बुरा मत सुनो , बुरा मत देखो , बुरा मत कहो . गाँधी जी का यह कथन बचपन से सुनते आए है .
इनमे से केवल कहना ही अपने हाथ में होता है . हालाँकि सभी तरह की बुराइयाँ देख और सुनकर , उनसे बचे रहना भी अपने ही हाथ में है .
लेकिन जब यही बुराइयाँ फिल्मों द्वारा दिखाई जाती हैं तो युवाओं पर कितना प्रभाव छोडती हैं , यह हमने प्रत्यक्ष में जाना , जब हमने आमिर खान की ताज़ा फिल्म देल्ही बेल्ली देखी .
यूँ तो श्री अरविन्द मिस्र जी ने पहले ही सबको सचेत कर दिया था अपनी एक पोस्ट में . और उन्होंने न देखने की सलाह भी दी थी . लेकिन बहुत दिनों से जिंदगी में गंदगी नहीं देखी थी . फिर आमिर खान, जो बोलीवुड के चार खान अभिनेताओं में हमें सबसे ज्यादा पसंद रहे हैं , के बारे में हम सोच भी नहीं सकते थे की सरफ़रोश और लगान जैसे फिल्मों में काम करने या बनाने वाले, आमिर खान कुछ गलत भी कर सकते हैं .
बस इसी जिज्ञासा के रहते हमने फिल्म देखने का विचार बना लिया , पूर्णतया एक क्रिटिक की दृष्टि से .
देखकर यही लगा :
* आमिर खान की सोच को क्या हो गया है ?
* क्या सचमुच हमारा समाज इतना नीचे गिर गया है जो ऐसी फिल्म को पसंद करने लगा है ?
* क्या सेंसर बोर्ड बंद हो गया है या उनकी मति मारी गई है ?
यूँ तो यह फिल्म एक मनोरंजक फिल्म हो सकती थी . कहानी , छायांकन और अभिनय की दृष्टि से फिल्म अच्छी लगी .
लेकिन गालियाँ और फूहड़ सेक्स सीन्स को जिस तरह ज़बर्ज़स्ती घुसेड़ा गया है फिल्म में , वह तुच्छ और विकृत मानसिकता की उपज लगता है .
गालियाँ यदि कहानी का अभिन्न अंग हों तो बुरी नहीं लगती जैसे किसी कोठे वाली के मूंह से सुनना . लेकिन सुशिक्षित युवा जो पत्रकार भी हैं , उनको ऐसी भद्दी बातें करते देखकर किसी भी भद्र व्यक्ति के लिए असहनीय हो सकता है .
आम जिंदगी में भी गालियों का प्रचलन है . सम्बन्धियों पर आधारित गालियाँ जैसे --साला , ससुरा आदि सुनने में ज्यादा अभद्र नहीं लगती .
लेकिन शारीरिक अंगों और शारीरिक संबंधों पर आधारित गालियाँ निश्चित ही सभ्य समाज का अंग नहीं कहला सकती .
गालियों के नाम पर जिस तरह के शब्दों का प्रयोग इस फिल्म में किया गया है , वह सभ्य , सुशिक्षित समाज के मूंह पर एक तमाचा है .
इसका विरोध अवश्य होना चाहिए .
सिर्फ ऐ सर्टिफिकेट देने से सेंसर की भी जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती .
लेकिन हैरान हूँ की इसके विरोध में कुछ विशेष आवाज़ नहीं उठी .
किसी धर्म के नाम पर छोटी सी बात पर लोगों की भावनाएं चोट खा जाती हैं और बवाल खड़ा हो जाता है .
लेकिन यहाँ पूरे समाज की संवेदनाओं और शिष्टाचार पर प्रहार किया गया है और सब चुप हैं .
आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी मिस्टर आमिर खान .
मैं आपसे फिल्म के टिकेट पर खर्च किये गए पैसे में से २५ % के रिफंड की मांग करता हूँ .
यह हमारा फिल्म में दिखाई और सुनाई गई अश्लीलता पर विरोध प्रकट करने का तरीका है .
नोट : सभी ब्लोगर बंधुओं से यही कहना है --हम तो अपना विरोध प्रकट कर चुके , अब आपकी बारी है .
Tuesday, July 19, 2011
मैं आपसे फिल्म के टिकेट पर खर्च किये गए पैसे में से २५ % के रिफंड की मांग करता हूँ --मिस्टर आमिर खान .
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dr sahib
ReplyDeletecreativity they say cannot be curbed by saying its not ok for society
the best way would have been not to see the film at all once the publicity said that it was not worth watching
amir khan must be laughing with the box office ringing
ur protest is of no use
rachna ji , had i not seen the film , i would have never known how filthy one can be .
ReplyDeletenow i know , and i have promised myself not to see any film of aamir khan for one year .
that way --hisab barabar
हम तो इसी लिए नहीं गए .....
ReplyDeleteशुभकामनायें !
डॉ साहब विरोध कैसे होगा?ऐसी भाषा परिपक्वता,और मोडर्न समाज का फेशन जो बन गया है.उस पर तुर्रा यह कि ये यथार्थ है ...
ReplyDeleteमेरी तो समझ से बाहर है ये मानसिकता.
कुछ अनुशंसाओं के बावजूद हमने तो अभी फिल्म देखी नहीं, अगर देखी और पसंद आई तो...
ReplyDeleteडॉक्टर साहिब, जैसे श्री अरविन्द मिश्र जी ने भी और खुलासा किया, जिसके कारण 'मुझे' भी वर्तमान के 'सत्य' का आभास हुआ... और आपने भी मना करने के बावजूद फिल्म देखी क्यूंकि अभी भी आपके मन में शायद 'थ्री इडीअट्स' की छाप मिटी नहीं थी...
ReplyDeleteअब तो आपको विश्वास हो गया होगा कि प्रकृति की फिल्म उल्टी चल रही है जिस कारण हम आत्माएं 'घोर कलियुग' के नज़ारे ले रहे हैं?!... और विचलित हो रहे हैं क्यूंकि हम 'अपस्मरा पुरुष' होते हुए भी पूरी तरह से अभी गांधी समान सतयुग की प्रकृति को पूरी तरह से भूले नहीं हैं...
Only 25%?
ReplyDeleteडाक्टर साहब। कई वर्ष हो गए थिएटर में फिल्म देखे। अब तो यह भी पता नहीं कि आखिरी फिल्म कब देखी थी। बच्चे आते हैं तो अपने लेपटॉप में लोड़ेड कुछ फिल्में मेरे कम्प्यूटर में डाल जाते हैं। उन्हें भी देख नहीं पाता हूँ।
ReplyDeleteशिखा जी , जिस भाषा का इस्तेमाल इस फिल्म में किया गया है , वह टपोरी छाप लोगों द्वारा यूज की जाती है , पत्रकारों द्वारा नहीं . आधुनिक युवा पीढ़ी भी कम नहीं लेकिन कम से कम इतनी रूड और क्रूड नहीं है .
ReplyDeleteराहुल जी , फिर तो शक मिटाने के लिए देख ही लीजिये . :)
जे सी जी , जैसा की मैंने बताया --मैं गंदगी की हद देखना चाहता था . देख लिया . लेकिन आपक बात भी सही है .
निशांत जी , सच कहूँ तो फिल्म मुझे अच्छी लगी . माइनस गालियाँ और फूहड़ सेक्स सीन्स .
ReplyDeleteफिल्म दिल्ली के खानपान पर आधारित है जो सच है . वैसे दिल्ली ही नहीं सारे देश में खाने के मामले में हाइजीन पर कोई ध्यान नहीं देता .
विकसित और अविकसित /विकासशील देशों में यह सबसे बड़ा अंतर है .
द्विवेदी जी , कभी कभार देखने में कोई हर्ज़ नहीं है . अब तो फ़िल्में भी मॉल्स में देखी जाती हैं . सच मानिये ,नई पीढ़ी से ईर्ष्या सी होने लगती है .
हिंदुस्तान कितना बदल गया है पिछले ५-१० वर्षों में . जिंदगी को जिन्दादिली से जीना चाहिए .
bhai ji, mera man to poore paise vapis maangne ka tha.......chalo khair ab aapki sharma-sharmi 25% ka hi claim karenge......jai ho.....
ReplyDelete@किन गालियाँ और फूहड़ सेक्स सीन्स को जिस तरह ज़बर्ज़स्ती घुसेड़ा गया है
ReplyDeleteडॉ साहिब, मेरे ख्याल से गर ये गालियाँ और सेक्स सीन्स न होते तो ये फिल्म पहले दिन ही दम तौड देती...... मैं देखा है लोगों को कह कहे लगाए हुई......
पढ़-लिखे - सभ्य लोग ..... अपने परिवार के साथ गालियाँ सुनने ही तो आये थे.
....... और ये वही लोग थे. जो फिल्म शुरू होने से पहले भारत बाला प्रोडक्षण के जन गन मन पर खड़े हो गए थे..... एकबार मुझे लगा की कहाँ सभ्य लोगों की जमात में आ बैठा....... पर बाद में हाल में गूंजती ठहाकेदार हसीं से लगा कि हाँ ...... अब मैं भी सभ्य हो गया हूँ.
हमने तो देखी नही और अब देखेंगे भी नही.
ReplyDeleteरामराम.
दीपक जी , हमारे पीछे वाली सीटों पर भी कुछ युवा बैठे वही भाषा बोल रहे थे जो फिल्म में बोली जा रही थी . अब वे कितने सभ्य थे यह तो आप समझ ही सकते हैं . लगता है हम एक बार फिर स्टोन एज की ओर जा रहे हैं .पैसा तो लोग किसी तरह भी कम लेते हैं .
ReplyDeleteआज ही टी वी पर देख रहा था --एक काल गर्ल एक लाख रुपया सैलरी पा रही थी .
दीपक जी, आजकल बिकने वाली फिल्में कॉलेज के लड़कों के लिये बनती है, नहीं तो बिकेगी नहीं, यही सत्य है,
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
आपकी दी हुई रिपोर्ट के बाद तो देखने का मन ही नहीं है ...
ReplyDeleteकेवल 25% ?
ReplyDeleteआप बड़े रहमदिल हैं, डॉ दराल !
ताज़्ज़ुब तो यह है कि, पिंक चड्डी वाले श्रीराम सेना का खून इस पर नहीं उबला... शिवसेना भी चुप रह गयी... क्या सँस्कृति के ठेकेदार भी बिकाऊ हैं ? अभिनेता के तौर पर आमिर मुझे अच्छा लगता है.. पर निर्माता के रूप में मैं उसे स्वीकार नहीं कर पाता, वह बड़ी सफाई से अपनी पत्नी किरन राव के योगदान को डकार जाता है ।
रही उसकी हिट फ़िल्मों की बातें, तो
अकेले हम अकेले तुम क्रेमर vs. क्रेमर का देसी वर्ज़न था, किसी को खबर तक न हुई ।
सरफ़रोश जॉन मैथ्यू मैथन द्वारा तेलुगू में कई बदलाव के बाद प्रस्तुत बाजी की ही कहानी है ।
लगान बाँग्ला फिल्म एगारो ( ग्यारह ) का चतुराई भरा रिमेक है..यहाँ फुटबाल को क्रिकेट से रिप्लेस कर दिया गया है
गज़नी की कहानी और प्रोडॅक्शन राइट्स से जुड़े विवादों को लोग भूले भी नहीं थे कि पीपली लाइव के थीम साँग ’ मँहगाई डायन खाये जात है ’ के रचयिता गरीब अध्यापक गया प्रसाद प्रजापति को किस तरह फुसलाया गया, यह बाद में सुर्खियों में आया और.. उन्हें मात्र 16,000 रूपये देकर ( जो कि शायद दिये भी नहीं गये ) गीत के अधिकार ले लिये गये ।
थ्री इडियट्स के रिलीज़ के समय चेतन भगत वाला प्रकरण आप लोग भूले न होंगे ।
कुल मिला कर मामला... " भोली सूरत दिल के खोटे... नाम बड़े और दरशन छोटे.. ट्रॅन ट्रॅनन, ट्रॅन ट्रॅनन, ट्रॅन ट्रॅनन " वाला है ।
खैर मैंनें इसे डाउनलोड करके निर्विकार भाव से देखा, लुत्फ़ न आया और अपने बेटे को कहा कि जा तू भी देख आ.. ताकि यह पता रहे भाषा की सैंक्टिटी ( Sanctity ) बनाये रखने में कौन से स्लैंग नहीं बोलने चाहिये ।
और हाँ, आपकी पिछली पोस्ट बहुत ही अच्छी थी,
ReplyDeleteटिप्पणी देने से चूक गया.. लेकिन दूँगा ज़रूर !
डॉक्टर दराल साहिब, आप सही कह रहे हैं! हमारी माँ यद्यपि अधिक लिखी-पढ़ी नहीं थीं, किन्तु आश्चर्य होता था अपने आरम्भिक दिन एक पहाड़ी कसबे में रह उनको कैसे इतनी हर मौके की कहावतें याद थीं! एक प्राचीन कहावत कई बार दोहराती थी, जिसका शब्दार्थ है, "स्वयं मरे बिना स्वर्ग नहीं देख सकते"!
ReplyDeleteसमाज को समाज का आइना दिखाना शायद आमिर की कोई सोच रही होगी मगर निकृष्ट गाली गलौच परदे पर दिखाना हमारी संस्कृति नहीं है चाहे वो कितनी भी यथार्थ हो ये तो पश्चिमी सभ्यता है की अन्तरंग संबंधों को सलुलायद परदे मर विभत्सता से उतारो और पीढ़ियों को नकारात्मक्त्ता से भर दो . दाराल साहब हम आप की आवाहन पर अपना विरोध अपनी तरीके से व्यक्त करेंगे आमिर की फिल्मों से किनारा कर के जब तक की वो इस कृत्य के लिए सार्वजानिक माफ़ी न मांगे..
ReplyDeleteडॉक्टर साहिब, कमाल है कि 'हिन्दू मान्यतानुसार' उच्चतम मानव कार्य क्षमता कलियुग में, सतयुग की १००% की तुलना में, केवल २५% रह जाती है, और न्यूनतम शून्य होती है युग के अंत में!
ReplyDeletehttp://mypoeticresponse.blogspot.com/2008/12/blog-post_880.html
ReplyDeletedr daral
I wrote long back about Amir Khan promtion of his films
also taarae jameen par was not his venture , he has the habit of stealing
see Stanley ka dibba and you will understand
taarey zamee par was by the one who has now made stanley kaa dibaa
DR.Daral yeh lekh main bhi likhna chahti thi kintu na jaane kisi sankoch vash nahi likh paayi.par aaj aapke blog par dekh kar man ko santushti mili shayad itna prabhaav shali na likh pati.really bahut hi ghatiya kism ki comedy dikhaai hai.sharm aati aajkal ke film banane vaalon ki soch par.main to galti se (mujhe iske a certificate ka bhi pata nahi tha)is picture ko apne led par bachcho ke saath lagakar baith gai jo beech me hi band karni padi.how absurd it was.
ReplyDeleteडॉक्टर सॉब, हमने तो इसीलिए देखी ही नहीं। विरोध का यह तरीका भी ठीक ही कहा ?
ReplyDelete------
बेहतर लेखन की ‘अनवरत’ प्रस्तुति।
अब आप अल्पना वर्मा से विज्ञान समाचार सुनिए..
डॉ अमर , जब तक फिल्म साफ सुथरी और मनोरंजक है , हमें अच्छी लगती है भले ही वह किसी की नकल हो . लेकिन सभी संवेदनाओं और भावनाओं को कुचल कर सिर्फ पैसा कमाने के लिए बनाई गई फिल्म देखकर वास्तव में बड़ा दुःख हुआ . अब आमिर खान के लिए सचमुच दिल में सम्मान कम हो गया .
ReplyDeleteजे सी जी , पुराने लोग बहुत काम की बात कह जाते थे .
कुश्वंश जी , इरादा तो साफ नज़र आता है . आमिर खान के बयानों में भी यह बात झलकती है . भले ही समाज में इस तरह का माहौल भी होता है , लेकिन इसे सार्वजानिक रूप से दिखाना , इसको बढ़ावा देना जैसा है . रात के अँधेरे में , कक्ष की प्राइवेसी में कुछ भी हो , उसे सार्वजानिक तो नहीं दर्शाया जा सकता . बेहूदी बातें करना और सुनना --दोनों बेहूदगी हैं .
राजेश कुमारी जी , सही कहा --ऐसी फिल्म को बच्चों के साथ देखना एक टॉर्चर है . सिर्फ ऐ सर्टिफिकेट देना काफी नहीं है . वैसे भी अडल्ट फ़िल्में यदि ठीक से बनायीं जाएँ तो वल्गर नहीं लगती . लेकिन इस फिल्म में तो हद ही हो गई . पता नहीं सेंसर वालों को क्या हो गया है . या फिर जैसा माहौल है----???
ReplyDeleteअब आपनें भी बता दिया तो भला क्यों देखूं,आपनें सही कहा इसका विरोध होना चहिये और हो भी रहा है.
ReplyDelete--वैसे तो सारा फिल्म जगत ही फूहड़ व मूर्ख , नकलची लोगों से भरा हुआ है ...
ReplyDelete--आमिर की स्वयं की बनायी हुई सारी ही फ़िल्में फूहड़ व उल जुलूल कहानी , भाषा व दृश्यों वाली हैं......पीपली लाइव के सीन देख कर तो उल्टियां होने का जी करता है ...अतः इस फिल्म को देखा ही नहीं...
बुद्धिजीवी का दावा करने वाले ..... और आधुनिक होने के नाते कुछ लोग अपनी गंदगी को भी साहित्य बना कर परोसते हैं ... शर्म आती है ऐसे फिल्मकारों पर ...
ReplyDeleteआज के वक़्त का ताज़ा किस्सा
ReplyDeleteबच्चे अपने माँ पापा को मना करके गए
कि ये मूवी नहीं देखना ...आपके मतलब की नहीं है
कोई उन बच्चों से पूछे की ......माँ बाप हम है या कि वो
मूवी देखने का हक पहले किसका है?
अब आप सब समझ सकते है की आज का समाज और ये मूवी.....
हमारे बच्चों को किस दिशा में लेके जा रहा है ..............?
आपने सही किया डॉ गुप्ता . देखने लायक है भी नहीं .
ReplyDeleteनासवा जी , पैसे के लालची हैं ये लोग . इन्हें अपनी संस्कृति से क्या मतलब !
अफ़सोस अनु जी , हालात ऐसे ही हैं . अब तो बच्चों से ही डरना पड़ता है कहीं डांट न पड़ जाये ऐसी गन्दी फिल्म देखने पर .
एक नजर यहाँ डालियेगा ..
ReplyDeleteडेल्ही बेली को महिमामंडित मत कीजिये
पत्रकार तो मैं भी हूं लेकिन शायद ही कभी फिल्दी भाषा का प्रयोग किया हो...रही बात नेक्स्ट जेनेरेशन पत्रकारों की तो उन्हें भी कम से कम अपने सामने कभी अभद्र शब्दों का इस्तेमाल करते नहीं देखा...आमिर ख़ान शुद्ध व्यवसायी हो गए हैं...विवाद से अपनी तिजोरी भरने की कला में वो माहिर हो गए हैं...
ReplyDeleteडॉ अमर कुमार जी आप भूल गए आमिर ने किस तरह अमोल गुप्ते के कंसेप्ट तारे ज़मीं पर डाका डाल कर निर्देशक के तौर पर भी खुद ही क्रेडिट लूट लिया था...
जय हिंद....
मेरा भी यही प्रश्न था कि केवल 25% क्यों
ReplyDeleteशानदार पैकिंग और सरकारी ठप्पे के बावज़ूद दुकान से लिया हुआ कोई सामान खराब निकले पूरी कीमत वापस मांगते हैं कि नहीं!?
बाकी तो फिल्म देखने के बाद, अगर कभी देख ली तो!
डॉ साहब यह दौर ही ऐसा है टी वी के हसोड़े कौन सी शालीनता को तार तार नहीं कर रहें हैं .और कुछ बे डौल आकार के लोग उस कथित हास्य पर भी बे तहाशा हँसतें हैं .यह संक्रमण का दौर है गाद जितनी तेज़ी से उठ रही है ,बैठेगी ज़रूर ,अफ़सोस अभी वक्त लगेगा ..रही पैसे वापस मांगने की बात यहाँ तो हर दूकान पर भी लिखा होता है बिका हुआ समान वापस नहीं होगा ,किसी सामान की कोई गारंटी नहीं .
ReplyDeletedaral sir charcha manch par aapki pravishti dekhi aur waha se safar tay karti yaha tak aa gai.aapka lekh padhkar bahut accha laga.aabhar
ReplyDeleteडॉ अनुराग , पढ़ लिया . आपने फस्ट डे फस्ट शो देखकर सही आंकलन किया है . बस हमें दो तीन हफ्ते बाद देखने की आदत है ताकि हिट फिल्म ही देख पायें . लेकिन आजकल हिट का मतलब फिट नहीं रहा .
ReplyDeleteसही कहा , खुशदीप भाई . सबसे बड़ा ऐतराज़ ही यही है की पढ़े लिखे लोगों को ऐसी भाषा बोलते दिखाया गया है, सड़क छाप टपोरियों की तरह .
ReplyDeleteपब्ल जी , माल को तो हज्म कर गए . इसलिए नापसंद २५ % की ही मांग कर रहे हैं .
वीरू भाई सही कह रहे हैं आप . हास्य के शौक़ीन होते हुए भी हम भी ये फूहड़ प्रोग्राम नहीं देखते . लेकिन उस दुकान पर दोबारा न जाने का फैसला तो कर ही लिया है . देखते हैं कब तक चलेगी यह दुकान .
शुक्रिया जी , कनु जी . आते रहिये .
डॉक्टर साहिब, आप खुश होगे जान कर कि समाचार पत्र के अनुसार सेंसर बोर्ड को नोटिस तो मिल गया इलाहाबाद हाई कोर्ट के लखनऊ बेंच से, किन्तु चार माह का नोटिस मिला है,,, और तब तक सभी ने यह फिल्म देख लेनी है... शायद भविष्य में इसका लाभ हो...
ReplyDeleteहमने पिल्लम नहीं देखी तो गाली क्या दें डॉक्टर साहब :)
ReplyDeleteचार माह के स्थान पर कृपया चार सप्ताह पढ़ें
ReplyDelete"गालियाँ यदि कहानी का अभिन्न अंग हों तो बुरी नहीं लगती जैसे किसी कोठे वाली के मूंह से सुनना . लेकिन सुशिक्षित युवा जो पत्रकार भी हैं , उनको ऐसी भद्दी बातें करते देखकर किसी भी भद्र व्यक्ति के लिए असहनीय हो सकता है."
ReplyDeleteबिल्कुल..मुझे पचास फीसदी वापस चाहिए!
जे सी जी , चलिए कुछ तो पहल हुई इसके विरोध में .
ReplyDeleteसही कहा अरविन्द जी , पचास ही चाहिए .
दरअसल,अब कई फिल्में केवल मेट्रो के युवा वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई जाने लगी हैं। ऐसे दर्शकों के लिए यह पैसा वसूल फिल्म है। संस्कार और शिष्टाचार के आवरण तले जो दमित भावनाएं होती हैं,यह फिल्म उनका निकास-द्वार है। हॉल में आपने भी ऐसे दर्शकों को खी-खी करते देखा होगा।
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