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Sunday, April 28, 2013

सबके बिगड़े काम बनाये ,एक कप चाय ---


सुबह उठते ही दो चीज़ें याद आती हैं , अखबार और चाय। दोनों एक दूसरे की पूरक भी हैं। एक न हो तो दूसरे में भी मन नहीं लगता। चाय का तो कोई विकल्प नहीं लेकिन यदि अख़बार न हो तो अब हम भी अन्य ब्लॉगर्स / फेसबुकियों की तरह कंप्यूटर खोल कर बैठ जाते हैं। आखिर सबसे ताज़ा ख़बरें तो यहीं मिल जाती हैं।

अक्सर फेसबुक खोलते ही अनूप शुक्ल जी की चाय पर 'कट्टा कानपुरी' कविता पढने को मिलती है। वहीँ से पता चलता है कि अनूप जी या तो चाय की चुस्कियां ले रहे होते हैं या इंतज़ार में कविता लिख रहे होते हैं। यह भी पता चलता है कि वह खुद कभी चाय नहीं बनाते बल्कि चाय बनाने वाले / वाली पर निर्भर रहकर चाय का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं।

लेकिन हम तो सुबह सबसे पहला काम ही यही करते हैं। श्रीमती जी का भी कहना है कि हम चाय बहुत अच्छी बनाते हैं। हालाँकि उनका तारीफ़ करने का मकसद हम भली भांति समझते हैं, लेकिन इस विषय में असहमति भी नहीं रखते। आखिर दुनिया में कोई और काम आये न आये , लेकिन कम से कम चाय बनाना तो आना ही चाहिए।

वैसे तो देशवासियों को चाय पीना अंग्रेजों ने सिखाया था लेकिन हम जो चाय पीते हैं उससे अंग्रेजों का कोई लेना देना नहीं है। देखा जाये तो हम चाय नहीं , चाय की खीर पीते हैं। वैसे तो चाय की अनेकों किस्में भारत में पैदा होती हैं और चाय बनाने के तरीके भी अनेक हैं। लेकिन पानी , दूध , चीनी और चाय की पत्ती से बनने वाली चाय का स्वाद हर घर में अलग होता है। इसका कारण है चाय बनाने का तरीका। आइये देखते हैं, चाय का स्वाद कैसे भिन्न भिन्न होता है :

पंजाबी लोगों की चाय में चीनी कम और दूध न के बराबर होता है जबकि पत्ती ज्यादा डालकर कड़क चाय बनाई जाती है। लेकिन हरियाणा के लोग शुद्ध दूध की चाय पीते हैं जिसमे चीनी भी दिल खोल कर डाली जाती है। अक्सर शहरी लोग या तो बिना चीनी की चाय पीते हैं या बहुत कम चीनी की। उधर ढाबों पर मिलने वाली चाय में आधा कप तो चीनी से ही भरा होता है। मजदूर लोग भी ऐसी ही चाय को पसंद करते हैं।

चाय में अलग अलग खुशबू तो चाय की किस्म पर निर्भर करती है लेकिन स्वाद बनाने पर। यदि चाय को सही तरीके से बनाया जाये तो यह न सिर्फ स्वादिष्ट होती है बल्कि फायदेमंद भी होती है। दूसरी ओर गलत तरीके से बनी चाय का स्वाद भी खराब होता है और नुकसानदायक भी हो सकती है। आइये देखते हैं क्या है चाय बनाने का सही तरीका :

तरीका बहुत आसान है इसलिए चाय बनाना सबके लिए संभव है। दो कप चाय बनाने के लिए सवा कप पानी और पौना कप ट्रिपल टोंड दूध ( डबल टोंड दूध जिसमे से मलाई निकाल ली गई हो ) चाहिए। यदि टोंड दूध हो तो आधा कप और फुल क्रीम दूध का चौथाई कप ही काफी रहेगा। पानी में चाय पत्ती डालकर उबलने तक गर्म कीजिये। उबाल आने पर १० -१५ सेकण्ड तक उबालिए। यदि तेज चाय चाहिए तो १५ सेकण्ड वर्ना १०- १२ सेकण्ड ही काफी है।  अब इसमें चौथाई चम्मच चीनी और दूध डालकर गर्म कीजिये। जब उबाल आने लगे तो चाय के बर्तन को उठाकर आंच पर हिलाते हुए उबालिए। धीरे धीरे चाय का रंग निखरता आएगा। लीजिये तैयार हो गई गर्मागर्म चाय।   

चाय के गुण और उपयोग :  

* चाय में मौजूद केफीन नर्वस सिस्टम पर प्रभाव डालकर उत्तेजित करती है। इसलिए ताजगी और स्फूर्ति प्रदान करती है।
* एंटीऑक्सिडेंट कई तरह के केंसर से बचाव करते हैं।
* सुबह की चाय उठते ही सुस्ती को दूर कर स्फूर्ति लाती है। हालाँकि बेड टी का प्रचलन अंग्रेजों ने शुरू किया होगा, लेकिन बिना कुल्ला किये चाय पीना अच्छी आदत नहीं।
* दिन भर में ५ -६ चाय पीना सामान्य है और काम में ध्यान लगाने के लिए सहायक सिद्ध होती है।
* चाय पीने से तनाव से मुक्ति मिलती है। इसलिए काम में उत्पादकता बढती है।
* चाय सभी पारिवारिक , सामाजिक, धार्मिक  और औपचारिक कार्यक्रमों में आवभगत का बढ़िया माध्यम है।
* अविवाहित लोगों के लिए चाय का बुलावा एक वरदान साबित होता है।
* विवाह प्रस्ताव में वर पक्ष को लड़की दिखाने के लिए जब घर पर बुलाया जाता है तो लड़की चाय लेकर ही सामने आती है।  
* दुनिया में पानी के बाद चाय ही ऐसा पेय है जो सबसे ज्यादा पिया जाता है। शायद लोगों को चाय पानी की आदत सी पड़ गई है। इसीलिए आजकल कहीं भी जाइये , बिना चाय पानी के कोई काम ही नहीं होता।  

अंत में : चाय पीजिये , खूब पीजिये , पिलाइये , खूब पिलाइये --  लेकिन खुद भी बनाइये। 

       

Tuesday, April 23, 2013

इंसानी भेड़िये कहीं बाहर से नहीं आते ---


दिल्ली में एक पांच वर्षीय बच्ची के साथ हुए अमानवीय कुकृत्य से सारा देश शोकाकुल है और शर्मशार भी। क्रोधित भी है क्योंकि व्यवस्था से जैसे विश्वास सा उठ गया है। ऐसे में आम आदमी का गुस्सा उबल पड़ा है। प्रस्तुत हैं इसी विषय पर कुछ मन के उद्गार , एक कवि की दृष्टि से :  
  
१)

दिल खुश हुआ कि, दिल्ली दमदार हुई ,
फिर एक बार पर, दिल्ली शर्मसार हुई।
कुछ जंगली भेड़ियों की कारिस्तानी से, 
फिर दिल्ली में इंसानियत की हार हुई।  

२)


निर्मल कोमल से, कच्ची धूप होते हैं,
बच्चे भगवान् का ही स्वरुप होते हैं।
जो मासूमों को कुचलते हैं बेरहमी से ,
उनके उजले चेहरे कितने कुरूप होते हैं।

३)


सीने में जलन है, पर रो नहीं सकती,
आँखों में नींद है, पर सो नहीं सकती।
इतने ज़ख्म दिए हैं बेदर्द ज़ालिमों ने,
इस दर्द की कोई दवा, हो नहीं सकती।     

४)


खुदा का हर बंदा भगवान नहीं होता
देवता बनना भी आसान नहीं होता।
दूषित है मानवता बस एक हैवान से, 
दुनिया में हर पुरुष शैतान नहीं होता।




नोट : व्यवस्था को सुधारने के साथ साथ हमें आत्मनिरीक्षण भी करना होगा। साथ ही सतर्क रहना भी आवश्यक है क्योंकि इंसानी भेड़िये कहीं बाहर  से नहीं आते बल्कि इंसानों की भीड़ में ही घुले मिले रहते हैं।  



Sunday, April 14, 2013

शेर जो देखन मैं चल्या, शेर मिल्या ना कोय ---

बचपन में शेर की कहानी सुनने में बड़ा मज़ा आता था। आज भी डिस्कवरी चैनल पर अफ्रीका के जंगलों की सैर करते हुए जंगली जानवरों के बारे में फिल्म देख कर बड़ा रोमांच महसूस होता है। शायद इसी वज़ह से हर साल १३ अप्रैल को जो हमारी वैवाहिक वर्षगांठ होती है, हमें जंगलों की याद प्रबल हो आती है। यूँ तो भारत में भी अनेक शेर और बाघ संरक्षित क्षेत्र हैं लेकिन इनमे जंगली जानवरों से सामना उतना ही असंभव लगता है जितना जितना मनुष्यों में इन्सान का ढूंढना। फिर भी यही चाह हमें खींच ले जाती है जंगलों की ओर। 
इस वर्ष हमारा जाना हुआ - जिम कॉर्बेट पार्क। 

दिल्ली से २५० किलोमीटर रामनगर से करीब १० किलोमीटर पर बसा है ढिकुली गाँव जहाँ अनेकों आरामदायक रिजॉर्ट्स बने हैं। दिल्ली से मुरादाबाद तक का १५० किलोमीटर का सफ़र राष्ट्रीय राजमार्ग २४ द्वारा बहुत सुहाना लगता है जहाँ आप फर्राटे से गाड़ी चलाते हुए हाइवे ड्राइविंग का आनंद उठा सकते हैं। लेकिन उसके बाद काशीपुर से होता हुआ रामनगर तक का करीब १०० किलोमीटर का रास्ता आपको रुला सकता है। कहीं बढ़िया , कहीं टूटी फूटी सड़क को देखकर पता चल जाता है कि कहाँ कैसे ठेकेदार ने काम किया होगा। 

लेकिन रामनगर पहुँचने के बाद पहाड़ शुरू होने पर राहत सी मिलती है। फिर एक के बाद एक रिजॉर्ट्स आपका स्वागत करने को तैयार मिलते हैं।              

 

एक ओर पहाड़ और दूसरी ओर कोसी नदी के बीच २०० मीटर का क्षेत्र। रिजॉर्ट में घुसते ही ड्राइव वे के दोनों ओर घने पेड़ जिनमे बांस के पेड़ बेहद खूबसूरत लग रहे थे।    



घनी हरियाली के बीच बनी कॉटेज अपने आप में एक स्वर्गिक अहसास की अनुभूति कराती हैं।    



कॉटेज के बाद नदी किनारे रेस्तराँ, स्विमिंग पूल और हरे भरे लॉन -- कुल मिलाकर एक परफेक्ट सेटिंग।   




ढिकुली से आगे राजमार्ग संख्या १२१ सीधे रानीखेत को जाता है। करीब ४ किलोमीटर आगे यह गर्जिया देवी का मंदिर नदी के बीचों बीच बना है।    




कोसी नदी का एक दृश्य -- मंदिर से थोड़ा पहले एक पुराना ब्रिज बना है जहाँ कई तरह के एडवेंचर स्पोर्ट्स का मज़ा लिया जा सकता है। बेशक इसके लिए मन में साहस और उत्साह की आवश्यकता है।   


  

रिवर क्रॉसिंग करते हुए। यहाँ एक बार धम्म की आवाज़ आने पर हमने पूछा कि क्या हुआ तो पता चला कि ब्रिज फाल हो रहा है। समझने में समय लगा कि यह पुल से पानी में कूदने का खेल था।  



जिम कॉर्बेट पार्क में मुख्य रूप से जीप सफारी द्वारा जंगल की सैर की जाती है। पार्क के ४ अलग अलग जोन्स हैं जहाँ एक बार में एक जोन में जाया जा सकता है। लेकिन वीकेंड पर अक्सर बुकिंग पहले ही फुल हो जाती है। हमें भी जो बुकिंग मिली वो ऐसे क्षेत्र की थी जहाँ बस पहाड़ ही पहाड़ थे। लेकिन बहुत घना जंगल था। पेड़ पौधों की अनेकों किस्म थी जिनमे सबसे प्रमुख साल के पेड़ थे।

कुछ नहीं थे तो शेर और बाघ। हालाँकि यहाँ बाघों की काफी संख्या बताई जाती है लेकिन दिखने की सम्भावना न के बराबर ही होती है। फिर भी ऐसा नहीं सोचा था कि इतने घने जंगल में भी एक भी जंगली जानवर दिखाई नहीं देगा।



लेकिन पेड़ तरह तरह के दिखे। यह तना दो पेड़ों का है। बाहर वाला अन्दर वाले पर पेरासाईट है जो जल्दी ही इसकी जान निकाल देगा। शायद कलयुगी मनुष्यों की लालची प्रवृति का प्रभाव पेड़ों पर भी आ गया है।    



पूरे जंगल में आखिर यह एक लंगूर ही नज़र आया जो हमें देखते ही उछलकर पेड़ पर चढ़ गया।



घने जंगल से होकर अंत में हम पहुँच गए ऐसे स्थान पर जहाँ इस क्षेत्र की दूसरी नदी -- रामगंगा नज़र आ रही थी। यह यहाँ की मुख्य नदी है जिस पर रामगंगा रिजर्वायर बना है।

जंगल सफ़ारी तो निराशाजनक रहा, हालाँकि घने जंगल में ५० - ६० किलोमीटर की सैर कमाल की थी। रिजॉर्ट में आकर  यहाँ की खूबसूरती का अवलोकन अपने आप में एक अनुपम अनुभव था।



यहाँ लॉन में शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ भोजन का आयोजन किया जाता है।
 


पहाड़ों में लाल रंग बहुत ही सुन्दर लगता है। इसलिए सभी कॉटेज की छत इसी रंग में रंगी थी। लेकिन फूलों का भला क्या मुकाबला !  



कोसी नदी में महाशीर नाम की मछलियाँ पाई जाती हैं जिनका शिकार एंगलर्स को बहुत भाता है।





अगले दिन सुबह आसमान में बदल छा गए थे। बादलों की खूबसूरती नदी और पहाड़ के साथ मिलकर दोगुनी हो जाती है। लेकिन अब वापस चलने का समय हो गया था। इसलिए हमने भी अपना बोरिया बिस्तर समेटा और लौट आए फिर से उसी जंगल में जहाँ एक ढूंढो तो हज़ार मिलते हैं, इंसानी जानवर।

वापसी में एक सवाल बार बार तंग करता रहा -- क्या वास्तव में हमारे जंगलों में जंगली जानवर बचे हैं ? या इन्सान ने उन्हें अपने लालच का शिकार बना कर ख़त्म कर डाला है। और हम स्वयं को धोखा दिए जा रहे हैं वन विभाग की बातों में आकर।

लेकिन भले ही वनों में वन्य जीवन का अस्तित्त्व मिटता जा रहा हो , अभी भी समय है वन्य जीवन की रक्षा करने का ताकि हमारी आने वाली पीढियां उन्हें सिर्फ किताबों में ही न देखें। शहरी जिंदगी की भाग दौड़ से अलग ये क्षेत्र हमेशा इन्सान को सकूं पहुंचाते रहे हैं।  पर्यावरण की रक्षा करना हमारा धर्म है।  यह बात सबको सीखनी चाहिए .      



Friday, April 5, 2013

कहना मुश्किल था कि बोतल में शराब थी या ---


होली के कुछ दिन बाद शाम का समय था। अस्पताल से घर जाते हुए सड़क पर ट्रैफिक बहुत मिला। ऊपर से सड़क पर पुलिस के बैरिकेड, मानो स्पीड कम करने के लिए बस इन्ही की ज़रूरत थी। ऐसे ही एक बैरिकेड के आगे एक मनुष्य सा दिखने वाला जीव बैठा हिल डुल रहा था। मैला कुचैला , होली के रंगों में रंगा लेकिन बेहद गन्दा। सामने एक अद्धे जैसी बोतल रखी थी जिसमे गोल्डन रंग का कोई द्रव्य भरा था। बोतल आधी खाली थी। कहना मुश्किल था कि बोतल में शराब थी या पेशाब। दूसरी सम्भावना ज्यादा लग रही थी क्योंकि वह मानव जीव हवा में हाथ घुमाते हुए खुद से बातें किये जा रहा था। ज़ाहिर था, वह कोई मानसिक रूप से विक्षिप्त पुराना रोगी था।

ऐसे में एक विचार मन में आकर कुलबुलाने लगा कि इस बन्दे का क्या किया जाना चाहिए। यदि विभिन्न पहलुओं पर गौर करें तो कुछ बातें सामने आती हैं :

१) कानून की दृष्टि से : 

कानूनन उसे उठाकर किसी अस्पताल में भर्ती किया जाना चाहिये जहाँ उसका उचित उपचार किया जा सके। तद्पश्चात उसे किसी अनाथालय या सेवा आश्रम में सहारा मिलना चाहिए।
लेकिन सवाल यह है कि ऐसा करेगा कौन। आजकल सब को भागमभाग रहती है। अपने काम ही नहीं संभाले जाते , फिर कोई किसी आवारा की ओर क्यों देखेगा। पुलिस को भी कहाँ फुर्सत है अपराधियों से जो दिल्ली की सड़कों पर एक ढूंढो तो सौ मिलते हैं।    

२) चिकित्सा की दृष्टि से :   

मरीज़ कितना भी गन्दा हो , किसी भी हालत में हो, भले ही शरीर में कीड़े पड़े हों , एक चिकित्सक के लिए वह एक रोगी ही है। उसकी पूरी चिकित्सीय देखभाल करना एक डॉक्टर का फ़र्ज़ है।
लेकिन ऐसे रोगी को डॉक्टर्स भी नहीं देखना चाहते। भर्ती कर भी लिया तो एक दो दिन में बेड खाली कराने का प्रयास रहता है। डॉक्टर्स भी क्या करें , सरकारी अस्पतालों में पहले ही एक बेड पर दो दो तीन तीन मरीज़ पड़े होते हैं। वे गंभीर रोगियों का इलाज़ करें या ऐसे रोगी पर ध्यान दें।      

३) मानवता की दृष्टि से : 

हर मनुष्य को जीने का अधिकार है। असहाय, बीमार और कष्ट भोगते हुए इन्सान के प्रति उदारता सभी मनुष्यों का फ़र्ज़ है और इंसानियत का तकाज़ा है।
लेकिन हमारे जैसे देश में जहाँ इन्सान थोक के भाव पैदा होते हैं , वहां भला एक ऐसे व्यक्ति की क्या कीमत होगी जो खुद किसी काम का नहीं।   

कुछ इसी तरह के विचार मन में विचरने लगे। यानि यदि आप इंसानियत और कानून का पालन करते हुए उसे किसी अस्पताल में भर्ती करा भी दें तो क्या होगा। कुछ दिन और यथासंभव उपचार के बाद उसे भगा दिया  
जायेगा या वह खुद ही भाग जायेगा। पुराने मानसिक रोगी को मानसिक रोगों के अस्पताल के अलावा और कहीं रखा भी नहीं जा सकता। शारीरिक रोगों का उपचार तो संभव है लेकिन मानसिक रूप से विक्षिप्त ऐसे रोगी को स्वस्थ करना अक्सर संभव नहीं होता।  

इन हालातों में ऐसे मनुष्य का जिन्दा रहना किस के लिए उपयोगी है ? देश के लिए, या समाज के लिए ? परिवार के लिए, या स्वयं के लिए ? वैसे तो ऐसे रोगी का न कोई परिवार होता है , न समाज।  ऐसे रोगी हकीकत की दुनिया से दूर एक अलग ही दुनिया में विचरते रहते हैं जिसका हकीकत की दुनिया से कोई वास्ता नहीं होता। फिर उसका जिन्दा रहने का क्या उद्देश्य है ?
वह न सिर्फ समाज पर बल्कि स्वयं पर भी एक बोझ है। ऐसी निरुद्देश्य जिंदगी का क्या फायदा ?

क्या ऐसे में कुछ अलग हटकर सोचा जा सकता है ? यही अहम सवाल है !