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Friday, December 30, 2011

ज़िंदादिली--बुजुर्ग कवियों के मुख से ---

कवियों की बातें भी निराली होती हैं , विशेषकर बुजुर्ग कवियों की । आखिर उन्हें ज़िंदगी भर का अनुभव होता है ।
लेकिन सबसे ज्यादा मज़ेदार होते हैं --हास्य कवि । मज़ाक मज़ाक में बड़ी बातें कह जाते हैं । कहते हैं न आम जितना पकता जाता है , उतना ही पिलपिला होता जाता है ।

आईये ऐसे ही कुछ परिपक्व कवियों की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत करता हूँ :

कभी कभी ऐसा भी होता है कि लेने के देने पड़ जाते हैं । एक तो प्रेम प्रदर्शन वैसे ही बड़ा मुश्किल काम है । अब यदि पति /प्रेमी महोदय पत्नी / प्रेमिका से कुछ कहे और उसे ज़वाब उल्टा मिले तो कैसा लगेगा!

इस पर अकबर इलाहाबादी का एक शे'र याद आता है --

जो कहा हमने , कि प्यार आता है हम को तुम पर
हंस कर कहने लगे , और आपको आता ही क्या है !


एक हमारे पडोसी हैं --बड़े शर्मीले । हम से इतने शर्माते हैं कि हम भी उन के शर्माने पर उन से शर्माने लग जाते हैं । कभी लिफ्ट में मिल भी जाएँ तो हेल्लो भी बस थोड़ी सी पलकें झपका कर ही करते हैं । उन्हें देखकर पोपुलर मेरठी का ये शे'र याद आने लगता है --

आशिकी भी दोस्तों क्या शास्त्रीय संगीत थी
राग तोड़ी जाने क्या था , जाने क्या गाते रहे
जिंदगी भर इश्क का इज़हार करने के लिए
वो भी हकलाते रहे , हम भी हकलाते रहे ! !


बुजुर्ग कवि सच्चे भी बहुत होते हैं । जो दिल में होता है , बोल देते हैं ।
अब यह तो जेमिनी हरियाणवी जैसा कोई हास्य कवि ही कह सकता है --

तू साठ बरस की , और मैं सत्तर का
ईब, ना कुछ तेरे बस का, ना कुछ मेरे बस का ! !


इस मामले में हास्य सम्राट काका हाथरसी जी भी कम नहीं थे।
एक शे'र उनका भी --

प्रिये,
बुझ चुका है तुम्हारे हुस्न का हुक्का
ये तो हमीं हैं जो गुड़गुडाये जाते हैं ! !


अंत में --शायद सभी बुजुर्ग कवि इसी बात में विश्वास रखते हैं कि --

ज़िंदगी जिंदादिली का नाम है
मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं ! !


ग़ालिब ने ही कहा था !!! कुछ सीखा आपने ?


आइये नए साल का स्वागत हम हँसते हंसाते हुए करें

Tuesday, December 27, 2011

मिर्ज़ा ग़ालिब --मुग़लों के ज़माने का एक शायर जिन्हें आज भी याद किया जाता है --

दिल्ली के चांदनी चौक की गली बल्लीमारान में दो सौ मीटर जाकर दायें हाथ को आती है गली कासिम जान। इसके बाएं हाथ पर मोड़ से तीसरा या चौथा मकान है--ग़ालिब की हवेली । हालाँकि ग़ालिब यहाँ किराये पर ही रहते थे , लेकिन इस मकान का एक हिस्सा सरकार ने लेकर एक संग्राहलय बना दिया है ।


प्रवेश द्वार से घुसते ही दायें हाथ को एक कमरा है । सामने दो हिस्से हैं । दायाँ प्राइवेट प्रोपर्टी है , बाएं हाथ का हिस्सा ग़ालिब का निवास था ।


छोटा सा ही घर था । बीच में एक आँगन , जिसके बायीं ओर दो कमरे --एक छोटा शायद रसोई या लाइब्रेरी रहा होगा ।
ना कोई देखने वाला था , न दिखाने वाला ।


आँगन की एक दिवार पर यह बोर्ड परिचय देता हुआ ।



सामने वाली दीवार पर एक उर्दू कप्लेट ।



कमरों की दीवारों पर लगे पत्थर ओरिजिनल हैं । ईंटें मरम्मत कर लगाई गई हैं ।




बड़े कमरे से छोटा कमरा मिला हुआ है जिसमे छोटी सी लाइब्रेरी बनी है ।




बड़े कमरे में तीन स्टोर नुमा कमरे से हैं जिनमे संग्रह है । एक में यह मूर्ति -साथ में हम ।




नीचे वाले स्टोर्स के ऊपर भी स्टोर जैसे बने हैं ।



प्रवेश द्वार के पास वाले कमरे में मिर्ज़ा ग़ालिब की मूर्ति की स्थापना की गई है ।




ग़ालिब की मूर्ति ।



मूर्ति के पीछे टंगा है उनका आखिरी फोटो ।



ग़ालिब के लिखे दो लेटर ।



एक दीवार पर उस समय के विशिष्ट लोगों के फोटो लगे हैं । इसके अलावा उनकी मज़ार और अनुवंशाव्ली की भी तस्वीरें लगी हैं ।

परिचय :

आगरा में जन्मे ग़ालिब का परिवार शाही सम्बन्ध रखता था । १३ साल में नवाबी परिवार में शादी हुई । सात बच्चे हुए लेकिन सभी पहले साल में ही गुजर गए ।

ग़ालिब ने कभी कोई काम धंधा नहीं किया । उनकी गुजर बसर शाही अनुदान , दोस्तों की मदद और क़र्ज़ लेकर ही होती थी । शायद इसीलिए लिखा ---

क़र्ज़ की पीते थे लेकर और जानते थे
कि रंग लाएगी हमारी फ़ाकामस्ती एक दिन

शराब और जुआ खेलने के भी शौक़ीन थे । जुआ खेलने के चक्कर में जेल भी हो आए ।
उनका कहना था कि जिसने शराब नहीं पी , जुआ नहीं खेला और जेल नहीं गया या फिर माशूक के जूते नहीं खाए --वह शायर हो ही नहीं सकता ।

रोज कहता हूँ जाऊँगा कभी घर उसके
रोज उस कूचे में इक काम निकल आता है

अब पता नहीं कौन से कूचे की बात करते थे । वैसे इस क्षेत्र में तो गलियां ही गलियां हैं , कहीं कहीं तो ऐसी कि स्कूटर भी न जा पाए ।

उनको देखे से जो जाती है मूंह पे रौनक
वो समझते हैं , बीमार का हाल अच्छा है

वे किस के बीमार थे , इसका ज़िक्र कहीं नहीं आता । बेग़म के तो होने से रहे ।

पहले आती थी हाले दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती

इसमें उनकी निराशा झलक रही है ।
शायद यह वह समय रहा होगा जब मुग़ल साम्राज्य में उथल पुथल हो गई थी ।

ये थी हमारी किस्मत के बिसाले यार होता
अगर और जीते रहते , यही इंतजार होता

पता नहीं किस के लिए लिखा था ।

२७ दिसंबर १७९७ को जन्मे ग़ालिब का आज जन्मदिन हैइस अवसर पर दिल्ली सरकार द्वारा विशेष कार्यक्रम आयोजित किये गए हैं


Saturday, December 24, 2011

शनि देव को मनी क्यों चाहिए --एक सवाल !

शनिवार का दिन सड़कों पर थोडा सकूं का दिन होता है । ज्यादातर सरकारी कार्यालय इस दिन बंद होते हैं ।
लेकिन चौराहों पर इस दिन एक विशेष नज़ारा देखने को मिलता है । हर चौराहे पर दर्ज़नों बच्चे जय शनिदेव कहते हुए भीख मांगते नज़र आते हैं ।


इस फोटो में दिखाई दे रहा यह सवा छै फुट का नौज़वान अक्सर काले लिबास में भीख मांगता है । आज जाने क्यों अपना ट्रेड मार्क लिबास छोड़कर सफ़ेद पर उतर आया ।

कार में शीशे बंद कर बैठे हमारे जैसे संभ्रांत व्यक्तियों के लिए इसे हाथ के इशारे से निज़ात पाना आसान हो जाता है ।
लेकिन इसके डील डौल और कद काठी को देखकर ही दो पहियाँ सवारों की जेब में हाथ चला जाता है ।


दूसरे चौराहे पर तैनात यह नौज़वान भी पहले वाले का भाई लगता है ।
हाथ में डोंगा जिसमे एक त्रिशूल रखा रहता है । डोंगे में थोडा सा सरसों का तेल , कभी कभी फूल माला लटकती हुई , साथ में नींबू और हरी मिर्च की लड़ी बनाकर लटका लिया जाता है ।

ज्यादातर डोंगे में सिक्के डालने वाले साईकल , स्कूटर या मोटरसाईकल सवार ही होते हैं ।
कभी किसी कार वाले को सिक्का डालते हुए नहीं देखा ।

हम कभी चौराहे पर किसी को भीख नहीं देते , ही कोई खरीदारी करते हैं आखिर कोई तो हो जो कानून का पालन करे

लेकिन अक्सर सोचता हूँ कि ऐसा क्यों कि भीख देने वाले निम्न आय वाले लोग ही होते हैं क्या उन्हें अपना स्तर ऊंचा उठाने के लिए दान करना पड़ता है ?
और शनि देव का क्या महत्त्व है ?
डोंगे में तेल , त्रिशूल , नीम्बू और हरी मिर्च के पीछे क्या धारणा है ?
ये लोग कौन हैं जो शनि के नाम पर भीख मांगते हैं ?

शायद ज्ञानी लोग इन सवालों के ज़वाब दे पायें !


Thursday, December 22, 2011

ज़माना बदल गया है --आँखों देखी ---


ऋषि
कपूर और नीतू सिंह पर फिल्माया गया एक गाना था --

खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों ,
इस
दुनिया से नहीं डरेंगे हम दोनों

लेकिन तब न तो हकीकत में , न ही हिंदी फिल्मों में खुल्लम खुल्ला प्यार का प्रदर्शन होता था । बल्कि इसी गाने के अंतरा जैसा ही माहौल होता था --

हे देख वो , इश्क छुप छुप के फरमा रहे हैं,
है क्या मज़ा , दिल ही दिल में तो घबरा रहे हैं

और घबराने की वज़ह भी होती थी ।

लगता है दोनों पडोसी हैं वो,
रिश्ता ही ऐसा है जाने भी दो

लेकिन लगता है आजकल ज़माना इतना बदल गया है कि इस गाने की अगली पंक्तियाँ चरितार्थ होने लगी हैं --

हम वो करेंगे दिल जो कहे , हमको ज़माने से क्या --
खुल्लम
खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों

जी हाँ , कुछ ऐसा ही नज़ारा देखकर हम अचंभित रह गए । कुछ दिन पहले हम दिल्ली की एक पौश कॉलोनी में मार्केट के सामने मेन रोड पर कार में बैठे किसी का इंतजार कर रहे थे । तभी सामने एक गाड़ी आकर खड़ी हुई । गाड़ी में से एक लड़का उतरकर सामने दारू की दुकान से बियर लेने चला गया । गाड़ी में ड्राइवर बैठा था । तभी उस गाड़ी के बिल्कुल आगे एक लड़का लड़की आकर खड़े हो गए । दोनों टीनेजर थे । लड़का लम्बा और लड़की छोटे कद की थी ।
दोनों बड़े प्यार से बातों में मशगूल हो गए ।

पूरा दृश्य ऐसा था जैसा फिल्म बरसात में राजकपूर और नर्गिस पर फिल्माया गया था , यह गाना गाते हुए -

प्यार हुआ , इकरार हुआ ,
प्यार
से फिर क्यों डरता है दिल

बातें करते करते लड़के ने लड़की का सर ऊपर किया , अपना सर झुकाया और अपने होंठ लड़की के होंठों पर रख दिए ।
सब कुछ इतना स्वाभाविक रूप से हुआ , जैसे कोई देख ही न रहा हो । हालाँकि देखने वालों में सामने वाली गाड़ी का ड्राइवर और पीछे हम थे ।

यह नज़ारा देखकर मैं स्तब्ध रह गया

और बड़े भैया का यह गाना गाते हुए हम तो वहां से खिसक लिए --

ये ज़वानी , है दीवानी ---

बाद में जाते समय देखा कि वो दोनों फुटपाथ पर बैठे गप्पें मार रहे थे । और साथ में एक लड़की और थी ।

यह देखकर यही लगा कि सचमुच ज़माना बदल गया है । या फिर शायद हम अब पुराने हो गए हैं

लेकिन सवाल उठता है कि क्या इस तरह का पी डी ( सार्वजनिक प्रेम प्रदर्शन ) हमारी संकृति के लिए एक ख़तरा नहीं है !
या फिर समय के साथ संस्कृति को भी बदलना ही पड़ेगा ?


Monday, December 19, 2011

अवैध यौन संबंधों में कानून द्वारा लिंग भेद - एक परिचर्चा !

जब भी किसी ब्लॉग पर सामाजिक दृष्टिकोण से कोई सार्थक और उपयोगी लेख प्रकाशित होता है तो उसे समाचार पत्रों की सुर्ख़ियों में जगह मिल जाती है । इससे उस लेख की उपयोगिता लाखों लोगों की नज़र में आने से और भी बढ़ जाती है ।

इसी तरह यदि समाचार पत्रों में कोई लेख पसंद आए तो उसे क्यों न ब्लोगर्स के सन्मुख प्रस्तुत कर एक सार्थक चर्चा की जाए ताकि उसका प्रभाव अधिकाधिक हो सके ।

इसी विचार से आज प्रस्तुत है हिंदुस्तान टाइम्स के रविवारीय संस्करण में ( ११-१२-२०११) प्रकाशित सत्य प्रकाश जी के लेख पर एक चर्चा

लेख का विषय था - अवैध यौन संबंधों में कानून द्वारा लिंग भेद

Indian Adultery Law :

इस कानून के अनुसार एक विवाहित पुरुष और महिला के बीच , जो पति पत्नी नहीं हैं , अवैध यौन सम्बन्ध होने पर पुरुष को कानून के अंतर्गत अपराधी माना जायेगा लेकिन महिला को नहीं ।

इस सम्बन्ध को अपराध इसलिए माना गया है ताकि विवाह का पवित्र रिश्ता सुरक्षित रह सके ।

पुरुष के अपराधी होने का कारण है,क्योंकि कानून की नज़र में पत्नी को पति की ज़ागीर / संपत्ति माना जाता है । यदि कोई गैर पुरुष किसी दूसरे पुरुष की पत्नी के साथ यौन सम्बन्ध बनाता है तो वह उसकी निजी संपत्ति में दखलअंदाजी करता है । इसलिए उस पर केस बनता है ।

इस तरह के अवैध सम्बन्ध में पति तो अपराधी है लेकिन पत्नी नहीं

एक हैरानी की बात यह है कि राष्ट्रीय महिला आयोग भी इसे सही मानता हैउनका यह भी कहना है कि इस तरह के अवैध सम्बन्ध को गैर कानूनी ही माना जाये
उधर कुछ लोगों की यह राय है कि कानून में पति पत्नी दोनों बराबर होने चाहिए ।

भारतीय कानून क्या कहता है ?

भारतीय दंड संहिता की धारा ४९७ के अंतर्गत यदि एक विवाहित व्यक्ति किसी दूसरी विवाहित महिला के साथ बिना उसके पति की रज़ामंदी के यौन सम्बन्ध बनाता है तो वह दोषी माना जायेगा जिसके लिए उसे कैद की सजा हो सकती है । ऐसे में उस महिला पर कोई अभियोग नहीं लगेगा ।
साथ ही धारा १९८ के अंतर्गत एक पति दूसरे पति पर आरोप लगा सकता है लेकिन अपनी पत्नी पर नहीं ।
यानि पत्नी इस आरोप से फ्री है ।

दूसरे देशों में :

ज्यादातर यूरोपियन देशों में एडलट्री अपराध नहीं माना जाता । वहां इस मामले में लिंग भेद भी नहीं है । और कोई सजा भी नहीं । हालाँकि तलाक की नौबत आ सकती है ।
उधर इस्लामिक देशों में इसे घोर अपराध माना जाता है और महिला को पुरुष से ज्यादा दोषी समझा जाता है ।

धार्मिक पहलु :

सभी धर्मों में इसे पाप माना जाता है । इस्लाम में तो इसके लिए सख्त सज़ा का प्रावधान है ।

अब कुछ सवाल उठते हैं आम आदमी के लिए :

* क्या इस मामले में स्त्री पुरुष में भेद भाव करना चाहिए ?
* यदि पति की रज़ामंदी से उसकी पत्नी से रखे गए सम्बन्ध गैर कानूनी नहीं हैं तो क्या वाइफ स्वेपिंग जायज़ है ?
* क्या इस कानून में बदलाव की ज़रुरत है ?

पति पत्नी के सम्बन्ध आपसी विश्वास पर कायम रहते हैंकानून भले ही ऐसे मामले में पत्नी को दोषी मानता हो , लेकिन व्यक्तिगत , पारिवारिक , सामाजिक और नैतिक तौर पर ऐसे में दोनों को बराबर का गुनहगार माना जाना चाहिए

हमारा स्वस्थ नैतिक दृष्टिकोण ही हमारे समाज के विकास में सहायक सिद्ध हो सकता है

Sunday, December 18, 2011

यादें --१९७१ में हुए भारत पाक युद्ध की और हमारी एक्टिंग की --


जनवरी
१९७२ में हमारे स्कूल में इंटर हाउस ड्रामा कॉम्पीटीशन होना था उस समय मैं दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था । अपने हॉउस --गाँधी सदन का अध्यक्ष था । इसलिए प्रबंधन की जिम्मेदारी हम पर ही आ पड़ी ।

हमनेभी देशभक्ति का ज़ज्बा दिखाते हुएजो नाटक तैयार किया , उसका विषय था -भारत पाक युद्ध ।

इस ड्रामे का मैं राईटर , डायरेक्टर , प्रोड्यूसर और एक्टर था , मनोज कुमार की तरह

मैं अख़बार बहुत ध्यान से पढता था । इसलिए दिमाग में युद्ध की एक एक खबर ताज़ा थी । बस उसी को लेकर तैयार हो गया नाटक --भारत पाक युद्ध

स्कूल में पेंट तो खाकी होती ही थी , कहीं से मांगकर कुछ खाकी कमीज़ों का इंतज़ाम किया गया ।
भारत की फ़ौज के कमांडर का रोल मैंने किया । तगमे बनाने के लिए गत्ते काटकर उस पर रंगों से कारीगरी की गई । और इस तरह तैयार हो गई जनरल की वर्दी ।

कुछ खिलोने वाली पिस्तोलों का इंतज़ाम किया । एक लम्बा चाकू भी ले लिया ताकि जब गोला बारूद ख़त्म हो जाए तो संगीनों से हमला किया जाए ।

हथगोलों की जगह छोटे छोटे गोले जिन्हें हम गंठे कहते थे , खरीद लिए गए । दीवाली जा चुकी थी , इसलिए मुश्किल से ही मिले ।

पाक फोजों के बारे में अख़बार में पढ़ा था कि उनकी वर्दियां फटेहाल थीउनके पास खाने को कुछ नहीं होता थाकभी कभी बस चने खाकर ही गुजारा करना पड़ता था पाक फ़ौज को हमने ऐसे ही तैयार किया

अब निश्चित दिन दोनों फौजें आमने सामने थी । सबसे पहले भारतीय फ़ौज के कमांडर का जोशीला भाषण हुआ । अख़बार में जितनी भी ख़बरें पढ़ी थी , सब की सब भाषण में डाल दी थी ।
उसके बाद मार्च पास्ट हुआ । सब जोर जोर से तालियाँ बजा रहे थे । सभा का पूरा चक्कर लगाने के बाद हम दुश्मन की फ़ौज के सामने थे ।

फिर शुरू हुआ जंग --भारत माता की जय के नारों के बीच
थोड़ी देर में सारे हथगोले ख़त्म हो गए ।
अब हमने चाकू निकाल लिया और हिंदी फिल्मों के तत्कालीन विलेन रंजीत की तरह दुश्मन के कमांडर के साथ द्वंद्ध शुरू कर दिया ।

शुक्र रहा कि चाकू कहीं लगा नहीं वर्ना लेने के देने पड़ जाते ।
असल या नक़ल में , ऐसी लड़ाई हमने फिर कभी नहीं लड़ी ।

आखिर भारतीय फोजों की जीत हुई और सारे पाकिस्तानी सैनिक मारे गए ।

एक बार फिर हमारी फ़ौज ने विक्टरी मार्च किया , जयजयकार के बीच

इस नाटक प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरुस्कार ( बेस्ट एक्टर अवार्ड ) हमें ही मिला