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Saturday, July 27, 2013

पर्यावरण की सुरक्षा यानि मानव जाति की रक्षा --- कुछ दिलचस्प तस्वीरें।


पर्वत हमें सदा ही अचंभित और रोमांचित करते रहे हैं। ऊंचे ऊंचे पहाड़ , पहाड़ों को काट कर बनाई गई सड़कें, दो पर्वतों के बीच बहती नदिया , नदिया का स्वरूप , कल कल करता निरंतर बहता निर्मल पानी देख कर प्रकृति की महानता का अहसास होता है। लेकिन पर्वत कितना भयंकर रूप भी धारण कर सकते हैं , यह अभी उत्तराखंड में आई प्राकृतिक विपदा से भली भांति समझा जा सकता है।

पहाड़ों में निरंतर कम होते पेड़ पौधे , लेकिन बढ़ते कंक्रीट जंगल और मानव जाति की प्रकृति के साथ छेड़ छाड़  तथा गाड़ियों का अविराम आवागमन पर्वतों के साथ मानवीय संतुलन को बिगाड़ देता है। नतीजा सामने है , हमने देख लिया। इस विपदा के समय , आइये एक नज़र डालें इस प्राकृतिक सम्पदा और इस पर मानवीय विकास के प्रभाव पर। एक फोटोग्राफर के लिए तो यहाँ जैसे खज़ाना छुपा रहता है।  प्रस्तुत हैं , धर्मशाला में बिताये एक सप्ताह में खींची कुछ दिलचस्प तस्वीरें :    




यह आकृति कोई फॉसिल नहीं बल्कि स्लेट नुमा पत्थरों से बनाई गई है। पहाड़ों में पत्थर अनेकों रंग रूपों में मिलते हैं। स्लेटी पत्थर किसी किसी जगह बहुतायत में पाए जाते हैं। टूट टूट कर ये पत्थर अलग अलग आकार और साइज़ में बदल जाते हैं।





स्लेटी पहाड़ 




बायीं वाली छाया को पहचानना कठिन नहीं , लेकिन दायीं ओर की छाया नारी की है , यह विश्वास करना मुश्किल सा लगता है।




बहते पानी में घिस घिस कर पत्थरों का आकार और शक्ल विभिन्न रूप धारण कर लेता है। लेकिन बीच नदी के यह मेमथ (  विशालकाय ) पत्थर कैसे आया , यह समझ न आया।





इस पेड़ की उम्र ज्यादा है या यह किसी शिकारी का शिकार बन गया है , यह समझना मुश्किल है।




पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक है कि पहाड़ों पर कूड़ा करकट न फैलाया जाये। इसके लिए जगह जगह आवश्यक निर्देश जारी किये जाते हैं , फिर भी कुछ शरारती तत्त्व इस तरह की हरकत करने से बाज नहीं आते। हमें ख़ुशी है कि हमारे दोनों बच्चों को विधालय में इस बारे में अच्छा ज्ञान दिया गया था। अत:
हम भी कभी गलती नहीं करते। लेकिन क्या आप करते हैं , ज़रा सोचिये !
 




पहाड़ में बनी यह गुफा नुमा जगह आदि मानव का आशियाना होती थी, जो उसे न सिर्फ सर्दी गर्मी और बरसात से बचाती थी बल्कि जंगली जानवरों से भी रक्षा करती थी। ट्रेकिंग रूट पर यह ट्रेकर्स के लिए भी वरदान साबित होती है।




ऊंचे पहाड़ों पर चाय की दुकान मिल जाये तो बांछें खिल जाती हैं। ऐसे में ३० रूपये की एक गिलास चाय पीकर भी आनंद आ जाता है।




पहाड़ी नदियों की एक विशेषता यह होती है कि इनका पानी इतना साफ़ और निर्मल होता है कि नदी के तल में भी सब कुछ साफ़ दिखाई देता है। ज़ाहिर है , यह इन्सान के दुषप्रभाव से बचा हुआ होता है।




ये चोटियाँ कभी बर्फ से ढकी होती थी। लेकिन मानव जाति ने इतना विकास कर लिया कि पहाड़ों से उनका श्रृंगार ही छीन लिया। इसे ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव कहें या कलयुग का , लेकिन जिस तेजी से हमारे ग्लेसियर्स पिघलते जा रहे हैं और पहाड़ नंगे होते जा रहे हैं , वह दिन दूर नहीं जब पर्वतों की मनमोहक छवि केवल किताबों में देखने को मिलेगी और हमारी नई पीढ़ी पूछेगी कि हिम आच्छादित पर्वत क्या होते हैं !

नोट : यदि आप पर्यावरण की रक्षा करना चाहते हैं तो पहल स्वयं से कीजिये और दूसरों को भी सही रास्ता दिखाइए ताकि यह प्राकृतिक धरोहर सुरक्षित रहे और हम सालों साल इनका आनंद लेते रहें।  


Tuesday, July 23, 2013

कवि हर हाल में अपना फ़र्ज़ निभाते हैं ---


एक दिन एक कवि मित्र का फोन आया,
बोले भाया।

हम एक हास्य कवि सम्मेलन करा रहे हैं।
उसमे आपको भी बुला रहे हैं ।

लेकिन हम कुछ दे नहीं पाएंगे ,
क्या फिर भी आप कविता सुना पाएंगे ?

हमने कहा भैया, हम कुछ लेकर नहीं सुनाते हैं,
हम वो कवि हैं जो कुछ न कुछ पल्ले से देकर ही सुनाते हैं।

आप हमें अवश्य बुलाइये,
और हमारे लायक कोई सेवा हो तो निसंकोच बतलाइये।

चाहें तो कवियों के लिए ताकत की दवा लिखवा लें,
या फिर सौ दो सौ श्रोताओं का मुफ्त बी पी चेक करवा लें।

कहिये आप हम से क्या सेवा करवाएंगे,
वो बोले , यह तो आपकी कविता सुनकर ही बता पाएंगे।  



कविता सुनाने की जब हमारी बारी आई
अभी हमने आधी कविता ही थी सुनाई,

कि श्रोता जोर जोर से तालियाँ बजाने लगे।
यह देखकर हम और भी जोश में आने लगे।

लेकिन जब शोर हद से ज्यादा होने लगा
और हमें भी कुछ कुछ समझ में आने लगा,

तो हमने कहा मित्रो , आप काहे शोर मचा रहे हैं ,
आखिर लाख रूपये की कविता, हम मुफ्त में सुना रहे हैं।

तभी एक श्रोता की आवाज़ आई ,
अरे मांफ करो भाई।

भले ही टैक्सी का किराया हमसे ले जाइये,
पर मेहरबानी करके आप बैठ जाइये।  



हमने बैठकर माथे का पसीना पोंछा,
और साथ बैठे कवि से पूछा।

भई इतनी गर्मी में भी माइक पर तेज रौशनी क्यों डालते हैं,
जबकि श्रोता तो आराम से अँधेरे में बैठते हैं।

कवि बोला, जब आप जैसे कवि श्रोताओं को बोर करते हैं ,
तब श्रोता सड़े टमाटर और अंडे उछालते हैं।

और निशाना सही जगह पर लगे ,
इसलिए कवि पर तेज रौशनी डालते हैं।

श्रोताओं को इसलिए मिलता अँधेरे का सहारा है ,
ताकि आप देख न पायें, कि टमाटर किसने मारा है।

आपने सही किया जो कहते ही बैठ गए
वर्ना जाने क्या हाल होता।

हमने कहा भैया, यदि  टमाटर हमें लग जाता,
तो चेहरा थोड़ा और लाल हो जाता।

पर यदि निशाना चूक जाता ,
तो सोचिये आपका क्या हाल होता।

मियां बर्ड फ्लू हो जाता , कच्चे अंडे खाकर ,
और फ़ूड पोइजनिंग हो जाती , ग़र पड़े सड़े टमाटर।

अब समझ में आया ,
ये अंडे और सड़े टमाटर कहाँ जाते हैं।

कुछ पट्ठे इकट्ठे कर सारे सड़े
अंडे टमाटर, बिहार के स्कूलों में बेच आते हैं ।



हम तो इतना कहेंगे यारो, मारो जम कर मारो
पर यार अंडे टमाटर अच्छी क्वालिटी के तो मारो।

उन्हें जब हम कवि देश के कुपोषित बच्चों को खिलाएंगे ,
तो उन बच्चों के एनीमिक चेहरे भी टमाटर से लाल हो जायेंगे।  


पैसों के लिए भ्रष्टाचारी भले ही , अपना ईमान गिराते हैं ,
लेकिन कवि हर हाल में दोस्तों, सदा अपना फ़र्ज़ निभाते हैं।


Thursday, July 18, 2013

सीमित मात्रा में यह आनंद देती है लेकिन अधिक मात्रा में हर लेती है ---


वैसे तो इस कलियुग में सात्विक प्रवृति के लोग मुश्किल से ही मिलते हैं, लेकिन शराब एक ऐसी चीज़ है जो सात्विक पुरुष को भी राजसी अवस्था में परिवर्तित कर देती है और अति हो जाये तो मनुष्य को तामसी स्तर पर ले आती है। लेकिन इस मृत्युलोक में रहकर कभी कभी राजसी ठाठ बाठ का भोग लगाने से बच पाना आसान नहीं होता क्योंकि एक इन्सान के लिए देवता बनना या बने रहना संभव नहीं है।

शराब में मूल रूप से एथाइल एल्कोहोल होता है जो ह्यूमेन फिजियोलोजी में एक नर्वस स्टीमुलेंट का काम करता है। यानि इसके सेवन से नर्वस सिस्टम पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि हमारे शरीर के विभिन्न अंग तेजी से काम करने लग पड़ते हैं। इसलिए पल्स , बी पी , साँस आदि सब तेज हो जाते हैं , पसीना आने लगता है , गर्मी का अहसास होता है। लेकिन सबसे ज्यादा प्रभाव हमारे मष्तिष्क पर पड़ता है जिस का पहला प्रभाव है यूफोरिया / मूड एलिवेशन / रिमूवल ऑफ़ इनहिबिशन। शराब का यही गुण है जिसके लिए आम तौर पर इसके शौक़ीन इसका सेवन करते हैं। इसी को पीने वालों की भाषा में सुरूर कहते हैं।

सुरूर से समाधी तक :

शराब के पहले पैग के बाद पीने वाला रिलेक्स्ड हो कर मस्त हो जाता है। पहले जो लोगों के बीच शरमाया सा बैठा था और किसी से बात करने में हिचकिचा रहा था , अब खुलने लगता है और बातचीत में हिस्सा लेने लगता है। यह इनहिबिशन ख़त्म होने की वज़ह से होता है। दूसरे पैग के बाद आप पूर्ण रूप से विचार विमर्श में मशगूल हो जाते हैं। तीसरे के बाद तो आप को चुप कराना ही मुश्किल हो सकता है। और चौथे पांचवें के बाद आपके बोलने का न कोई तर्क होता है , न कोई आपको सुन रहा होता है। इसके बाद भी यदि आपने एक पैग और ले लिया तो कहीं पड़े ही नज़र आयेंगे और हो सकता है कोई कुत्ता या तो आपका मूंह चाट रहा होगा या उसे जन सुविधा का संसाधन मानते हुए अपना काम कर निकल जायेगा।

बेशक , पश्चिमी देशों की भांति न तो शराब हमारे भोजन का अहम हिस्सा है , न हमारी संकृति का। लेकिन हमारे देश में इसे सदा ही जश्न का एक माध्यम माना गया है। इसलिए शादी हो या पार्टी या कोई अन्य समारोह , डिनर में हार्ड ड्रिंक्स का होना अनिवार्य सा हो गया है। ऐसे में यदि आप शराब नहीं पीते तो स्वयं को ऐसा महसूस करते हैं जैसे शादीशुदा लोगों के बीच आप अकेले कुंआरे फंस गए हैं। देखा गया है कि किसी भी समारोह में अधिकांश लोग मदिरापान कर रहे होते हैं , जिससे प्रतीत होता है कि इसे हमारे समाज में भी स्वीकृति प्राप्त है।

वैसे तो शराब पीने की सलाह नहीं दी जा सकती लेकिन यदि आप शौक रखते हैं तो शराब पीकर आप लाफिंग स्टॉक न बने , इसके लिए निम्नलिखित कुछ बातों का विशेष ध्यान रखना ज़रूरी है :

* कभी भी खाली पेट न पीयें , वर्ना बहुत जल्दी चढ़ जाएगी। साथ ही स्नैक्स लेते रहें , जिससे एब्जौर्प्शन धीरे हो जायेगा और आप ज्यादा देर तक सभ्य दिखते रहेंगे।
* पीने में जल्दबाजी न करें , धीरे धीरे पीयें न कि गटागट।
*  कुछ लोग पहला पैग ही लार्ज ( पटियाला ) बना लेते हैं। यह पियक्कड़ होने की निशानी है। बेहतर है स्मॉल पैग ही बनायें।
* कभी भी अन्जान लोगों के बीच बैठकर न पीयें , यह खतरनाक हो सकता है और आप लुट भी सकते हैं।
* जहाँ तक हो सके, अकेले बैठकर न पीयें। हालाँकि कुछ लोग नियमित रूप से घर में ही अकेले पीते हैं , विशेषकर फौजी लोग। लेकिन  इससे आदत पड़ने की सम्भावना बढ जाती है जो हानिकारक हो सकती है।
* यदि आपको ड्राइव करना है तो बेहतर है कि या तो आप न पीयें या अपने साथ कोई ऐसा रखें जो स्वयं न पीता हो। यह आपकी जान और माल दोनों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है।
* स्वास्थ्य और कानून , दोनों की दृष्टि से एक दिन में दो स्माल पैग ( ६० एम् एल ) से ज्यादा नहीं लेना चाहिए।
* हैंगओवर से बचने के लिए खाने में टमाटर का सेवन खूब करें। यह एल्कोहल को जल्दी मेटाबोलाइज कर शरीर से निकाल देता है जिससे सुबह तक आप फिट महसूस करते हैं। इसीलिए ब्लडी मेरी कॉकटेल हमें भी बहुत सही लगती है क्योंकि इसमें टमाटर जूस होता है।
* पानी की मात्रा भी प्रचुर रखने से डीहाइडरेशन नहीं होता और सर दर्द नहीं होता।
* कभी भी देसी दारू न पीयें , इसमें ज़हर ( मिथाइल एल्कोहल ) हो सकता है जो जान लेवा भी हो सकता है।

यदि आप उपरोक्त बातों का ध्यान रखेंगे तो निश्चित ही आप शराब के खतरों से बचे रहकर इसका आनंद उठा सकते हैं।

अब देखते हैं शराब के गुण और अवगुण : 

* कहते हैं -- सीमित मात्रा में यह आनंद देती है लेकिन अधिक मात्रा में हर लेती है। कभी कभार शादियों या पार्टियों में पीने से आम तौर पर कोई नुकसान नहीं होता विशेषकर यदि कंट्रोल रखा जाये। एक या दो स्माल पैग रोजाना पीने से भी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। इस मात्रा में रेड वाइन कॉलेस्ट्रोल को कम करती है और एक तरह से स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव डालती है। हालाँकि कॉलेस्ट्रोल कम करने का यह तरीका सही नहीं ठहराया जा सकता।

* शराब का सबसे बड़ा अवगुण है इसकी लत पड़ जाना। यह व्यक्ति विशेष और परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। लेकिन एक बार क्रॉनिक एल्कोहोलिक होने के बाद छोड़ना या सुधार लाना अत्यंत मुश्किल होता है।
शराबी व्यक्ति का न सिर्फ स्वयं का स्वास्थ्य बल्कि घर बार का बर्बाद होना लाज़िमी है।

* क्रॉनिक एल्कोहोलिज्म से लीवर ( यकृत / जिगर ) खराब हो जाता है जिसे सिरोसिस कहते हैं। सिरोसिस से लीवर फंक्शन ख़त्म हो जाते हैं , पेट में पानी भर जाता है , कई जगह से खून आने लगता है और अंत में लीवर फेल होकर या तो कोमा में चले जाते हैं या मृत्यु ही हो जाती है। लीवर सिरोसिस का कोई उपचार नहीं है।

* देखा जाये तो शराब एक मीठा ( स्वाद में कड़वा ) ज़हर है जो धीरे धीरे मनुष्य को हलाल करता है। लेकिन तभी जब शराब ही जिंदगी बन जाये। इसके दुष्परिणाम लम्बे समय के बाद नज़र आते हैं लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इसलिए बेहतर है कि समय रहते चेत जाएँ और इसे सिर्फ ख़ुशी का माध्यम बनायें न कि मातम का।

नोट : हमारे देश में २५ वर्ष की आयु से कम लोगों को मदिरापान की अनुमति नहीं है। लेकिन आजकल क्या हो रहा है , यह आप समाचारों में देख और पढ़ ही रहे हैं। ज़रा संभालिये अपने बच्चों को।                     

                     

Monday, July 15, 2013

नाम यूँ ही बदनाम है बेचारी शराब का ---


शराब एक ऐसी चीज़ है जिस पर सदियों से शायरों ने अनगिनत शे'र लिखे हैं , गीतकारों ने गीत लिखे हैं , जो उच्च समाज में प्रतिष्ठा का प्रतीक होती है , मध्यम वर्ग में जश्न का जरिया और निम्न वर्ग में जिंदगी बर्बाद करने का साधन। इसका सेवन भी आदि काल से होता आया है। आदि मानव से लेकर आधुनिक युग तक विभिन्न रूपों में शराब का उत्पादन और सेवन होता आया है। कहीं शराब को खराब माना जाता है , कहीं शराब और शबाब साथ मिलकर नवाबों की शान बनती है। लेकिन ख़राबी शराब में होती है या शराबी में , यह हमेशा बहस का विषय बना रहता है।

बात बहुत पुरानी है। तब हमने नया नया जॉब ज्वाइन किया था। एक दिन डॉक्टर्स के किसी कार्यक्रम का निमंत्रण मिला जिसमे कार्यक्रम के बाद कॉकटेल डिनर का आयोजन था। उन दिनों में कॉकटेल शब्द को बहुत बड़ा माना जाता था। ज़ाहिर है , शराब का सेवन अपेक्षाकृत इतना कॉमन नहीं था जितना आजकल हो गया है। इसलिए इस तरह के निमंत्रण को पाना एक सौभाग्य माना जाता था। हमने जब अपने एक वरिष्ठ साथी डॉक्टर को इसके बारे में बताया तो उनकी बांछें खिल गई और हम भी खुश हो गए कि चलिए कोई साथ तो मिला जो साकी का भी काम करेगा।   

कार्यक्रम में हम तो तन्मयता से भाषण सुन रहे थे और हमारे साथी बार बार घूमकर यह देख रहे थे कि शराब खुली कि नहीं। क्योंकि देर हो चुकी थी और लोगों को बेचैनी होने लगी थी , इसलिए अंतत: भाषण ख़त्म होने से थोड़ा पहले कॉकटेल काउंटर खुल गया। यह पता चलते ही हमारे साथी महाशय दौड़ पड़े और जब तक हम वहां पहुंचे तब तक वो जाने कितने पैग उदरस्थ कर चुके थे। जब हमने जाकर देखा तो पाया कि कुछ लोग उन्हें घेर कर खड़े थे और सब अपना अपना गिलास उन्हें सौंप रहे थे और वो भी गटागट बॉटम अप किये जा रहे थे। यह पागलपन देखकर हम तो सकते में आ गए। हमने उन्हें बड़ी मुश्किल से सब से दूर किया , लेकिन तब तक जो होना था वो हो चुका था। आखिर किसी तरह हमने जल्दी जल्दी कुछ खाया और उनकी सुध ली तो उन्हें चारों खाने चित पाया। अंत में उनके स्कूटर को अन्दर पार्क कर उन्हें एक ऑटो में डालकर रात के बारह बजे हमने उन्हें उनके घरवालों को सौंपा और अपने घर की ओर रवाना हुए।     

ऐसा नहीं है कि शराब ऐसी खराब चीज़ है कि इसका सेवन पाप समझा जाये। दरअसल ख़राबी पीने वाले के व्यवहार में होती है। इस घटना से कई बातें उजागर होती हैं जो शराब का सेवन करने वालों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इनके बारे में और शराब से होने वाले फायदे और नुकसान के बारे में अगली पोस्ट में। फ़िलहाल आप इस लतीफे का आनंद लीजिये : 

एक आदमी डॉक्टर के पास गया और बोला -- डॉ साहब मेरे पेट में दर्द रहता है।
डॉक्टर ने उसका मुआयना किया और कहा -- क्या आप शराब पीते हैं ?
रोगी बोला -- जी सच बोलूँगा , वो तो मैं पीता हूँ।
डॉक्टर -- देखिये शराब पीने से आपका ज़िगर ख़राब हो गया है और पेट में पानी भी भर गया है।
रोगी -- लेकिन डॉक्टर साहब पानी तो मैं पीता ही नहीं फिर पेट में पानी कैसे ! अच्छा याद आया शुरू में जब मैंने पीना शुरू किया था तब पानी मिलाकर पीता था लेकिन चढ़ जाती थी। तब से मैंने पानी पीना ही छोड़ दिया।
डॉक्टर -- लेकिन अब आपको छोड़नी पड़ेगी।
रोगी -- डॉक्टर साहब , प्लीज छोड़ने के लिए मत कहिये। हाँ , कम कर सकता हूँ।
डॉक्टर -- ठीक है , रोज कितना पीते हो ?
रोगी -- जी झूठ नहीं बोलूँगा , बस चार पीता हूँ।
डॉक्टर -- चलिए आज से तीन कर दीजिये , फिर दो सप्ताह बाद दो और --
रोगी -- ठीक है डॉक्टर साहब , लेकिन दो से कम मत कीजियेगा क्योंकि पूरी बोतल एक पैग में आ ही नहीं सकती।

नोट : असली शराबी वो होता है जो बेड टी की जगह चाय का कप नहीं बल्कि पैग लेकर बैठता है।       


Thursday, July 11, 2013

जब चाचा छक्कन ने केले खरीदे ---


सप्ताह भर से फेसबुक पर टमाटर पुराण पढ़ते पढ़ते टमाटर फोबिया इतना बढ़ गया था कि जब श्रीमती जी ने बताया कि घर में सब्जियां बिल्कुल ख़त्म हो गई हैं और आज तो लानी ही पड़ेंगी, तो डरते डरते हमने थैला उठाया और चल दिए मदर डेयरी के बूथ की ओर। मुख्य द्वार पर बड़े से साइन बोर्ड पर लिखा था -- शुद्ध वेज सब्जियांपढ़कर संतोष हुआ कि चलिए कम से कम इनमे कीड़े तो नहीं होंगे। साथ ही रेट लिस्ट पढ़कर तो जैसे बांछें ही खिल गई -- सब्जियों के भाव ५ रूपये से लेकर २ ० रूपये किलो तक लिखे थे। अब तो हमें अपने फेसबुक मित्रों पर बड़ा गुस्सा आया कि खामख्वाह हमें सप्ताह भर से डरा रखा था।

लेकिन अन्दर जाकर देखा कि सारी सब्जियां ६० से ८० रूपये किलो के भाव मिल रही थी। श्रीमती जी तो यह कहती हुई बाहर निकलने लगी कि सब्जियां अच्छी नहीं हैं लेकिन हमने बूथ वाले से रेट लिस्ट में लिखी सब्जियां देने को कहा तो थैले में डालने लायक कुछ तो मिला। हमने भी दिल समझाया कि जब बरसात में भी सूखा पड़ जाये तो कोई क्या करे।

वापसी में श्रीमती जी एक के बाद फरमाइश करती रही और हम पूरी करते रहे। अब तक थैला पूरा भर चुका था और खुले पैसे भी ख़त्म हो चुके थे। तभी हमें केले नज़र आ गए। हमारी पसंद का ध्यान रखते हुए श्रीमती जी ने ऑफर किया कि चलिए आपके लिए केले खरीदते हैं। हमने कहा कि खुले पैसे सारे ख़त्म हो चुके लेकिन ढूँढा तो एक दस का नोट मिल ही गया। आखिर ४० रूपये दर्ज़न के हिसाब से १० रूपये में तीन केले लेकर अपनी शॉपिंग पूरी हो गई। जिंदगी में पहली बार बस तीन केले खरीदे।  

लेकिन अब एक समस्या सामने आ खड़ी हुई। श्रीमती जी ने कहा कि केले तीन और हम दो , बंटवारा कैसे हो ! हमें भी तभी चाचा छक्कन याद आ गए तो हमने कहा कि ऐसे करेंगे कि पहले एक केला हम खा लेंगे फिर केले भी दो और खाने वाले भी दो। अभी हम अपने गणित के ज्ञान पर अभिमान कर ही रहे थे कि किसी के पुकारने की आवाज़ आई। हमने मुड़कर देखा तो पाया कि एक चार फुट का ज़वान अपनी उतने ही साइज़ की बीबी और एक छोटे से बच्चे को गोद में लिए हमारे सन्मुख खड़े थे। देखने में बिहारी से लग रहे थे लेकिन भिखारी नहीं।  हमने जब उसे घूरकर देखा तो वह हमारी मनोस्थिति को समझते हुए फ़ौरन बोला -- नहीं नहीं , हम पैसे नहीं मांगेंगे , हम तो बस --  लेकिन उसकी तीक्षण बुद्धि और तत्परता ने अब तक हमारी सिक्स्थ सेन्स को जगा दिया था।

वह कुछ समझा रहा था लेकिन हमें बस यही समझ आ रहा था कि वह भीख मांगने का कोई नया तरीका अपना रहा था। उसने जो लघु कथा सुनाई उसे यही समझ आया कि शायद वह कुछ खाने की बात कर रहा था। दिल्ली जैसे शहर में रहते हुए अब तक इतना अनुभव तो हो ही गया है कि यूँ किसी के बहकावे में न आयें। उन्हें देखकर यह नहीं लग रहा था कि वे वास्तव में भूखे थे। आखिर उससे पीछा छुड़ाने के लिए हमने कहा कि भैया देख हमारे पास पैसे तो सारे ख़त्म हो गए हैं लेकिन ये केले हैं , इन्हें ले लो। यह कह कर हमने थैले से केले निकाले और उसे सौंप कर चल दिए। चलते चलते हमने श्रीमती जी की ओर देखा और उन्होंने हमारी ओर और दोनों केलों के हिसाब पर ठहाका मार कर हंस पड़े।     

अब केलों का हिसाब पूर्ण हुआ तो हमने श्रीमती जी पूछा कि वह कह क्या रहा था। उन्होंने बताया कि वह कह रहा था -- हमें अपने घर ले चलिए और खाना खिला दीजिये और उनके पास ठहरने की जगह भी नहीं थी । अब यह तो आँखें खोलने वाली बात थी कि उसे पैसे नहीं चाहिए थे लेकिन रात के समय घर जाकर खाना खाना चाहता था और आश्रय भी। आखिर , कौन होगा जो एक अजनबी की इस बात पर विश्वास करेगा !

ज़रूरतमंद की मदद करना तो अच्छी बात है लेकिन कोई वास्तव में ज़रूरतमंद है , यह निर्णय लेना वास्तव में बड़ा कठिन है। आजकल जहाँ आम तौर पर अपनों का विश्वास नहीं रहा वहां क्या किसी अजनबी पर विश्वास किया जा सकता है ? कितनी ही गृहणियां ऐसे अजनबियों पर विश्वास कर लुट जाती हैं। दिल्ली जैसे शहर में रास्ते चलते यदि कोई किसी मज़बूरी का बहाना बनाकर आपसे मदद की गुहार करे तो मदद करने से पहले अच्छी तरह सोच विचार लें , वर्ना यह न हो कि कुछ समय बाद स्वयं आपको सहायता की आवश्यकता पड़ जाये।    

Monday, July 8, 2013

जब से 'वो' न रहा , साड्डा दिल नहीं लगदा पा जी ---


पिछले कुछ दिनों से फेसबुक पर टमाटर महिमा का गुणगान बहुत जोरों पर है। फेसबुकिये मित्र भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन खुल कर कर रहे हैं। इन्ही विचारों से उपजी है यह हास्य व्यंग रचना। टमाटर मिलें या न मिलें , आप पढ़कर ही स्वाद लीजिये :    

प्याज़ ने कहा आलू से --

कभी हम तुम और 'वो' , 
मिलकर बनाते थे भाजी।  
अब जब से 'वो' न रहा , 
साड्डा दिल नहीं लगदा पा जी।  

हर तरकारी के दिन फिरते हैं भैया, 
कभी हम बने थे किंग मेकर।  
लेकिन लगता है इस बार, 
बाज़ी मार ले जायेंगे टमाटर। 

इन्सान की जान से ज्यादा , 
टमाटर की कीमत हो गई है।    
यार इन लालुओं के सामने 
अपनी तो इज्ज़त ही खो गई है। 

लोग लोन लेकर खरीद रहे हैं, 
टमाटर, वो भी बिना ब्याज के।   
नादाँ ये भी नहीं जानते कि ,
भाजी क्या स्वाद बिना प्याज़ के।   

लेकिन अब हमारे आस पास भी ,
कोई ख़रीदार नहीं आता। 
टमाटर के लिए बहाते हैं ,
हमें देख कोई आंसू नहीं बहाता।  

लाल रंग से ही सब घबराने लगे हैं ,
आजकल टमाटर भी रुलाने लगे हैं।  

रुपया गिरा, सोना गिरा , ईमान गिर गया है। 
पर टमाटर ऐसा चढ़ा, दिमाग ही फिर गया है। 

सट्टे में भी दांव पर अब यही मिस्टर लगते हैं , 
अब तो रिश्वत में भी बस टमाटर चलते हैं। 

हर रोज सब्जी मार्किट में चोरियां हो रही हैं , 
पर चोरी सिर्फ टमाटर की बोरियां हो रही हैं।  

लगता है अब तो सरकार को भी ये ज़हमत उठानी पड़ेगी , 
मिनिस्टरों की घटाकर, टमाटरों की सुरक्षा बढ़ानी पड़ेगी।    


Friday, July 5, 2013

किस किस ने की इन्सान की ऐसी की तैसी ---


घर में ऐ सी, दफ्तर ऐ सी,
गाड़ी भी ऐ सी।
इस ऐसी ने कर दी,
सेहत की ऐसी की तैसी।

नेता भ्रष्ट, अफसर भ्रष्ट ,
इससे बाबू भी ग्रस्त।
इस भ्रष्टाचार ने कर दी,
संसार की ऐसी की तैसी।

चाय का पैसा, पानी का पैसा ,
चाय पानी का पैसा।
इस पैसे ने कर दी ,
इमान की ऐसी की तैसी।

दवा का खर्च , दारू का खर्च
दवा दारू का खर्च।
इस खर्च ने कर दी ,
इन्सान की ऐसी की तैसी।


पैदल से परहेज़, कारों का क्रेज़ ,
आफ़त है रोड रेज़ ।
इस आफ़त ने कर दी ,
शराफ़त की ऐसी की तैसी ।  


यार मतलब के, मतलब की यारी ,
बिन मतलब रिश्ते भारी।
इस मतलब ने कर दी ,
आपसी रिश्तों की ऐसी की तैसी।      

जान नहीं, नहीं पहचान,
बस हो जान पहचान।
इस समाधान ने कर दी ,
इम्तिहान की ऐसी की तैसी।     

वधु बिन शादी, शादी बिन प्यार,
बिन शादी लिव इन यार।
इस व्यवहार ने कर दी ,
संस्कार की ऐसी की तैसी।

दुष्ट इन्सान, रुष्ट भगवान ,
बलिष्ठ हुआ तूफ़ान।
इस तूफ़ान ने कर दी ,
सुन्दर जहान की ऐसी की तैसी।          


Tuesday, July 2, 2013

कुछ लोगों की वज़ह से सारे प्रोफेशन को बदनाम न करें --- डॉक्टर्स डे पर विशेष।


डॉ बी सी रॉय की याद में मनाये जाने वाले डॉक्टर्स डे पर सुबह सुबह फेसबुक पर डॉक्टर्स के बारे में मित्रों के विचार पढ़कर बड़ा मूड ख़राब हुआ। इन्हें पढ़कर हम जैसे दिल से कभी न लगाने वाले के भी दिल को सचमुच धक्का सा लगा कि मित्रगण भी डॉक्टर्स के बारे में ऐसा विचार रखते हैं। इस अवसर पर हमने भी अस्पताल में सभी डॉक्टर्स की मीटिंग बुलाई थी, संबोधित करने के लिए। आइये आपको भी अवगत कराते हैं, इस अवसर पर हुई मंत्रणा से :

मेडिकल कॉलेज में एडमिशन के समय अक्सर सीनियर्स फ्रेशर्स से एक सवाल पूछते हैं -- डॉक्टर क्यों बनना चाहते हो ? इस पर अक्सर फ्रेशर्स का ज़वाब होता है -- मरीजों की सेवा करने के लिए। यह सुनकर सभी जमकर ठहाका लगाते हैं -- देखो यह देशभक्त मरीजों की सेवा करना चाहता है। फ्रेशर को उस समय इस ठहाके का अर्थ समझ नहीं आता। समझ में आता है जब वह शिक्षा पूर्ण कर सड़क पर आता है , जीविका उपार्जन के लिए।

हमने आठवीं पास कर जब नवीं कक्षा में बायोलोजी विषय चुना तब लोगों न कहा -- अच्छा डॉक्टर बनना चाहते हो ! तब जाकर हमें पता चला कि बायोलोजी लेने से डॉक्टर बनते हैं। लेकिन आजकल न सिर्फ अभिभावक बल्कि बच्चे भी पैदा होते ही करियर की बात करने लगते हैं और इसके प्रति अत्यंत जागरूक होते हैं। हालाँकि आजकल मेडिकल और इंजीनियरिंग के अलावा छात्रों के सामने और बहुत से विकल्प उपलब्ध हैं,फिर भी मेडिकल प्रोफेशन का आकर्षण अभी भी बरक़रार है। इसलिए अभी भी डॉक्टर्स को क्रीम ऑफ़ द सोसायटी कहा जाता है।

हमने जब मेडिकल में एडमिशन लिया तब कोचिंग की न सुविधा थी , न ही सामर्थ्य। लेकिन अब बच्चे को अभिभावक नवीं कक्षा से ही मेडिकल एडमिशन की कोचिंग के लिए तैयार कर देते हैं। विधालय के साथ साथ चार साल की कोचिंग बच्चों के लिए कितना बड़ा बोझ होता है , यह आसानी से समझा जा सकता है। कमरतोड़ मेहनत और लाखों रूपये खर्च करने के बाद भी एडमिशन की कोई गारंटी नहीं होती। एडमिशन हो गया तो पांच वर्ष के लिए सारी दुनिया को भूलकर किताबी कीड़ा बनना पड़ता है। इस बीच ग्रेजुएशन करते करते पी जी की तैयारी शुरू हो जाती है। फिर दो साल की कोचिंग , पी जी एडमिशन के लिए। जिसे नहीं मिलता , वह प्राइवेट अस्पताल में पैसा देकर पी जी करता है जिसके लिए कितना रुपया देना पड़ता है , यह बताना भी संभव नहीं।

तीन साल तक पी जी करने के बाद तीन वर्ष की सीनियर रेजीडेंसी करनी पड़ती है। इसके बाद एक डॉक्टर फेकल्टी या कंसल्टेंट की पोस्ट के लिए एलिजिबल होता है। इस समय तक उसकी उम्र करीब ३० वर्ष हो चुकी होती है। लेकिन सरकारी अस्पताल में मुश्किल से १ % लोगों को जॉब मिलता है। बाकि सभी प्राइवेट अस्पतालों की ओर रुख करते हैं जहाँ आजकल डी एम् / एम सी एच की डिग्री के बिना आप घुस ही नहीं सकते। यानि फिर दो साल की एक और डिग्री जिसकी सीट्स बहुत कम होती हैं। इस तरह यदि भाग्य ने पूर्ण साथ दिया तो ३५ वर्ष की आयु में एक डॉक्टर अपनी जिंदगी शुरू करता है।

जो डॉक्टर इतना सब हासिल नहीं कर पाते उनके लिए एक ही रास्ता है कि वो लाखों रूपये लगाकर एक क्लिनिक खोल कर जनरल प्रेक्टिस करें जहाँ उनका कॉम्पिटिशन होता है अंगूठा छाप / झोला छाप क्वेक्स से जिन पर सरकार का भी कोई नियंत्रण नहीं है। सारे रूल्स रेगुलेशंस भी क्वालिफाइड डॉक्टर्स पर ही लागु होते हैं। दिन रात की मेहनत के बाद भी सारे डॉक्टर्स अच्छा पैसा कमा लेते हों , ऐसा भ्रम ही है।

बेशक डॉक्टर्स भी इन्सान ही होते हैं और उनकी भी ज़रूरतें वही होती हैं जो बाकि सब की होती हैं। हालाँकि भ्रष्टाचार से प्रभावित होने को कदापि सही नहीं ठहराया जा सकता, और न ही शिक्षा पर अत्यधिक खर्च होने से भ्रष्ट होने का तर्क स्वीकार्य है। फिर भी , वर्तमान परिवेश में जहाँ रोगी एक कस्टमर होता है और उसे कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट में डॉक्टर के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने का प्रावधान प्राप्त है, ऐसे में डॉक्टर का अतिरिक्त सावधान होना अनिवार्य है। नतीजन , उपचार की कीमत बढ़ जाती है। हालाँकि, डॉक्टर्स में भी ऐसे कई मिल जायेंगे जो हिप्पोक्रेटिक ओथ को भूलकर सिर्फ पैसे के पीछे दौड़ते हैं। फिर भी एक डॉक्टर ही होता है जो दर्द से तड़पते , कराहते या घायल रोगी को अपनी योग्यता से नया जीवन प्रदान करता है।

आज भले ही उपचार की अनेक तकनीक या विधाएं उपलब्ध हों , लेकिन बात जब शल्य चिकित्सा की आती है तब एक एलोपेथिक डॉक्टर निश्चित ही भगवान से कम नहीं होता। बाई पास सर्जरी हो या सिजेरियन , ऑर्गन ट्रांसप्लांट हो या डायलिसिस , आई वी एफ से संतान उत्पत्ति का सुख मिले या लासिक से दृष्टि दोष से मुक्ति , आधुनिक चिकित्सा का कोई विकल्प नहीं है। ऑपरेशन थियेटर के बाहर खड़े मरीज़ के रिश्तेदारों के लिए डॉक्टर सिर्फ और सिर्फ भगवान ही होता है क्योंकि उस समय रोगी की जिंदगी लगभग उसी के हाथों में होती है। ज़ाहिर है , रोगी को भी डॉक्टर पर विश्वास कर अपनी जिंदगी उसे सौपनी पड़ती है। अंत में किसी विरले केस को छोड़कर लगभग सभी रोगी जब निश्चेतना से बाहर आते हैं तब उसकी सांसें किसी दूसरी जिंदगी से कम नहीं होती।

अत: मित्रो , सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के वातावरण में रह कर भी डॉक्टर्स हमारे जीवन दाता होते हैं, इस बात से नकारा नहीं जा सकता। ऐसे में सिर्फ भड़ास निकालने के लिए डॉक्टर्स को दोष न देकर, आइये उस भगवान से प्रार्थना करें कि कभी इस भगवान के पास जाना न पड़े, क्योंकि यदि जाना ही पड़ा तो यही भगवान आपको उस भगवान के पास असमय जाने से रोक सकता है। लॉन्ग लिव डॉक्टर्स !             

नोट : अच्छे बुरे लोग सभी जगह होते हैं , इसलिए कुछ लोगों की वज़ह से सारे प्रोफेशन को बदनाम न करें , यही गुजारिश है ।