पार्क में एक पेड़ तले दस बुज़ुर्ग बैठे बतिया रहे थे,
सुनता कोई भी नहीं था पर सब बोले जा रहे थे !
भई उम्र भर तो सुनते रहे बीवी और बॉस की बातें,
दिन मे चुप्पी और नींद मे बड़बड़ाकर कटती रही रातें !
अब सेवानिवृत होने पर मिला था बॉस से छुटकारा,
बरसों से दिल मे दबा गुब्बार निकल रहा था सारा !
वैसे भी बुजुर्गों को मिले ना मिले रोटी का निवाला ,
पर कोई तो मिले दिन में उनकी बातें सुनने वाला !
लेकिन बहू बेटा व्यस्त रहते हैं पैसा कमाने की दौड़ में,
और बच्चे कम्प्यूटर पर सोशल साइट्स के गठजोड़ में !
विकास की आंधी ने संस्कारों को चूर चूर कर दिया है,
एक ही घर मे रहकर भी परिवारों को दूर कर दिया है !
फिर एक साल बाद :
उसी पेड़ तले वही बुजुर्ग बैठे बतिया रहे थे,
लेकिन आज संख्या में आधे नज़र आ रहे थे।
अब वो बातें भी कर रहे थे फुसफुसा कर,
चहरे पर झलक रहा था एक अंजाना सा डर।
शायद चिंतन मनन हो रहा था इसका,
कि अब अगला नंबर लगेगा किसका।
पार्क में छोटे बच्चों की नई खेप दे रही थी दिखाई,
शायद यह आवागमन ही ज़िंदगी की रीति है भाई।
sundar rachna
ReplyDeleteआभार।
DeleteMarmsparshi
ReplyDeleteआभार।
Deleteये ही जीवन कि सच है।
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी सृजन।
जो कल हम छोड़ आते वो कल किसी और का है।
आभार।
Deleteआभार।
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