खुले दरवाज़े की
बंद जाली के पीछे से
बूढी अम्मा की पथराई आँखें,
ताक रही थीं सूने कॉरिडोर को।
इस आशा में कि कोई तो आए,
या कोई आता जाता ही दिख जाए।
लेकिन बड़े शहर की
पॉश बहुमंज़िला ईमारत के,
एक ब्लॉक के २८ मकानों में
रहते ही थे ३० लोग ।
कई मकान थे खाली, कइयों में
नव विवाहित किरायेदार।
और बाकियो में रह रहे थे अकेले
विदेशों में बस गए युवाओं के
मां-बाप, जो दिखते
बूढ़े हाथों में सब्ज़ियों का थैला उठाये।
या खाली मां या अकेला बाप
बूढी अम्मा की तरह।
ऐसा नहीं कि विदेशी बच्चे
मात पिता की परवाह नहीं करते।
अमेज़ॉन से हर दूसरे दिन
कोई न कोई पैकेट भिजवाकर
रखते हैं पूरा ख्याल।
कभी चिप्स, कभी ड्राई फ्रूट्स तो कभी कोला,
लेकिन जब घर आने के लिए बोला ,
तो बेटे को महँगी टिकट का ख्याल
मां बाप से ज्यादा आता है।
बहु को भी बच्चों का बंधन
बड़ा नज़र आता है।
उन्ही बच्चों का लालन पालन
इन्हीं मात पिता ने इसी तरह किया था
अपने अरमानों पर अंकुश लगाकर।
आबादी भले ही १४० करोड़ पार कर जाये,
देश भले ही विश्व में नंबर एक पर आ जाये।
पर उनका तो एक ही बच्चा है ,
बूढी अम्मा समझती है
बेटे की दूरी और दूरी की मज़बूरी।
बस मोतियाबिंद से धुंधलाई आँखों की
सूखी पलकों में ,
अश्क का एक कतरा अटक गया है।
कॉरिडोर और धुंधला नज़र आ रहा है ,
शायद कोई आ रहा है,
या फिर
कोई आने जाने वाला जा रहा है।
नोट : यह रचना किसी को रुला भी सकती है।