हमारी आस्थाएं :
मथुरा से करीब २० किलोमीटर दूर है गोवर्धन। श्रीकृष्ण जी से सम्बंधित एक छोटा सा क़स्बा जहाँ स्थित है गोवर्धन नाम का पहाड़ , जिसे कहते हैं कभी श्रीकृष्ण जी ने अपनी छोटी उंगली पर उठाया था। अब यहाँ एक छोटी सी पहाड़ी सी ही है जिसके चारों ओर भक्तजन २१ किलोमीटर की पैदल परिक्रमा कर पुण्य कमाते हैं।
किसी काम से यहाँ जाना हुआ तो हमने भी सोचा कि चलो गाड़ी में बैठकर ही एक चक्कर लगा लिया जाये क्योंकि परिक्रमा करने के लिए पैदल ही एक तरीका नहीं है बल्कि लोग रिक्शा , ऑटो और कार में बैठकर भी परिक्रमा करते हैं। हालाँकि परिक्रमा का असली तरीका है पेट के बल लेटकर कैटरपिलर की तरह चलते जाना। मेन रोड से परिक्रमा एक गली में शुरू होती है जो पहाड़ी के साथ साथ जाती हुई अनेकों गावों से गुजरती हुई एक इलिप्टिकल सर्कल के रूप में उसी सड़क में आ मिलती है। सड़क के शुरू में लगभग १०० मीटर तक भिखारियों और साधु बाबाओं की कतार लगी थी। आगे कुछ आश्रम और धर्मशालाएं दिखी जहाँ रुकने का इंतज़ाम था। लेकिन एक किलोमीटर के बाद ही एक गांव में ट्रैफिक जैम हो गया। गांव की कीचड में मुश्किल से गाड़ी रिवर्स कर हम वापस आ गए मेन बाजार में जहाँ सड़क पर ही बने एक मंदिर में भक्तजनों ने हाथ जोड़े और फिर तलाशने लगे खाने के लिए कोई अच्छा सा रेस्ट्रां।
एक धार्मिक स्थल के रूप में प्रसिद्द होने के कारण यहाँ देश और विदेश से भी सैलानी और आस्थापूर्ण भक्त मंदिरों में दर्शन करने के लिए आते हैं। इसलिए सड़क पर भिखारियों और साधुओं का जमावड़ा बना रहता है। धूलभरा यह क़स्बा कहीं से भी विकसित नहीं लगता। लेकिन एक दुकान पर लगी भीड़ देखकर यह तो समझ में आ गया कि वह यहाँ का सबसे मशहूर ढाबा था। खाने में पूड़ी और कचौड़ी धड़ल्ले से बिक रही थी। वैसे देसी घी में बनी कचौड़ी वास्तव में बहुत स्वाद थी। बस खाने के लिए आदिवासी बनना पड़ा। दुकान के अंदर भी घी का धुआं और अँधेरा था। बाहर सड़क पर मथुरा के मशहूर पेड़े जगह जगह बनाये जा रहे थे।
सूटेड बूटेड दिल्ली के शहरी बाबू को देखकर भिखारी भी मक्खियों की तरह मंडरा रहे थे। किसी तरह वहां से निपटकर हम अपनी गाड़ी में बैठे और चल दिए अपने गंतव्य की ओर यह सोचते हुए कि हमारा देश कितना आस्थाओं का देश है जो आज भी विकास से दूर पौराणिक धार्मिक गाथाओं के वशीभूत होकर जी रहा है।
ढाबे में बैठे इस युवक को यंत्रवत पूड़ी सब्ज़ी डोंगे में डालते हुए , जम्हाई लेते हुए ग्राहकों को देते हुए देखकर लगा कि ये बेचारा तो लगता है सारी जिंदगी यही काम करता रहेगा। शायद दिन महीने साल गुजरते जायेंगे , भक्तजन यहाँ यूँ ही आते जायेंगे।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " एक थी चिरैया " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआपने लिखा...
ReplyDeleteकुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 09/02/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक207 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
इसीलिए मथुरा वृन्दावन जाने का मन नहीं होता
ReplyDeleteडाक्टर साहब , यही इस देश की विविधता है , आस्थाओं के इस देश मे प्रगति की रफ्तार बौनी हो गई है , हमारे या आपके या उनके किसके हों भगवान इसी की खीचातानी है , भगवान की किसे परवाह है
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