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Wednesday, October 18, 2023

प्रस्थान


ढलती उम्र में हम कैसा कहर ढाने लगे हैं,

पुरानी पत्नी संग नया घर बसाने लगे हैं ।


उम्र तो है वन की ओर प्रस्थान करने की,

उपवन में कोयल संग दिल बहलाने लगे हैं। 


ना जग का लिहाज़ रहा ना उम्र की फिक्र,

कुटिया की जगह कोठियां बनाने लगे हैं। 


मकान है बड़ा और घर में नहीं कोई नौकर,

आधा दिन हम रसोईघर में बिताने लगे हैं। 


नहीं कोई संगी साथी, रहते हैं दिन भर अकेले,

मानो सूनी गलियों में चौकीदारा निभाने लगे हैं। 


ज़िंदगी भर जीते रहे ईमानदारी की ज़िंदगी,

अब पड़ोसी के अमरूद देख ललचाने लगे हैं। 


उम्र तो दिखाई देती है योगी बन जाने की,

भोगी बनकर ऐश्वर्य संसाधन जुटाने लगे हैं। 


ज़िंदगी भर रहे दिल्ली के हरियाणवी बन कर,

अब हरियाणा के हरियाणवी कहलाने लगे हैं। 


दो कश्तियों में पांव रख कर घूम रहे हैं हम,

यहां वहां दो दो जगह रिश्ता निभाने लगे हैं। 


मकान हों अनेक भले ही पर बीवी तो एक भली,

बस यही समझने और सब को समझाने लगे हैं। 











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