सर्दियों में वेट बढ़कर पेट अक्सर निकल जाता है,
क्या करें, दावत का रोज ही अवसर मिल जाता है।
हाथ पैर अकड़े होते हैं, परंतु ये मुंह चल जाता है।
ग़ज़्ज़क, पट्टी, गाजर का हलवा देख मन ललचाये,
खाते पीते नये साल का जश्न भी हिलमिल जाता है।
गर्म कपड़े अभी सम्भले भी नही होते अलमारी में,
पलक झपकते सर्दियों का मौसम निकल जाता है।
पल दो पल की जिंदगी है , जश्न मनाओ 'यारो',
देखते देखते जवां वक्त हाथों से फिसल जाता है।
कोरोना कष्टकाल कम हुआ है, पर बीता नही है,
इंसान वो होता है जो वक्त रहते संभल जाता है।
बहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteबधाई हो आपको।
सँभलते सँभलते भी कोरोना हो जाता है 😊
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