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Tuesday, January 12, 2021

इंसान वो होता है जो वक्त रहते संभल जाता है --

सर्दियों में वेट बढ़कर पेट अक्सर निकल जाता है,

क्या करें, दावत का रोज ही अवसर मिल जाता है।


कम्बल रज़ाई में बैठे बैठे खाते रहते हैं सारा दिन,

हाथ पैर अकड़े होते हैं, परंतु ये मुंह चल जाता है।


ग़ज़्ज़क, पट्टी, गाजर का हलवा देख मन ललचाये,

खाते पीते नये साल का जश्न भी हिलमिल जाता है।


गर्म कपड़े अभी सम्भले भी नही होते अलमारी में,

पलक झपकते सर्दियों का मौसम निकल जाता है।


पल दो पल की जिंदगी है , जश्न मनाओ 'यारो',

देखते देखते जवां वक्त हाथों से फिसल जाता है।


कोरोना कष्टकाल कम हुआ है, पर बीता नही है,

इंसान वो होता है जो वक्त रहते संभल जाता है।


2 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना।
    बधाई हो आपको।

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  2. सँभलते सँभलते भी कोरोना हो जाता है 😊

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