा था। पार्किंग में इक्की दुक्की गाड़ियां ही खड़ी थीं। लेकिन इसके तुरंत बाद रेसकोर्स रोड़ पर हरियाली मानो कई गुना बढ़ गई थी। प्रधान मंत्री निवास से लेकर अगली रैड लाइट तक इतनी घनी हरियाली देखकर अचंभित सा होना पड़ा।

यदि दिल्ली का इतिहास देखें तो नई दिल्ली जो स्वतंत्र भारत की राजधानी बनी, का निर्माण १९१९ में आरम्भ हुआ और १९३१ में पूर्ण हुआ। नई दिल्ली में राष्ट्रपति भवन, और आस पास के सरकारी भवन, संसद भवन, इंडिया गेट, और सम्पूर्ण अति विशिष्ठ आवासीय क्षेत्र जिसमे चाणक्य पुरी स्थित एम्बेसीज भी शामिल हैं, एक अति आधुनिक, हरा भरा और स्वच्छ आवासीय एवं कार्यकारी क्षेत्र बना। इस क्षेत्र में देश के सभी सांसद , ज़ज़ , आई ऐ एस अफ़सर और अन्य अति विशिष्ठ व्यक्ति रहते हैं। इसलिए कोई हैरानी नहीं कि यह क्षेत्र बहुत ही सुन्दर, स्वच्छ और हरियाली युक्त है।

आज सम्पूर्ण वी आई पी क्षेत्र बहुत ही हरा भरा नज़र आ रहा था। सावन भादों की बरसात में धुले लगभग १०० साल पुराने पेड़, जगह जगह बनाये गए गोलाकार पार्क, वी आई पी बंगलों के बाहर लगे पेड़ पौधे इंसानों की गतिविधियां कम होने के कारण जैसे अपने पूरे यौवन पर थे। सुन्दर तो पहले भी रहा लेकिन यह क्षेत्र इतना खूबसूरत जैसे पहले कभी नहीं लगा। आखिर कर इंडिया गेट पहुंचे तो इंडिया गेट के चारों ओर पुलिस के बैरिकेड देखकर अवश्य मायूसी सी हुई क्योंकि उसे पार कर इंडिया गेट के पास जाना और नव निर्मित शहीद स्मारक देख पाना अब असंभव हो गया है। इंडिया गेट के लॉन्स में भी घास की कटाई न होने के कारण यह कोरोना के कष्टदायक काल की जैसे कहानी सुना रहा था। 

इंडिया गेट के सर्कल से आई टी ओ जाने वाले तिलक मार्ग पर स्थित उच्चतम न्यायालय के सामने सड़क ना जाने किस विधि से बनाई गई है कि इस एक किलोमीटर लम्बे रास्ते पर टायरों से ऐसी आवाज़ आती है जैसे कार नहीं बल्कि टैंक चल रहा हो। आई टी ओ का चौराहा शायद सबसे बड़ा चौराहा है। इसीलिए यहाँ पैदल लोगों के लिए एक स्काईवॉक बनाई गई है।  हालाँकि इस डेढ़ किलोमीटर लम्बी जिग जैग वाक पर जाता हुआ नज़र कोई नहीं आता।  लेकिन बड़ा मन है कि कभी बस यूँ ही इस पर चढ़कर पैदल यात्रा की जाये और आस पास का नज़ारा देखा जाये। आई टी ओ चौराहे पर एक बच्चा पन्नी में लपेट कर गुलाब के फूल बेच रहा था।  मैले कुचैले बालक से जाने कौन गुलाब खरीदता होगा।  सामने ही फुटपाथ पर बैठी उसकी मां एक और नन्हे मुन्ने को गोद में खिला रही थी। पास ही उसका पिता खड़ा था, पतला दुबला  लेकिन डिजाइनर बालों वाला, अपने मोबाइल पर कुछ कुछ करता हुआ। बस भिखारी के हाथ में ही मोबाइल देखना बाकि रह गया था, वह तमन्ना भी अब पूरी हो गई।     
कोरोना पेंडेमिक के कारण लगभग ठप्प हुई जिंदगी में जैसे सभी विकास कार्य भी ठप्प हो गए। बस जैसे तैसे जिंदगियां चली जा रही हैं। ज़ाहिर है, यदि जिन्दा रहे तो कार्य भी फिर आरम्भ होंगे और विकास कार्य भी। अभी कब तक ऐसा चलेगा, कोई नहीं जानता। लेकिन यह सच है कि कोरोना वायरस ने लोगों को घुटनों पर ला दिया है। प्रकृति के सामने मनुष्य बहुत छोटा होता है लेकिन यह लोगों को समझ में अब आने लगा है। या शायद अब भी नहीं।       
       


             

Friday, August 7, 2020

कोरोना से ऐसे किया बचाव --


कोरोना का डर - थर्ड ईयर सिंड्रोम :

जब हम मेडिकल कॉलेज के थर्ड ईयर में थे , तब पहली बार वार्ड जाकर रोगियों से संपर्क हुआ।  तृतीय वर्ष में ही क्लिनिकल विषय पहली बार पढ़ाये जाते हैं। जब पहली बार रोगों के बारे में जाना , तब जब भी किसी रोग के बारे में पढ़ते या ऐसे रोगी को देखते , तब ऐसा महसूस होने लगता था जैसे हम खुद भी उस रोग से ग्रस्त हैं।  यानि जैसे जैसे रोगों के बारे में पढ़ते गए, वैसे वैसे खुद में उन रोगों को देखने लगे। हर रोग के होने का भय सताने लगा। इसी को कहते हैं थर्ड इयार सिंड्रोम जो लगभग हर छात्र को उस समय होने लगता है।   
 अब कोरोना काल में भी कुछ ऐसा ही हाल रहा।  क्योंकि हम डॉक्टर हैं, इसलिए रोग के बारे में जानकारी होने और इसके परिणाम अच्छी तरह से जानने के कारण डर भी ज्यादा था।  लेकिन कहते हैं न कि डर के आगे ही जीत है।  फिर हम तो दूसरों को सिखाते रहे , इसलिए बचाव के तरीके स्वयं भी इस्तेमाल करने आवश्यक थे। आइये देखते हैं, कोरोना से बचने के लिए क्या क्या हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। 

ऑफिस में :
ऑफिस में जाते ही हम पहला काम करते हैं, सारे फर्नीचर को सेनेटाइज करने का। टेबल चेयर , कंप्यूटर टेबल, माउस , स्विच , कीबोर्ड आदि हर वो चीज जिसे छुआ जा सकता है, हम स्वयं अल्कोहल हैंड रब से साफ करते हैं।  इसे देखकर पुराने ज़माने की एक घटना याद आ जाती है। एक बार हमारे गांव से एक आदमी फ़ौज में भर्ती होने के लिए रिक्रूटमेंट ऑफिस चला गया।  वहां ऑफिसर ने पूछा - रसोइये का काम करोगे ? आदमी ज़रा बहरा था , बोला क्या ? ऑफिसर ने जोर से कहा - रोटियां बनाने का काम करोगे।  आदमी बोला -- रोटियां बनाने वाली घर में तीन हैं। (उसकी दो बीवियां थीं और एक बहन) और भाग आया। अब भले ही हमारे भी ऑफिस को मेंटेन करने के लिए दो तीन अटेंडेंट्स हैं , लेकिन हम तो अपना काम स्वयं करना पसंद करते हैं। 
 
कोरोना का प्रभाव यह रहा कि अब हम न कहीं जाते हैं , न कोई हमसे मिलने आता है।  बस बैठे बैठे अपना काम करते रहते हैं।  अधिकतर काम ऑनलाइन ही हो रहा है।  खाना अकेले ही खाते हैं। खाना भी बस जीने लायक ही खाते हैं। कोई दिखाई भी देता है तो मुंह बांधे हुए. न कोई हंसी , न मुस्कराहट।  बस चिंतित से चेहरे ही नज़र आते हैं। थक गए हैं लोग कोरोना काल में ड्यूटी करते करते।   

घर में :




घर आने पर सबसे पहला काम होता है , जेब में रखी सारी चीजों को सेनेटाइज करना। मोबाइल, गाड़ी की चाबी, पैन , घडी , बैल्ट , यहाँ तक कि बैग को भी सेनेटाइज करके रखते हैं। फिर मास्क को उतारकर डिस्पोज ऑफ़ करते हैं, फिर स्नान कर कपडे बदलते हैं और पहने हुए कपड़ों को धोने के लिए डाल देते हैं।  उसके बाद भाप लेते हैं।  तब जाकर लगता है कि अब घर में रहने लायक हो गए।   

खाना :

पिछले कई महीनों से खाना तो कम कर ही दिया है, खाने में नए नए आइटम भी शामिल हो गए हैं।  अब गर्मियों में भी अदरक वाली चाय पीते हैं, हल्दी वाला दूध और फलाहार नियमित होता है।

दवाएं:

विटामिन सी , विटामिन डी और विटामिन बी का सेवन बढ़ गया है। होमियोपैथी की एक दवा आयुष विभाग ने दी है। हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन भी कुछ लोग लेते हैं। 

मज़बूरियां:

सबसे ज्यादा मज़बूरी तो यह रही कि चाह कर भी किसी दोस्त या रिश्तेदार से मिल नहीं पाए। इस बीच जान पहचान और रिश्तेदारों में कहीं किसी की मृत्यु हुई , कोई बीमार पड़ा, लेकिन हम किसी से भी मिलने नहीं जा पाए। ख़ुशी हो या ग़म, सबने अकेले ही सहन किया।

अब धीरे धीरे जिंदगी पटरी पर आ रही है, लेकिन देश में कोरोना संक्रमण के केस अभी भी बढ़ ही रहे हैं।  इसलिए शहर से बाहर जाने की सोच भी नहीं सकते।  इसीलिए लगभग पहली बार ऐसा हुआ कि हम गर्मियों में किसी हिल स्टेशन पर नहीं जा पाए। घर से बाहर निकलने की आदत भी जैसे छूट सी गई है। अब तो घर में रहकर ही आनंद आने लगा है। लेकिन ऐसा कुछ समय तक तो सही है , परन्तु लम्बे समय तक रहा तो निश्चित ही दुनिया के लिए बहुत कष्टदायक होगा। आशा करते हैं कि इस कोरोना काल से जल्दी निजात पाएं और जीवन फिर से पहले की तरह खुशहाल लगने लगे।   

अंत में यही कहेंगे कि ये तीन काम ही आपको कोरोना संक्रमण से बचा सकते हैं :
घर से बाहर मास्क पहनकर रहना। 
सभी से दो गज की दूरी बनाये रखना। 
बार बार हाथ धोना या सेनेटाइज करना। 

ज़ाहिर है, यह मज़बूरी है , लेकिन ज़रूरी है।


Wednesday, August 5, 2020

कोरोना के इफेक्ट्स और बचने के उपाय --


कोरोना काल अनुभव भाग २ :

हमने देखा है कि इंसान डर से ही डरता है। डर चोर डाकुओं का हो, या चोट लगने का , सज़ा का हो, बीमारी का हो या मृत्यु का।  कोरोना एपिमेडिक ही ऐसा संक्रमण है जिसमे डर जितना मृत्यु का है, उतना ही बीमारी का भी रहा। इसका कारण यह था कि यह एक नया रोग होने के कारण लोगों में और चिकित्सकों में भी इसकी जानकारी लगभग न के बराबर थी। इस कारण इसके उपचार में न केवल उचित सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थी, बल्कि हर दिन सरकार के निर्देश भी बदल जाते थे। आम जनता के मन में भय था कि यदि संक्रमण हो गया तो डॉक्टर्स न जाने कहां भर्ती करके रखेंगे।  इसलिए लोग संक्रमण को छुपाने लगे थे। घर से बाहर अनजान जगह रहने और बाल बच्चों को छोड़ने का डर सबको सताता था। यदि आई सी यू में भर्ती करना पड़ा तो घरवाले शक्ल देखने को भी तरस जाते थे। मृत्यु होने पर तो सरकारी कर्मचारी ही दाह संस्कार कर देते थे और घरवाले अंतिम दर्शन को भी तरस जाते थे।  इस कारण लोगों में दहशत रहती थी।   

लगभग ढाई महीने के लॉक डाउन काल में घर से बाहर बस इतना निकलना होता था कि रोज सुबह कोई एक सदस्य गेट तक जाकर दूध ले आता था।  बाकि सामान भी गेट पर ही सप्लाई होता था।  बाहर जाने की चप्पलें अलग होती जिन्हे बाहर वाले कमरे में ही निकाल दिया जाता। मास्क पहनकर किसी भी वस्तु से  लिफ्ट का बटन दबाकर जाते और वापस आते ही हाथ धोना एक आदत सी बन गई। दूध की थैलियों को सोप सोल्युशन से धोया जाता और कपडे की थैली को भी धोना पड़ता।

लेकिन डॉक्टर्स और स्वास्थ्यकर्मियों के लिए लॉक डाउन तो जैसे था ही नहीं। कम ही सही लेकिन अस्पताल जाना पड़ता तो श्रीमती जी तो ऐसे तैयार होती जैसे चाँद पर जा रही हों। सावधानी बरतने के मामले में उनका कोई सानी नहीं था। सबसे बड़ी बात ये थी कि वे हमें प्रोटेक्ट करती रही। इसलिए अस्पताल से वापस आते समय दुकान से सारा सामान खुद ही खरीद लाती और हमें बुजुर्ग समझकर घर से बाहर निकलने ही नहीं देती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारा रोल रिवर्सल हो गया।  यानि अब श्रीमती जी घर के बाहर के काम करती और हम घर संभालते। कहने को हम वर्क फ्रॉम होम कर रहे थे लेकिन असल में वर्क एट होम करना पड़ रहा था।  इसका एक परिणाम यह भी निकला कि अब हम भी गृह कार्य में दक्ष हो गए।       



क्योंकि कामवाली बाई भी वर्क फ्रॉम होम कर रही थी, इसलिए झाड़ू पोंछा, बर्तन मांजना यहाँ तक कि खाना बनाने का काम भी हम ही करने लगे। 

लॉक डाउन में सबसे ज्यादा परेशानी ये थी कि दिन भर खाने और टी वी देखने के अलावा कोई काम नहीं था। पार्क की सैर या जिम जाने का तो सवाल ही नहीं था। इसलिए बहुत से लोग इन दिनों में मोटापे के शिकार हो गए। शारीरिक श्रम या व्यायाम न होने से ब्लड शुगर और बी पी बढ़ना स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। लेकिन हमने न केवल वज़न को बढ़ने नहीं दिया, बल्कि वज़न कई किलो घटा लिया। सारे कपडे ढीले हो गए, पैंट कमर में टिकनी बंद हो गई , इस तरह खिसकने लगी जैसे लो वेस्ट की जींस। लेकिन यह अपने आप नहीं हुआ।  इसके लिए हमने बड़ी मेहनत की। रोजाना एक घंटा एक्सरसाइज करना एक रूटीन सा बन गया। जिसमे:   



                                                                           योगा

                                                         
                                                                 स्ट्रेचिंग एक्सरसाइजेज





और डांस की भूमिका मुख्य रही।  एक घंटा पसीना बहाकर तन और मन दोनों चुस्ती और स्फूर्ति से भर जाते थे।  सभी मित्रों और रिश्तेदारों से दूर लॉक डाउन में घर में बंद रहकर, मानसिक तनाव और बेचैनी होना भी एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। ऐसे में बहुत से लोगों को मानसिक विकार पैदा हो जाते हैं।  चिड़चिड़ापन, नींद न आना , बात बात पर झगड़ना आदि हरकतें इस दौरान बहुत देखने में आईं। इससे बचने के लिए आवश्यक होता है कि आप अपने आप को व्यस्त रखें, कुछ ऐसे काम करें जो समय के आभाव में पहले नहीं कर पा रहे थे, नए शौक बनायें या पुराने शौक पूरे करें। हमने भी सोशल डिस्टेंसिंग रखते हुए सोशल साइट्स पर खूब सोशियलाइज किया।  कवितायेँ लिखी , ऑनलाइन काव्य पाठ किये , गाने गाये , डांस सीखे और किये और कई तरह के वीडियोज बनाकर सोशल साइट्स पर डाले।       



और जो लोगो में स्मार्ट फोन आने के बाद पिछले कई सालों में लोगों में नया शौक जगा है सेल्फी लेने का , हमने भी जमकर सेल्फी ली। 

अगले भाग में कोरोना से बचने के तौर तरीके।  क्रमशः ... 

Saturday, August 1, 2020

कोरोना काल की ज़िंदगी - एक अनुभव:


कोरोना एपिडेमिक के कारण . ठहरी हुई ज़िंदगी को १२५ दिन पूरे हो चुके हैं। इन १२५ दिनों में जिंदगी की गाड़ी ऐसे हिचकौले खाते हुए चली है जैसे गाड़ी का एक पहिया टूटने पर गाड़ी चलती है।  कभी आशा, कभी निराशा, कभी डर, कभी राहत के अहसासों के बीच झूलते हुआ अब जाकर बेचैनी कुछ कम हुई है जब दिल्ली में कोरोना संक्रमण के केस कम होने लगे हैं, हालाँकि देश में कुल केस दिन प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं जो काफी चिंताज़नक बात लगती है।

मार्च के महीने में जब लॉक डाउन घोषित हुआ, तब सब घरों में जैसे कैद से हो गए।  लेकिन हमारा तो क्वारेंटीन  पहले ही आरम्भ हो चुका था क्योंकि बेटा लन्दन से घर वापस आया था और सरकार के आदेश अनुसार उसके साथ सभी घरवालों को १४ दिन क्वारेंटीन में रहना था। आरम्भ में इस रोग के बारे में किसी को कोई ज्ञान नहीं था।  इसलिए सरकार की ओर से भी रोजाना सुबह शाम निर्देश ज़ारी किये जा रहे थे। जनता में भी सही जानकारी के अभाव में अफवाहों का बाजार गर्म था।  ऐसे में १४ दिन का क्वारेंटीन कब २८ दिनों में बदल गया , पता ही नहीं चला, क्योंकि जितने मुंह, उतनी बातें होती थीं। इसी कारण सोसायटी के लोगों में डर और अविश्वास के रहते, तरह तरह की बातें सुनी जाने लगीं। लोग डॉक्टर या स्वास्थ्यकर्मी के नाम से ही डरने लगे थे।  कुछ तो अनाप शनाप बातें भी करने लगे थे।  कहीं कहीं तो स्वास्थ्यकर्मियों को घर में ना घुसने देने के समाचार भी आने लगे थे।  अंतत: जब सरकार ने निर्देश निकाला कि स्वास्थ्यकर्मियों के साथ बदसलूकी करने वालों के विरुद्ध कार्रवाई की जाएगी और जेल भी हो सकती है, तब कहीं जाकर लोगों का व्यवहार ठीक हुआ।  कुछ हद तक हमें भी इस दौर से गुजरना पड़ा।  लेकिन अनुभवी और वरिष्ठ होने के कारण हमने जल्दी ही स्थिति को संभाल लिया और सोसायटी के अध्यक्ष को पत्र लिख कर वास्तविक स्थिति से अवगत कराया और सोसायटी के निवासियों को कोरोना से बचाव से सम्बंधित जानकारी वितरित कराई।   

लॉक डाउन और क्वारेंटीन का आरंभिक एक महीना बड़ी कशमकश में बीता। उस समय इंग्लैण्ड में कोरोना तेजी से बढ़ रहा था, इसलिए वहां से आने वाले यात्रियों में संक्रमण की सम्भावना बहुत ज्यादा दिखाई देती थी। दूसरी ओर अस्पतालों में भी सम्पूर्ण और उचित चिकित्सीय व्यवस्था का अभाव था। ऐसे में यही डर सताता था कि यदि संक्रमण हुआ तो घर बार को छोड़कर सभी को अस्पताल या कोविड सेंटर में भर्ती होना पड़ेगा। यह भी विदित था कि इस रोग में सबसे ज्यादा हानि वरिष्ठ नागरिकों को ही होती है।  हालाँकि भारत में कोरोना की मृत्यु दर ३% के आस पास रही है, लेकिन ६० वर्ष की आयु से ऊपर वालों में यह दर ६ % से भी ज्यादा है। भले ही वरिष्ठ लोगों में भी केवल ६% की ही मृत्यु होती है , लेकिन मृत लोगों में आधे से ज्यादा ६०+ वाले लोग ही हैं।  यही सबसे ज्यादा चिंताजनक बात रही। बहुत से केस ऐसे सुनने में आ रहे थे कि किस तरह किसी को बुखार हुआ और एक दो दिन बात मृत्यु हो गई। वैसे तो मृत्यु एक वास्तविकता ही है , इसलिए मृत्यु से कैसा घबराना।  लेकिन इस तरह बिना बात बैठे बिठाये चले जाना किसी को भी गंवारा नहीं हो सकता।     

कहते हैं, इग्नोरेंस इज ब्लिस। यानि यदि आप अनभिज्ञ हैं तो आप सुखी हैं।  हमारे साथ यही प्रॉब्लम थी कि दोनों डॉक्टर होने के कारण  हम थर्ड ईयर सिंड्रोम से ग्रस्त थे। हर तरफ़ अदृश्य कोरोना ही कोरोना दिखाई देता था। लेकिन लॉक डाउन में यह तो समझ में आता था कि जब तक घर में ही हैं,तब तक सुरक्षित हैं ।  एक और अच्छी बात यह रही कि क्वारेंटीन के दौरान सोसायटी ने प्रबंध कर दिया था कि रोजमर्रा की ज़रुरत की चीजें गार्ड द्वारा सीधे घर पहुंचा दी जाती थीं।  इस मामले में पड़ोस में अकेली अकेली रहने वाली दो वृद्ध महिलाओं ने भी यथासंभव सहायता प्रदान की। ज़ाहिर है, बाद में अब हम उनका ध्यान रख रहे हैं।

महीनों लगातार घर में बंद रहकर अहसास हुआ कि कैद क्या होती है, हालाँकि जेल और घर में बहुत फर्क है।  लेकिन जब आपकी स्वतंत्रता पर अंकुश लग जाये और आप समाज से, सगे सम्बन्धियों से और सम्पूर्ण विश्व से अलग होकर मात्र आभासी संपर्क में ही रह पाएं तो भले ही जीवन भौतिक रूप से ज्यादा कष्टदायक नहीं लगता, लेकिन देर सबेर आपको मानसिक रूप से बेचैनी सी होने लगती है, क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और अकेले जीवन जीने वाले समय से आगे बढ़ चुका है।  यही कारण है कि दीर्घकालीन लॉक डाउन में बहुत से लोगों को मानसिक विकार पैदा होने लगते हैं।
डर और डर का निवारण -- क्रमश:अगली पोस्ट में ....