लॉकडाउन जब हुआ तो हमने ये जाना ,
कितना कम सामां चाहिए जीने के लिए।
तन पर दो वस्त्र हों और खाने को दो रोटी ,
फिर बस अदरक वाली चाय चाहिए पीने के लिए ।
पैंट कमीज़ जूते घड़ी सब टंगी पड़ी बेकार ,
बस एक लुंगी ही चाहिए तन ढकने के लिए ।
कमला बिमला शांति पारो का क्या है करना ,
ये बंदा ही काफी है झाड़ू पोंछा करने के लिए।
वर्क फ्रॉम होम को वर्क एट होम समझा कर ,
मैडम एक गठरी कपड़े और दे गई धोने के लिए ।
ग़र नहीं कोई जिम्मेदारी और वक्त बहुत है ज्यादा ,
एक फेसबुक ही काफी हैं वक्त गुजारा करने के लिए ।
हैण्ड वाशिंग मुंह पे मास्क रेस्पिरेटरी हाइजीन और,
लॉकडाउन का पालन करो कोरोने से बचने के लिए।
आदमी तो बेशक हम भी थे काम के 'तारीफ़',
किन्तु घर बैठे हैं केवल औरों को बचाने के लिए। r
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 11 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत शानदार सृजन ।माहौल को हल्का करने को ख्याल अच्छा है ।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (20-04-2020) को 'सबके मन को भाते आम' (चर्चा अंक-3677) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteकितना तामझाम रहता है लेकिन लॉकडाउन ने समझा दिया खामख्वाह ही इतना कुछ लादे रहते हैं हम
ReplyDeleteबहुत अच्छी सामयिक रचना
कठिन घड़ी में चुटीले अंदाज़ के साथ सच ब्यान करती समसामयिक रचना ...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसार्थक और सामयिक रचना..... दराल जी, एक लम्बे अरसे के बाद आप को नमस्कार कर रहा हूँ|
ReplyDeleteनमस्कार चतुर्वेदी जी। आजकल ब्लॉग्स पर आना सबका ही कम हो गया है।
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