top hindi blogs

Sunday, May 18, 2014

जब हम रात के अंधेरे मे सुनसान सड़क पर फंस गए थे --- एक संस्मरण !


सन १९८१ की बात है. हम नए नए डॉक्टर बने थे . तभी कुछ मित्रों ने वैष्णों देवी जाने का प्रोग्राम बना लिया . एक चार्टर्ड बस कर मित्र समूह और कुछ अन्य परिवारों से बस भरी और रात के समय हम रवाना हो गए कटरा की ओर . रात मे १४ किलोमीटर की ट्रेकिंग , फिर आइस कोल्ड वाटर मे स्नान कर , भीड़ मे लाइन लगाकर गुफा मे प्रवेश और अंत मे क्या देखा , यह सोचते हुए वापसी , सब कुछ बड़ा एडवेन्चरस और मनोरंजक लगा था . बस मे भी क्योंकि युवाओं की भरमार थी , इसलिये पूरा सफ़र भी मज़ेदार रहा . 

लेकिन वापसी मे विचार बना कि चलो अमृतसर मे स्वर्ण मंदिर होकर आया जाये . शाम ढल चुकी थी , रात का खाना भी नहीं खाया था . प्रोग्राम यही था कि अमृतसर चलकर ही भोजन करेंगे . कटरा से निकलकर जल्दी ही सड़क सुनसान होने लगी थी . धीरे धीरे अंधेरा भी होने लगा था . युवा दिलों ने अंताक्षरी खेलनी शुरू कर दी . भक्ति भावना के बीच थोड़ी मस्ती भावना किसी को भी बुरी नहीं लग रही थी . सभी एन्जॉय कर रहे थे . तभी सरपट दौड़ती बस अचानक एक झटके के साथ रुक गई . उस वक्त रात के करीब ८ बजे थे . बाहर घनघोर अंधकार था . सड़क पर भी कहीं कोई लाइट नहीं थी . दूर दूर तक बस अंधेरा ही अंधेरा दिख रहा था . ड्राईवर ने नीचे उतरकर चेक किया और बताया कि गाड़ी के इंजिन मे कोई पार्ट टूट गया है जो ठीक नहीं हो सकता . अब सुबह होने पर गेराज को ढूंढा जायेगा . तब तक वहीं रुकना पड़ेगा . 

यह सुनकर सब सकते मे आ गए . हालांकि खाना किसी ने नहीं खाया था , लेकिन सबके पास खाने का समान था . इसलिये खाने की चिंता किसी को नहीं थी . हमने भी उदारता दिखाते हुए सबसे पूछा कि यदि किसी को खाने के लिये कुछ चाहिये तो हमसे ले सकता है . लेकिन किसी को ज़रूरत नहीं थी , इसलिये हम अपना सा मूँह लेकर बैठ गए . आखिर सबने अपना अपना खाना निकाला और भोजन किया . लेकिन फिर जल्दी ही समस्या आई कि अब क्या किया जाये . बाहर ठंड थी , इसलिये गाड़ी के शीशे बंद थे . ऐसे मे लोगों ने सोना शुरू कर दिया . जल्दी ही सारी बस खर्राटों से गूंज रही थी . जिंदगी मे इतने विविध प्रकार के खर्राटे हमने कभी ना सुने थे , ना फिर कभी कही सुने . लेकिन थोड़ी देर बाद अंदर सांस घुटने लगा तो हमने सोचा कि चलो बाहर निकलकर देखते हैं . लेकिन बाहर बारिश शुरू हो चुकी थी . 

एक तो ठंड , उपर से बारिश और घनघोर अंधेरा. ट्रैफिक भी बिल्कुल नहीं था . बिल्कुल सुनसान सड़क पर आधी रात मे हम समझ नहीं पा रहे थे कि जाएं तो कहाँ जाएं . यह भी नहीं पता था कि आस पास क्या है , है भी या नहीं . थोड़ा डर भी लगने लगा था . हालांकि उस वक्त पंजाब मे डर की कोई बात नहीं थी . किसी तरह तड़प तड़प कर रात गुजारी . सुबह हुई तो पता चला कि हम एक सुनसान इलाके मे खड़े थे जहां दूर दूर तक कोई इंसानी बस्ती नहीं थी . एक ट्रक वाले से पता चला कि वहां से दो किलोमीटर दूर एक ढाबा है जिस पर चाय मिल सकती है . अब तक सबके नक्शे ढीले हो चुके थे . अब हमारे चाय के प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया गया और हम भी रॉबिन हुड की तरह दिलेर होकर निकल पड़े ढाबे की ओर . हम तीन चार लड़कों ने एक बाल्टी मे चाय भरी , ढाबे मे जितनी भी ब्रेड थी , सभी थैले मे भरी और एक ट्रक मे लिफ्ट लेकर पहुंच गए अपनी बस मे जहां सब बेसब्री से हमारा या यूं कहिये चाय नाश्ते का इंतज़ार कर रहे थे . अब सबने चाय और ब्रेड ऐसे खाई जैसे बरसों के भूखे हों . दिन के ढाई बजे बस ठीक हुई और हम रात के दस बजे अमृतसर पहुंचे . हमारी किस्मत अच्छी थी या ये कहें कि गुरुद्वारे के लोग अच्छे थे , उन्होने हमे बंद होने के बावज़ूद अंदर प्रवेश करने दिया और हम पूरा गोल्डन टेम्पल देख सके . साथ ही हरमिंदर साहब के दर्शन भी कर सके . 

यह समय समय की ही बात होती है कि यही पृथ्वी कभी स्वर्ग , कभी नर्क नज़र आने लगती है . लेकिन स्वर्ग को नर्क मे परिवर्तित करने वाले भी हम ही होते हैं . यदि सौहार्दपूर्वक रहा जाये तो यही पृथ्वी स्वर्ग से कम नहीं है .   





21 comments:

  1. शुक्र मनाइये की आपको किसी 'भूत ' के दर्शन नहीं हुए --वरना --- --

    ReplyDelete
    Replies
    1. पंजाब की धरती सदा स्वर्ग जैसी रही है ! लेकिन एक समय ऐसा भी था जब पंजाब मे होना पसीने छुड़ा देता था ! शुक्र है कि वो दौर जल्दी ही खत्म हो गया !

      Delete
  2. अगर फिर्दोशे जमी अस्त । अमी अस्त।
    बस में सभी सोहार्द पूर्वक थे।
    भय भी जाता रहा। संघटन में अधभुत शक्ति है।

    ReplyDelete
  3. अगर फिर्दोशे जमी अस्त । अमी अस्त।
    बस में सभी सोहार्द पूर्वक थे।
    भय भी जाता रहा। संघटन में अधभुत शक्ति है।

    ReplyDelete
  4. ज़रा गौर फरमायें -- बात १९८१ की है ! यादि १९८४ का समय होता तो क्या होता , यही सोचकर ----

    ReplyDelete
    Replies
    1. >> सन १९९४ की बात है.
      isn't that 1994 ?

      Delete
  5. अच्छा संस्मरण ।

    ReplyDelete
  6. वो राह को ढाबे से ब्रेड चाय का भोग.. ये एहसास एक बार हो चुका है.. जब भूख लगी तो खुशबू के ज़रिए रोटी तक पहुंचना हुआ था मेरा

    ReplyDelete
  7. वाह... इसे ही तो कहते हैं यात्रा। जब तक रोमांच न हो यात्रा का क्या मजा.

    ReplyDelete
  8. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (19-05-2014) को "मिलेगा सम्मान देख लेना" (चर्चा मंच-1617) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

    ReplyDelete
  9. waah ji,
    aapke likhe ko padhte huye aise lagaa jaise main bhi aapke saath hi hoon.
    CHANDER KUMAR SONI

    ReplyDelete
  10. पूरा पढ़ के चैन की सांस आई !

    ReplyDelete
  11. होता है जी...मैं जब 1992 में गया था..तब हालात काबू में आ रहे थे...परंतु दिल तो धड़क ही जाता था...

    ReplyDelete
  12. ओह!!!! रोमांचकारी यात्रा संस्मरण ..

    ReplyDelete
  13. सब कुछ दिल के अन्दर ही होता है ... स्वरक या नरक ... वो ज़माने अलग थे जब ऐसे ही टोलियाँ निकल पड़ती थीं घूमने को .... दर नहीं रहता था ... अब तो ये बातें कल्पनाओं की हैं ...

    ReplyDelete
  14. रोमांचकारी यात्रा....

    ReplyDelete