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Monday, October 31, 2011

ट्रैफिक जाम में फंसे हम बेचैन खड़े थे---

दिल्ली की दीवाली की एक खास बात यह है कि दशहरे के बाद से ही सड़कों पर पुलिस के बैरिकेड लगने शुरू हो जाते हैं । यह सिलसिला तब से ज्यादा हुआ है जब कुछ वर्ष पूर्व दीवाली पर बम धमाकों में कई लोगों की जान चली गई । हालाँकि इससे यातायात में बहुत बाधा पड़ती है और लम्बे जाम लग जाते हैं ।
प्रस्तुत है , ऐसे ही एक जाम में फंसे होकर उत्तपन हुई एक हास्य कविता :


भाग १ :

सड़क पर पुलिस के
बैरिकेड गड़े थे ,
ट्रैफिक जाम में फंसे
हम बेचैन खड़े थे ।

मैंने एक पुलिसवाले से पूछा,
भई कितने आतंकवादी पकड़े ?
वो बोला -एक भी नहीं ,
सुबह से ख़ाली खड़े हैं ठण्ड में अकड़े ।

मैंने कहा तो फिर इसे हटाओ,
क्यों बेकार समय की बर्बादी करते हो ।
वो बोला -चलो थाने,
मुझे तो तुम्ही कोई आतंकवादी लगते हो ।

मैंने कहा --थाने क्यों चलूँ ,मैंने क्या जुर्म किया है ?
वो बोला -नहीं किया तो करो,मैंने कब मना किया है ।
पर जुर्माना तो देना पड़ेगा ,
तुमने इक पुलिसवाले का वक्त घणा लिया है ।

अरे यदि तुमने मुझे
बातों में ना जकड लिया होता ,
तो अब तक मैंने एक आध
आतंकवादी तो ज़रूर पकड़ लिया होता ।

अब कैसे करूँगा मैं
परिवार का भरण पोषण
जब आतंकवादी ही न मिला
तो कैसे मिलेगा आउट ऑफ़ टर्न प्रोमोशन ।

अच्छा मोबाईल पर बात करने का
निकालो एक हज़ार रूपये जुर्माना ।
मैंने कहा -मेरे पास तो मोबाईल है ही नहीं
मैं तो ऍफ़ एम् पर गुनगुना रहा था गाना ।

तो फिर आपने गाड़ी
पचास के ऊपर क्यों चलाई ?
मैंने कहा -ये खटारा ८६ मोडल
चालीस के ऊपर चलती ही कहाँ है भाई ।

रेडलाईट के १०० मीटर के अन्दर
हॉर्न तो ज़रूर बजाया होगा ।
मैंने कहा -हॉर्न तो तब बजाता
जब हॉर्न कभी लगवाया होता ।

फिर तो चलान कटेगा
गाड़ी में हॉर्न ही नहीं है ,
मैंने कहा --सामने से हट जाओ
इसमें ब्रेक भी नहीं है ।

फिर बोला - आपकी गाड़ी के शीशे
ज़रुरत से ज्यादा काले हैं ।
मैंने उस कॉन्स्टेबल से कहा ज़नाब
आप भी इन्स्पेक्टर बड़े निराले हैं ।

ज़रा आँखों से काला चश्मा हटाओ
और आसमान की ओर नज़र घुमाओ।
अरे यह तो कुदरत की माया है
काले शीशे नहीं , शीशे में काले बादलों की छाया है ।

थक हार कर वो बोला
अच्छा कम्प्रोमाइज कर लेते हैं ।
चलो सौ रूपये निकालो
जुर्माना डाउनसाइज कर देते हैं ।

पर सौ रूपये किस बात के
यह बात समझ नहीं आई ?
वो बोला दिवाली का दिन है
अब कुछ तो शर्म करो भाई ।

अरे घर से बार बार
फोन करती है घरवाली।
दो दिन से यहाँ पड़े हैं
हमें भी तो मनानी है दिवाली ।

मैंने कहा -यह बात थी तो
हमारे अस्पताल चले आते ।
और हम से दो चार दिन का
नकली मेडिकल ले जाते ।

यह कह कर तो मैंने उसका
गुस्सा और जगा दिया ।
वो बोला मैं गया था
लेकिन आपके सी एम् ओ ने भगा दिया ।

और अब जो खाई है कसम
वो कसम नहीं तोडूंगा।
और मां कसम उस अस्पताल के
डॉक्टर को नहीं छोडूंगा ।

और जब मुक्ति की
कोई युक्ति समझ न आई ।
तो अगले साल का प्रोमिस
देकर ही जान छुड़ाई ।

भाग -२ :

अगले दिन मैं घर से
बिना सीट बेल्ट बांधे ही निकल पड़ा था ।
वो पुलिसवाला उसी जगह
उसी चौराहे पर मुस्तैद खड़ा था ।

पर उस दिन वो पस्त था
अपनी धुन में मस्त था ।
उसने मुझे न टोका
न सामने आकर रोका ।

क्योंकि भले ही कोई
आतंकवादी न मिला हो
इस वर्ष दिवाली पर
कोई बम नहीं फूटा ।

हमारे पुलिस वाले कितनी विषम
परिस्थितियों में काम करते हैं ।
इसके लिए हम इनको
कोटि कोटि सलाम करते हैं ।

Thursday, October 27, 2011

जिंदगी के सफ़र के साथ दीवाली का बदलता स्वरुप ---

एक और दीवाली आकर चली गई एक बार फिर हमने वायु और ध्वनि प्रदूषण से परिपूर्ण बड़े उत्साह से दीवाली का जश्न मनाया

लेकिन दीवाली हमेशा ऐसी थी

आज शांति के साथ बैठकर जब हमने दीवाली मनाई तो बचपन की बहुत याद आई ।
आईये देखते हैं , किस तरह बदलता रहा दीवाली का स्वरुप हमारी जिंदगी के सफ़र के साथ ।

१९६०-१९७०

बचपन में गाँव में दीवाली पर हम मशाल जलाते थे । घरों की छतों पर घी के दिए जलाये जाते थे जो तेज हवा की वज़ह से थोड़ी देर में ही बुझ जाते थे । कभी कभार मोमबत्तियां भी जलाई जाती थी ।
लेकिन पटाखे होते थे , मिठाई
कोई उपहार लेने देने की रिवाज़ भी नहीं थीयह शायद संसाधनों की कमी के कारण रहा होगा

गाँव में हमारे दादाजी हर वर्ष दीवाली पर खील बांटते थे । बाज़ार से एक बोरा भर कर लाया जाता था जो इतना बड़ा होता था कि यदि उसमे गेहूं भरे होते तो कम से कम तीन क्विंटल आ जाते ।
फिर दीवाली के दिन सारे गाँव को आमंत्रित किया जाता और दादाजी अपने हाथों से सबको खील बांटते ।
एक वर्ष खील न मिलने से केले बांटे गए । इतने बड़े केले मैंने जिंदगी में फिर कभी नहीं देखे ।

१९७०-१९८०

इस बीच हम शहर आ गए । यहाँ दीवाली पर पटाखे छोड़े जाते थे । मिठाई के नाम पर मिक्स मिठाई की बड़ी रिवाज़ थी । आस पड़ोस में सब एक दूसरे को एक थाली में कुछ खील और कुछ मिठाई के पीस डालकर, पूजा के प्रसाद के रूप में आदान प्रदान करते थे ।

सभी घरों से लगभग एक जैसा प्रसाद होता था । बड़ा अज़ीब लगता था । क्योंकि अक्सर सबसे घटिया और सस्ती मिठाई को ही दिया जाता था ।
हमारे घर में कोई लड़की या छोटा बच्चा न होने से प्रसाद लौटाने में बड़ी दिक्कत आती थी । यह काम कोई नहीं करना चाहता ।

दीवाली पर जगमगाहट करने के लिए मोमबत्तियां खूब जलाई जाती थी ।
साथ ही ज़ीरो वाट के बल्बों की लड़ी बनाकर लगाते तो रंगत आ जाती ।

१९८० -२०००

इस दौरान हम भी जॉब में सेटल हो गए थे । बाल बच्चे भी हो गए थे । यार दोस्त और सामाजिक सम्बन्ध भी बन गए थे । अत: अब पटाखों के साथ बिजली की तरह तरह की लड़ियाँ लगाकर घर को खूब सजाया जाने लगा ।
मिठाई के साथ अब उपहारों का आदान प्रदान शुरू हुआ । मित्र लोग गिफ्ट लेकर आते और हम बदले की गिफ्ट लेकर उनके घर जाते । अक्सर यह देखा जाता कि जो जितने की गिफ्ट लाया , उसको उतने की गिफ्ट तो दी ही जाए ।

कुछ सालों में रंग बिरंगी फालतू की गिफ्ट्स से घर भर गयाअब यह तय करना मुश्किल होने लगा कि गिफ्ट में क्या दिया जाए

और एक दिन गिफ्ट्स का यह आदान प्रदान एक बोझ सा लगने लगा ।
बहुत से लोगों से बस एक ही दिन का मिलना रह गया तो लगा कि यह क्या बकवास है ।
सब तरह की वाहियात वस्तुएं दीवाली पर आसानी से बिक जाती थी । और घर में किसी काम नहीं आती थी ।

इस बीच मिठाइयों का लेन देन कम हो चुका थाउसकी गह ड्राई फ्रूट्स ने ले ली थी

२०००-२०१०

इन दिनों में चाइनीज बम और पटाखों ने बाज़ार पर आधिपत्य कर लिया था । वायु में प्रदूषण बढ़ने लगा था ।
लेन देन में मिठाई आउट हो चुकी थी । ड्राई फ्रूट्स का बोल बाला रहा साथ ही दो दो तीन तीन गिफ्ट एक साथ देने की रिवाज़ चल पड़ी । ज़ाहिर है , सम्पन्नता की छाप दीवाली पर दिखाई देने लगी ।

लेकिन दीवाली पर बढ़ते ट्रैफिक और उससे होने वाले जाम में फंसकर घंटों बर्बाद होते । आना जाना मुश्किल होने लगा । रस्मे रिवाजें निभाना अब बड़ा सर दर्द बन गया था ।

ऐसे में धीरे धीरे हमने लेन देन बंद करना शुरू किया । शुरू में बड़ा अटपटा लगता था किसी से गिफ्ट लेकर रखना और वापसी में न लौटाना । लेकिन और कोई रास्ता नहीं बचा था ।
इसलिए दो तीन साल में सब लेन देन बंद कर दिया ।

अब बड़ा अफसर होने के नाते कोई गिफ्ट ले ही आए तो क्या करेंवर्ना हमने तो दीवाली पर आराम से शांति (रेखा ) के साथ घर पर बैठना शुरू कर दिया है


२०११--

और इस वर्ष फैसला किया है कि अब से दीवाली पर सारी फ़िज़ूलखर्ची बंद ।
अब बस घर की साफ सफाई के साथ रौशनी से सजाया जायेगा और रंगोली बनाकर , शाम को पूजा के साथ लक्ष्मी जी की आराधना कर दीवाली सम्पूर्ण होगी ।

लेकिन सोसायटी के सभी कर्मचारियों की बख्शीश दुगनी कर दी है ताकि किसी ज़रूरतमंद के काम आए और उसे भी दीवाली आने की ख़ुशी हो ।

सभी मित्रों को फोन , एस एम् एस , ई-मेल और ब्लॉग द्वारा मुबारकवाद तो दे ही दी जाती है । आखिर ज़माना भी तो हाई टेक हो गया है ना ।

नोट : दीवाली के बदलते स्वरुप पर आप क्या सोचते हैं , बताइयेगा ज़रूर

Monday, October 24, 2011

दीवाली और घरवाली ने मिलकर सारी अफ़सरी उतार दी --

हमारे एक पडोसी मित्र दिल्ली सरकार में उच्च पद पर आसीन हैं । एक दिन उनकी पत्नी को दिल में धड़कन बढ़ने लगी और बेचैनी होने लगी । हमने उनका मुआयना किया और सलाह दी कि तुरंत अस्पताल में भर्ती करा दिया जाए ।
हमारे सुझाव पर उन्हें दिल्ली के एक पुराने नामी अस्पताल में हमारे ही मित्र कार्डियोलोजिस्ट की देख रेख में भर्ती करा दिया गया । डॉक्टर ने तुरंत उन्हें सी सी यू में भर्ती कर लिया ।

अगले दिन हम उनसे मिलने पहुंचे । पूछा--क्या हाल है ? बोले--भैया, मेडम तो सी सी यू में बेड पर लेटी हैं और हमने सारी रात यहाँ कॉरिडोर में बेंच पर बैठ कर बिता दी ।

डॉक्टर ने आज हमारी सारी अफ़सरी निकाल दी

इस वर्ष दीवाली पर हमारा भी कुछ यही हाल हुआ ।
हुआ यूँ कि श्रीमती जी ने जिद्द पकड़ ली कि इस बार तो घर में डेंटिंग पेंटिंग करा कर रहेंगे । हमें भी उनकी जिद्द के आगे झुकना पड़ा ।
अच्छे भले साफ सुथरे घर को सौंप दिया गया पेंटरों को । और पूरा सप्ताह निकल गया लेकिन उन्होंने निकलने का नाम नहीं लिया ।

पूरे एक सप्ताह घर का और हमारा जो हाल रहा , उसे देखकर हमें भी यही लगा --
इस वर्ष दीवाली और घरवाली ने मिलकर हमारी भी सारी अफ़सरी उतार दी


हालाँकि कुछ सीखने को भी मिला


चमचमाते मकान में भी कुछ कोने , क्षेत्र और जगहें ऐसे होते हैं जहाँ धूल, कूड़ा करकट और मैल छुपा रहता है

दीवाली के बहाने वहां की भी सफाई हो जाती है


कभी कभी सोचता हूँ --घर का छुपा मैल तो हम निकाल लेते हैं , दीवाली पर

लेकिन हमारे मन और मष्तिष्क में जो मैल छुपा है ना -- ईर्ष्या और द्वेष का , काम और क्रोध का , लोभ और मोह का --उसे कब और कैसे निकालेंगे ?

Wednesday, October 19, 2011

किस्मत अपनी अपनी ---कोल्हू का बैल या शहंशाह ?


पिछली पोस्ट में हमने भैंसों में नर और मादा के अनुपात की बात कही थी ।
आज बात करते हैं गायों में नर और मादा की ।
गाय प्रजाति के नर दो तरह के होते हैं । एक सांड जो प्रजनन का काम करते हैं और दूसरे बैल जिनमे प्रजनन की क्षमता नहीं होती ।

ऐसा क्यों होता है ?

जैसे भैंसों के मामले में मनुष्य अपनी मर्ज़ी से अपने स्वार्थ अनुसार नर और मादा की संख्या का चुनाव करते हैं , वैसे ही गायों के मामले में भी नर के चुनाव में मनुष्य की ही मर्ज़ी चलती है ।

गाय का नर सांड कहलाता है । सांड भी पूरे गाँव में एक ही होता है जिसका काम बस प्रजनन करना होता है । लेकिन भैंसे की तरह सांड दूसरे सांड को मार कर नहीं भगाता । वैसे भी सांडों की संख्या भैंसे की संख्या से भी कम होती है । यानि दो तीन गाँव के बीच एक सांड मिलता है ।

इसका कारण है , नर की दूसरी किस्म यानि बैल जो मनुष्य के ज्यादा काम आता है । मनुष्य आदि काल से बैलों का उपयोग कृषि के लिए करता रहा है । हल चलाने से लेकर , बैल गाड़ी , कूएँ से पानी निकालना, फसल से अन्न और भूसा अलग करने लिए सभी तरह के काम बैलों द्वारा किये जाते रहे हैं ।

अच्छे बैलों की जोड़ी एक किसान के लिए हमेशा उपयोगी रही है । इसलिए गाय के बछड़े को बड़ा होते ही बैल बना दिया जाता है ताकि वह उसके जीविका उपार्जन का साधन बन सके ।

कैसे बनते हैं बैल ?

ज़वान बछड़े को बैल बनाने के लिए उसके अंडकोषों को क्रश कर दिया जाता है । इसके लिए बछड़े को बांध कर लकड़ी के बने एक यंत्र में फंसा दिया जाता है । फिर दोनों अंडकोषों को लकड़ी के बने दो टुकड़ों के बीच फंसा कर धीरे धीरे कसा जाता है जब तक की वे क्रश नहीं हो जाते । बेशक यह तरीका बड़ा क्रूर है । हालाँकि आजकल कैसे किया जाता है , यह पता नहीं ।

इस तरह अंडकोषों को नष्ट करने से उनकी अट्रोफी हो जाति है यानि वे गल जाते हैं . इससे न सिर्फ बछड़ा स्टेराइल ( बाँझ ) हो जाता है बल्कि टेस्टोस्टिरोंन हॉर्मोन ख़त्म होने से उसमे यौन इच्छा भी ख़त्म हो जाती है .

इस तरह गाय का वह ज़वान बछड़ा न प्रजनन करने के लायक रहता है , न ही उसमे मादा के प्रति आकर्षण रहता है । वह बस सारी जिंदगी कोल्हू का बैल बनकर मेहनत मजदूरी करता रहता है । हालाँकि उसे खिला पिलाकर शारीरिक रूप से शक्तिशाली अवश्य बनाया जा सकता है ।

आजकल जबकि कृषि भी पूर्ण रूप से मशीनों द्वारा की जाने लगी है , बैलों की संख्या भी घटती जा रही है । ज़ाहिर है , गाय के नर बछड़े भी कटघर का रास्ता ही नापते हैं ।

सिर्फ सांड और भैंसे ही बच पाते हैं, कटने से । साथ ही जिंदगी का भी भरपूर मज़ा लेते हैं , एक शहंशाह की तरह ।

किस्मत हो तो ऐसी

नोट : हिन्दू धर्म में गाय को माता कहा जाता है । गाय का दूध बुद्धि के विकास के लिए उत्तम माना जाता है ।


Sunday, October 16, 2011

यहाँ नर होना भी गुनाह हो सकता है ---


सन २०११ की जनगणना अनुसार देश में मेल फीमेल रेशो ९४० है यानि १००० पुरुषों पर ९४० महिलाएंकेवल केरल और पोंडिचेरी में महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा हैबाकि सभी राज्यों में पुरुषों की संख्या ज्यादा हैआश्चर्यजनक रूप से मेल फीमेल रेशो केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे कम है , जैसे दमन दीव -६१८, दादर और नागर हवेली --७७५, चंडीगढ़ --८१८ . दिल्ली मे भी यह रेशो ८६६ ही है

महिलाओं की संख्या कम होने का मुख्य कारण है, पुत्र की चाह । पुत्र प्राप्ति के लिए अक्सर लोग लिंग जाँच कराकर फिमेल फीटस को अबोर्ट करा देते हैं ।
इसे रोकने के लिए सरकार ने पी एन ड़ी टी एक्ट लागु किया हुआ है । इसके बावजूद भी यह रेशो बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं हुई है । हालाँकि कुछ फर्क तो आया है ।

क्या आप जानते हैं जो दूध हम पीते हैं , वह कहाँ से आता है । ज़ाहिर है , यह हमारे गाँव और डेरियों से आता है जहाँ पशु पालन होता है । दूध की अधिकांश मात्रा भैसों से आती है । इसका कारण यह है कि जहाँ गाँव में भैंस लगभग हर घर में होती हैं , वहीँ गाय बहुत कम लोग पालते हैं । गायें दूध भी कम देती है और उनके दूध में वसा और प्रोटीन की मात्रा भी कम होती है ।

यहाँ एक महत्त्वपूर्ण और आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि जहाँ भैंस गाँव के लगभग हर घर में मिलती है , वहीँ भैंसा सारे गाँव में बस एक ही होता है । और उसका काम सिर्फ प्रजनन करना ही होता है । यदि गलती से दूसरा भैंसा आ भी जाये तो पहला भैंसा उसे मार मार कर भगा देता है जैसे जंगल में एक शेर दूसरे शेर को मार भगाता है । यह सत्य हरियाणा और दिल्ली के गाँव में मुख्य रूप से देखा जा सकता है । हालाँकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में भैसा गाड़ी में जोतने के काम में लाया जाता है ।

इस तरह गाँव में भैंसें अनेक और भैंसा एक ही होता है

ऐसा कैसे संभव होता है ?

होता यह है कि भैंस से पैदा होने वाले बच्चों में मेल फीमेल की रेशो तो लगभग बराबर ही होती है ।फीमेल( कटिया ) को तो प्यार से पाला पोसा जाता है क्योंकि बड़ा होकर वह दूध देती है । लेकिन मेल ( कटड़ा ) बच्चे को थोडा सा बड़ा होते ही बेच दिया जाता है ।
अक्सर खरीदने वाले इन्हें खरीद कर बूचरखाने में ले जाते हैं और वही उनका अंतिम पड़ाव होता है ।

गाँव के घरों में रह जाती हैं सिर्फ फिमेल ( कटिया ) जो बड़ी होकर भैंस बनती है और दूध देकर मालिक के रोजगार का साधन बनती है ।

इस तरह मानव जाति ने अपने फायदे को ध्यान में रख कर भैसों की प्रजाति पर नियंत्रण रखा हुआ है

पृथ्वी पर सबसे ज्यादा विकसित प्राणी ने दूसरे प्राणियों की नियति अपने हाथ में कर रखी है

भैंसों की प्रजाति में नर और मादा का यह अनुपात सही है या गलत --फैसला आपका



Wednesday, October 12, 2011

जब तक अंतर्राष्ट्रीय लेबल न लगो हो , कवि की छवि ही नहीं बनती ---



मेडिकल प्रोफेशन में एक विशेष बात यह है कि एक डॉक्टर को जिंदगी भर पढ़ते रहना पड़ता है । वैसे भी चिकित्सा शिक्षा में सबसे ज्यादा समय और मेहनत लगती है । इसलिए एक डॉक्टर को अनेकों परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है ।
सब की तरह हमें भी इन परीक्षाओं का सामना करना पड़ता रहा है । लेकिन पिछले कुछ सालों से अपनी बढती गतिविधियों ( एक्स्ट्रा क्यूरिकुलर एक्टिविटीज ) की वज़ह से हमें तो और भी परीक्षाएं देनी पड़ जाती हैं ।

जी हाँ , जब आप कोई नया काम करने का जिम्मा लेते हैं तो वह एक परीक्षा ही होता है । क्योंकि आप पर दबाव होता है , अपेक्षाओं का । परफोर्मेंस एंजाईटी भी होती है ।

अब अपने लिए तो यह एक रोजमर्रा की बात बन गई है । यानि रोज कोई एक नया काम ।

पिछले दिनों अपने क्षेत्र के लॉयंस क्लब के एक पदाधिकारी का फोन आया --सर हम आपको ओनर करना चाहते हैं । मैंने पूछा --किस बात के लिए । उन्होंने बताया कि हम अपने क्षेत्र के चुनिन्दा कवियों को सम्मानित करना चाहते हैं । साथ ही हम आपकी कवितायेँ भी सुनना चाहेंगे ।

अब हमने सोचा कि ये महाशय शायद हमें साहित्यिक डॉक्टर समझ रहे हैं । वैसे भी हम वहां किसी को जानते भी नहीं थे । फिर लगा चलो इसी बहाने कुछ सुनने सुनाने का अवसर तो मिलेगा ।

वर्ना हम जैसे कवियों को तो जेब से खर्च करके भी श्रोता जुटाने मुश्किल होते हैं

निमंत्रण तो स्वीकार कर लिया लेकिन घबराहट भी होने लगी । पहले सम्मान फिर कविता सुनाना । कहीं वापस ही न करना पड़ जाए । वैसे भी यह निमंत्रण अप्रत्यासित था । भई हम कहाँ कवि , कैसे कवि !

खैर दिल कड़ा करके चले गए । और पहली बार हमारा एक वरिष्ठ कवि के रूप में परिचय कराया गया ।

अंतत : शुक्र रहा कि इज्ज़त बच गई और हम सही सलामत ससम्मान लौट कर पाए
चलिए अब हम भी मान्यता प्राप्त क्षेत्रीय कवि तो बन ही गए

अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कवि तो हम तभी बन गए थे जब हमने विदेश का विस्तृत दौरा करते हुए टोरंटो , स्कार्बरा , एजेक्स , एल्गोन्क़ुइन , मोंटमोरेंसी और क्यूबेक जैसे देशों में कविता पाठ किया था । ( कनाडा वासियों से अनुरोध है कि कृपया इस विषय पर चुप्पी साधे रखें ) ।

अब यह अलग बात है कि सभी कवि सम्मेलनों में श्रोता हमारे मेज़बान मित्र और उनके बच्चे ही थे
लेकिन क्या हुआ , अंतर्राष्ट्रीय कवि तो बन ही गए ।

वैसे भी आजकल जब तक यह लेबल लगा हो , कवि की छवि ही नहीं बनती



कविता पाठ करते हुए

आईये विदेश के दौरे में अर्जित ज्ञान पर कुछ प्रकाश डाला जाए :

अपनों के बसे हज़ार घर
घर भी दिखे अति सुन्दर।
पर पति पत्नी में कब बात बिगड़ जाए
हर घर में बसा बस यही डर ।

अठारह पर बच्चे होते ज़वान
फिर मात पिता से होते अंजान
देसी विचार और विदेशी व्यवहार में फंसकर
नादाँ अपनी खो जाते पहचान .

माना कि टेक्नोलोजी का अधिकारी जापान है
अमेरिका की बीमारी , डॉलर का अभिमान है।
लेकिन जहाँ परिवार में परस्पर प्यार है
वह केवल अपना हिंदुस्तान है ।

नोट : भले ही आधुनिकता की छाप यहाँ भी नज़र आने लगी हो , लेकिन हमें गर्व है कि अभी भी हमारा पारिवारिक ढांचा बहुत मज़बूत है



Saturday, October 8, 2011

एक बार फिर व्यर्थ मारा गया --बेचारा रावण

विजयदशमी के साथ ही एक बार फिर रावण दहन संपन्न हुआ . कहीं रावण को फूंका गया , कहीं पैरों तले रौंदा गया . कहीं नेता ने मारा , कहीं राम के अभिनेता ने मारा . हर हाल में रावण को मरना पड़ा . सदियों से यही परंपरा चली आ रही है . रावण को तो मरना ही पड़ता है --बार बार, लगातार हर वर्ष .

कभी कभी सोचता हूँ क्या सचमुच रावण ने इतना बड़ा अपराध किया था जो उसे यूँ बार बार मारा जाता है .
जहाँ तक पढने सुनने में आता है , रावण एक सुशिक्षित , ज्ञानी , विद्वान पंडित था . साथ ही अति पराक्रमी , बहादुर , शक्तिशाली और वरदान प्राप्त योद्धा भी था .

उसके चरित्र में भी कोई दाग नहीं था .

उससे बस एक भूल हो गई जो उसने सीता मैया का अपहरण किया और उन्हें कैद में रखा . इसके अलावा तो कोई और अपराध नहीं किया था . उसने कभी सीता मैया को छुआ तक नहीं .

रावण अपनी जिद्द पर ज़रूर अड़ा रहा और बहुत समझाने के बावजूद भी टस से मस नहीं हुआ . अंतत : यही अहंकार उसे ले डूबा .

लेकिन क्या जब तक धरती पर जीवन रहेगा , रावण को यूँ ही मारा जाता रहेगा ?
एक छोटी सी भूल की इतनी बड़ी सजा !
या अहंकार का होना इतना बड़ा गुनाह है ?

यदि हकीकत की दुनिया में देखें तो जाने कितने ही दुष्कर्मी सड़कों पर आज़ाद घूम रहे हैं और उन्हें कोई सजा नहीं मिलती .

दिल्ली जैसे शहर में रोज लड़कियों का अपहरण होता है. रेप की कितनी ही घटनाएँ होती हैं . महिलाओं से छेड़ छाड़ तो आम बात है . कामकाजी महिलाओं का शोषण हो रहा है . दहेज़ के लालची लोगों द्वारा बहुओं को सरे आम जला दिया जाता है .

बड़े सेठों के बच्चे , नेताओं के बच्चे , आला अफ़सरों के बच्चे --शराब के नशे में सड़क पर निरीह जनता को कुचल देते हैं , रोड़ रेज़ में सरे आम हत्या कर देते हैं, शराब न मिलने पर गोली मार देते हैं .

क्या यह अहंकार की निशानी नहीं है ?

लेकिन उनके विरुद्ध अक्सर कोई कार्यवाही नहीं हो पाती . उन्हें कोई सज़ा नहीं मिल पाती .
यदि मिलती भी है तो बस नाम मात्र .

बिल्ला रंगा को फाँसी हुई , लेकिन फिर सब भूल गए .

निर्दोष जनता को बम से उड़ाने वाले आतंकवादी या तो पकडे नहीं जाते या फिर उन्हें सज़ा ही नहीं हो पाती .

कुछ तो सरकारी मेहमान बन जनता के पैसे पर ऐश कर रहे हैं .

ऐसे में क्या सचमुच रावण को बार बार मार कर हम कुछ हासिल कर रहे हैं ?

लगता है , अब समय आ गया है , हम अपनी परम्पराओं का निष्पक्ष रूप से निरीक्षण करें और समयानुसार संभावित संशोधन करें .

नोट : थोड़ी देर तक धार्मिक भावनाओं और आस्थाओं को भूलकर यदि हम निष्पक्ष चिंतन करें , तो शायद कोई सार्थक बात निकल कर आए .

Thursday, October 6, 2011

इश्क में तेरे यूँ नाकाम हैं ---

एक इश्किया ग़ज़ल , जो लिखनी तो बहुत पहले चाहिए थी , लेकिन लिखी आज है

आप जब से मन को छलने लगे
ख्वाब तब से दिल में पलने लगे ।

डूब कर हुस्न में यूँ खोये रहे
साथ दोस्तों का भी खलने लगे ।

प्यार में तेरे यूँ नाकाम हैं
काम सारे कल पे टलने लगे

छोड़ कर दुनिया को तेरे लिये
आँख बंद कर हम तो चलने लगे ।

ग़ैर नज़र जो उठे उनकी तरफ
डाह से दिल अपना जलने लगे ।

लालची तो इतने ना थे कभी
नोट फिर क्यों पर्स में गलने लगे ।

प्यार में जो 'तारीफ' बने "तरु"
फूल पतझड़ में भी खिलने लगे ।
( तरु = लव टरी )

( चौधराइन को समर्पित , जिनका आज जन्मदिन है )
बीस साल बाद एक बार फिर श्रीमती जी का जन्मदिन दशहरे के दिन आया है

नोट
: ग़ज़ल को सीधी सादी, सरल भाषा में लिखा हैक्या करें , टेढ़ी मेढ़ी कठिन भाषा आती भी नहीं

Tuesday, October 4, 2011

मुझी को सब ये कहते हैं , रख नीची नज़र अपनी ---

कभी कभी मूड ऐसा होता है कि शेरो शायरी करने का दिल करता हैलेकिन जब ज़ेहन से शे' निकल कर ही आएं तो दूसरे शायरों को पढ़कर बड़ा आनंद आता हैआईये आज आपको पढ़वाते हैं , अपनी पसंद के कुछ चुनिन्दा शायरों के कुछ चुनिन्दा शे' --


मुझी को सब ये कहते हैं , रख नीची नज़र अपनी
कोई उनको नहीं कहता , न निकलो यूँ अयाँ होकर ।

( अयाँ = बेपर्दा ) --अकबर इलाहाबादी


रोज कहता हूँ न जाऊँगा कभी घर उसके
रोज उस कूचे में इक काम निकल आता है ।

--ग़ालिब


शायद मुझे निकाल के पछता रहे हो आप
महफ़िल में इस ख्याल से फिर आ गया हूँ ।

--अदम


यह भी एक बात है अदावत की
रोज़ा रखा जो हमने दावत की ।

--अमीर


होश आए तो क्योंकर तेरे दीवाने को
एक जाता है तो दो आते हैं समझाने को ।

--होशियार मेरठी


हम हैं मुश्ताक , और वो बेज़ार
या इलाही ये माज़रा क्या है !

--ग़ालिब
( मुश्ताक = परेशान , बेज़ार = लाचार )




मेहरबां होके बुला लो मुझे चाहे जिस वक्त
मैं गया वक्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूं ।

--ग़ालिब



शक न कर मेरी खुश्क आँखों पर
यूँ भी आंसू बहाए जाते हैं ।

--सागर निज़ामी



अंदाज़ अपना देखते हैं आईने में वो
और ये भी देखते हैं कोई देखता न हो ।

--निज़ाम रायपुरी



मुफ्त दो घूँट पिला दे तेरे सदके वाली
हम ग़रीबों से कहीं दाम दिए जाते हैं ।

--ख़याल

आज बस इतना ही , बाकि फिर कभी

अब आप बताइए कि कौन सा शे' सबसे ज्यादा पसंद आया