आज से ऑटो एक्सपो ( वाहन मेला ) शुरू हो रहा है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए ऐसा लग रहा है जैसे कोई बच्चे पैदा करने का कैम्प लग रहा हो। आज जहाँ देश की सबसे बड़ी समस्या बढ़ती हुई आबादी है , वहीँ दिल्ली की समस्या वाहनों की बढ़ती संख्या से फैलता प्रदुषण है। लेकिन ऑटो मैनुफैक्चरिंग कंपनियों को सिर्फ अपने मुनाफे से मतलब होता है। उनके लिए तो सबसे बड़ी चिंता इस बात की रहती है कि कैसे वाहनों की बिक्री में वृद्धि दिखाएँ। यानि यदि गत वर्ष ५०००० वाहनों की बिक्री हुई तो इस वर्ष का लक्ष्य ६०००० होना चाहिए। यही कारण है कि दिल्ली में वाहनों की संख्या चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ती जा रही है। देखा जाये तो ऑटो कम्पनियाँ लोगों की आदत और शहर की हालत बिगाड़ने में लगी हुई हैं।
अब समय आ गया है कि जहाँ एक ओर बढ़ती आबादी को रोकने के लिए 'वन चाइल्ड नॉर्म ' यानि 'एकल बाल परिवार' आवश्यक है , वहीँ दूसरी ओर वाहनों की बिक्री पर भी सीमा निर्धारित होनी चाहिए। प्रत्येक कंपनी को मार्किट शेयर अनुसार एक निश्चित संख्या तक ही वाहनों की बिक्री की अनुमति होनी चाहिए। भले ही पूर्व में परिवार नियोजन कार्यक्रम फेल हो गया हो , लेकिन जीवन के संघर्ष में अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए परिवार और वाहन नियंत्रण अत्यंत आवश्यक है।
वर्ना जैसा कि किसी शायर ने कहा था कि :
होश आये भी तो क्योंकर तेरे दीवाने को ,
एक जाता है तो दो आते हैं समझने को।
यही सिलसिला चलता रहेगा। और सारे प्रयोग असफल होते रहेंगे।
सहमत हूँ!
ReplyDeleteकाश, लोग यह समझते..
ReplyDeleteनमस्कार
ReplyDeleteआपके 31 दिसंबर के पोस्ट को पढ़कर कुछ अच्छा नहीं लगा था। कवि सुभाष चक्रवर्ती की बांग्ला कविता है- फूल फूटक ना फूटक आज वसंत- अर्थात फूल खिले न खिले आज वसंत है। वाकई कोयल को कूकना नहीं भूलना चाहिए। बहुत ही अच्छा लगता था कि एक चिकित्सक होने के बावजूद आप शारीरिक चर्या से कहीं अधिक अपने पाठकों के साथ मानसिक चर्या में बड़े ही सलीके से संलग्न थे। हठात् 31 दिसंबर के आपके उस पोस्ट से आपकी थोड़ी सी निराशा झलकी लेकिन पुनः आपको रचनारत देख काफी अच्छा लगा। वाकई फूल खिले न खिले आज वसंत है। पाठकों की प्रतिक्रिया निश्चित हौसला बढ़ाती है, कुछ कहने-सुनने को लेकिन कोयल कूकना भूल जाए, यह कहां अपेक्षित है। मैं भी तो आपके ब्लाग का अरसे से पाठक हूं लेकिन अब तक कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी, इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि आपके लेखनी की जीवंतता मुझे अच्छी नहीं लगती थी-है। बस चुपचाप पढ़ता और निकल जाता था। 31 की आपकी घोषणा पर भी मैंने कुछ नहीं कहा- लेखक की इच्छा सदैव सर्वोपरि होती है लेकिन पुनः ब्लाग लेखन में आपकी वापसी ने प्रमाणित किया है कि वह जो फूल आपके मानस में प्रस्फुटित है उसे कदापि नहीं मुरझाने दें। शब्द ही हृदय जोड़ते हैं। अतः शब्दों को निरंतर निर्झर बहने दें।- कमलेश पांडेय, मो. 09831550640
प्रोत्साहन के लिए शुक्रिया पांडेय जी। बेशक लेखन में कोई सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। लेखन लेखक के मनोभावों के लिए कथार्सिस का कार्य करता है। इसलिए कोई पढ़े या न पढ़े , टिप्पणी करे या करे , इन बातों से ऊपर उठकर लेखन से दूर रहना निश्चित ही असंभव सा है। हाँ , अब पहले जैसा उत्साह नहीं रहा ब्लॉग लिखने में , क्योंकि इसमें समय बहुत लगता है , लिखने और पढ़ने में भी। फेसबुक टी २० की तरह सब पर छाया हुआ है।
Delete