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Wednesday, December 29, 2010

मंडे की मंडी पर मंदी की मार---

नव वर्ष अब आने ही वाला है, नई आशाओं के साथ। लेकिन यदि गुजरे वर्ष पर एक नज़र डालें तो क्या कुछ बदला है ? आप स्वयं ही देख लीजिये ।

प्रस्तुत है , पिछले साल महंगाई पर लिखी एक कविता , जो आज भी उतनी ही ताज़ी लगती है ।

एक् सुबह जब हमने अखबार उठाये
हैडलाइंस पढ़कर मन ही मन मुस्कराए।

लिखा था,महंगाई दर शून्य से नीचे चली जा रही है
हमने सोचा मतलब, मंदी की मार में कमी आ रही है।

खुश होकर पत्नी से कहा,
देखो, सावन की काली घटा चढी है, कुछ चाय पकोडे खिलाओ
पत्नी बोली, टोकरी खाली पड़ी है, पहले सब्जियाँ खरीदकर लाओ।

आज लगती है यहाँ मंडे की मंडी
सब्जियां मिलती हैं वहां सबसे मंदी।

तो भई मन में पकोडों की तस्वीर बनाये
हम चल दिए मंडी की ओर थैला उठाये।

मंडी जाकर जब हमने नज़र घुमाई
और फूल सी फूलगोभी नज़र आई।

तो मैंने सब्जीवाले से पूछा, भैया गोभी क्या भाव ?
वो बोला १५ रूपये
मैंने पुछा, किलो ? वो बोला जी नहीं, पाव।

ये सुनकर हम तो झटका खा गए
आसमां से जैसे, धरा पर आ गए।

फिर शर्माए से बोले,
अच्छा बीन्स का रेट बतलाओ
वो बोला, ये भी १५ में ले जाओ।

मैंने पूछा,
क्या आज सारी सब्जियां १५ रूपये पाव हैं ?
वो बोला जी नहीं, यह १०० ग्राम का भाव है।

सब्जियों का रेट सुन मन हिम्मत खोने लगा
उधर अपनी आई क्यु पर भी शक होने लगा।

इसी उधेड़बुन में हमें, हरे हरे नींबू नज़र आ गए
लेकिन अपुन तो वहां भी चक्कर खा गए।

साहस बटोरकर कहा,बस इनका रेट और बतला दो
वो खीजकर बोला बाबूजी , अब कुछ ले भी तो लो।

अच्छा चलो आप , २५ के ढाईसौ ले जाइए
मैंने कहा भाई, मुझे तो बस ५ ही चाहिए।

बाबूजी, इतने कम में कैसे काम चलेगा
५ ग्राम में तो एक टिंडा भी पूरा नहीं चढेगा।

अब हम समझे,
सब्जीवाला तो शोर्टकट मार रहा था,
पर अपनी तो इज्ज़त उतार रहा था।

अब तो हम मन ही मन बड़े शर्मिंदा थे,
क्योंकि ये भी जान चुके थे,कि वो नींबू नहीं टिंडा थे।

फिर भी इज्ज़त तो बचानी थी
इसलिए जिद भी दिखानी थी।

सो अकड़कर कहा, मुझे तो पांच टिंडे ही चाहिए
२५ रूपये लेकर वो बोला,मुझे क्या , ले जाइए।

मैंने महंगाई को जमकर कोसा,
मन ही मन हिसाब लगाकर सोचा।

भई पांच रूपये का मिला एक टिंडा !
अरे ये टिंडा है या,शतुरमुर्ग का अंडा।

एक दूकान से तो हम , बिना भाव पूछे ही वापस आ गए
वहां रखे प्याज़ देखकर ही , आँखों में आंसू आ गए ।

फिर बस कुछ अदरक, धनिया, आलू, टमाटर
और मटर की छोटी छोटी पोटलियाँ बनवाकर।

जब घर पहुंचे तो पत्नी बोली
ये क्या, खाली पड़ी है सारी झोली।

अज़ी सब्जियां खरीदने गए थे,ये क्या उठाकर लाये हैं?
मैंने कहा भाग्यवान,
रूपये तो आपने बस ५०० दिए थे, पर
हमारी सौदेबाजी देखिये,फिर भी पूरे ५० बचाकर लाये हैं।

प्रिये मंडे की मंडी पर,पड़ गई है मंदी की मार
सब्जियां खरीदने को अगले मंडे ,रूपये देना पूरे हज़ार।

भले ही महंगाई दर ढाई अंक नीचे ढह गई है,
लेकिन सब्जियाँ अब केवल दर्शनार्थ रह गयी हैं।


Sunday, December 26, 2010

आस्था -- या अंधविश्वास ? आस्था की इन तस्वीरों को देखकर आपका दिल दहल सकता है ।

हमारे देश में विभिन्न धर्मों , जातियों और समुदायों के लोग मिलकर रहते हैं सबकी अपनी अपनी धारणाएं , मान्यताएं और धार्मिक विश्वास हैं

लेकिन एक बात जो बहुत खलती है , वो है समाज में व्याप्त अंध विश्वास ।

टी वी पर एक विज्ञापन बार बार दिखाया जा रहा थासभी बिमारियों का शर्तिया इलाज़ --बाबा --???--गृह कलेश , संतान की प्राप्ति , नौकरी , प्रेम विवाह , वशीकरण , ओपरा पराया , जादू टोना , मर्दाना कमजोरी आदि सभी रोगों के शर्तिया इलाज़ के लिए एक बार मिलें --हमारी फीस मात्र २५१ रूपये --गारंटी कार्ड के साथसाथ में पता और फोन नंबर भी

भले ही चिकित्सा के क्षेत्र में आज हम अग्रणी हैं । मेडिकल टूरिज्म भी बढ़ने लगा है । लेकिन आज भी हमारी भोली भाली जनता अपने बच्चों का किस तरह इलाज़ कराती है , आइये देखते हैं ----



यह महाशय क्या कर रहे हैं ? ये एक बच्चे का इलाज़ कर रहे हैं इसे देखकर आप पर क्या बीत रही होगी , यह हम समझ सकते हैं

और इन्हें देखिये --ये भी बच्चों का भला कर रहे हैं ? उन्हें २० फुट ऊंचाई से नीचे फेंककर।



पकड़ लिया --हो गया बेडा पार


ये नंगे बाबा --- ज़नाब तो मूंह पर थप्पड़ मारकर आशीर्वाद दे रहे हैं । आखिर यहाँ प्रसाद लेने वालों की भी तो कमी नहीं ।


और यह क्या ? इन बच्चों को ज़मीन में क्यों गाड़ा हुआ है ?


अरे भाई , ये बच्चे मानसिक तौर पर विक्षिप्त हैं यहाँ नका भी इलाज़ हो रहा है

इसी तरह की जाने कितनी ही भ्रांतियां हमारे समाज में फैली हैं

बच्चों को मगरमच्छ के मूंह में डालकर, बावली के ठंडे पानी में डुबकी लगवाकर , या पुण्य प्राप्त करने के लिए खुद को गाय भैंसों के पैरों तले रौन्दवाकर , या फिर एक दूसरे को पत्थर मारकर हम क्या पुण्य प्राप्त करते हैं ?


जाने हम कब समझेंगे ?

नोट : सभी तस्वीरें टी वी के न्यूज चैनल्स से ली गई हैंयह पोस्ट किसी धर्म या समुदाय विशेष के विरुद्ध नहीं लिखी गई है

Thursday, December 23, 2010

दिल्ली की शादियाँ --अंतिम भाग

पिछली पोस्ट में आपने शादियों का एक पिछड़ा हुआ रूप देखा । आजकल शादियों में ऐसी बद इन्तजामी देखने में नहीं आती । क्योंकि आजकल शादियाँ भी एक इवेंट मेनेजमेंट हो गई हैं । बस ऑर्डर बुक कराइए और निश्चिन्त होकर एन्जॉय करिए ।

आज प्रस्तुत है दिल्ली की शादियों के अनेक रूप जो हमने पिछले दो साल में अटेंड की गई शादियों से लिए हैं

)
एक
शादी के कार्ड में लिखा था, बारात
ठीक सात बजे पहुँच जाएगी ।
और शादी की सब रस्में
ग्यारा बजे तक पूर्ण हो जाएँगी ।

भाग दौड़ कर साढ़े आठ बजे
जब हम विवाह स्थल पर पहुंचे
तो देखा , कुछ लोग इधर उधर चक्कर लगा रहे थे
पता चला वे टेंट वाले थे , टेबल चेयर लगा रहे थे ।

हमने पत्नी से कहा , चलिए
वही काम फिर एक बार करते हैं
बाहर गेट पर खड़े होकर ,
बारात का इंतजार करते हैं ।

आधे घंटे बाद एक नवदम्पत्ति आये
हमें देख बड़े प्यार से मुस्कराए ।

लड़का बोला , बेटी की शादी मुबारक हो
हम लड़के वालो की तरफ से आये हैं ।
मैंने कहा बेटा गलत मत समझो
हम भी बारात में ही आए हैं ।

तभी हिलते डुलते एक बुजुर्ग आए
आते ही हम पर चिल्लाये ।
मैंने तो मंत्री जी से फोन करवाया था
आप यहाँ कैसे , ये लॉन तो हमने बुक करवाया था ।

मैंने कहा श्रीमान , तैश में मत आइये
इस पर आप का ही अधिकार है ।
लेकिन जल्दी से टेंट लगवाइए ,
बारात आ चुकी है , बस दुल्हे का इंतजार है ।

2)

आजकल बाराती तो सीधे
विवाहस्थल पर पहुँच जाते हैं ।
और दुल्हे के साथ एक घोड़ी , दो रिश्तेदार
और बाकि बैंड वाले ही रह जाते हैं ।

इधर दूल्हा दुल्हन के पिता मेहमानों का
गेट पर ही मिलकर , करते हैं स्वागत ।
और दूल्हा आये या न आये , अपनी बला से
बाराती घराती सब जमकर, उड़ाते हैं दावत ।

फिर जाते जाते दूल्हा
दिख गया तो बधाई।
वर्ना लिफाफा पिता को सौंप ,
काम तो निपटा ही दिया था भाई ।

शादियों में डी जे का भी ,
इस कदर होता है शोर ।
कि बात करने के लिए भी ,
लगाना पड़ता है जोर ।

वैसे गौर से देखा जाये तो
बात करने की नौबत ही कहाँ आती है ।
तीस आईटम खाओ तो पता चलता है
अभी तो चालीस और बाकि हैं ।

कुछ लोग तो ऐसे अहंकारी
कि बुलाने पर भी नहीं आते है ।
कुछ ऐसे बेशर्म कि बिन बुलाये
टेंट फाड़कर ही घुस जाते हैं ।

फिर दस बीस उड़ाते हैं गुलाब जामुन
और बाकि से भर ले जाते हैं दामन ।

)

इस भीड़ भाड़ में , कौन है अपना कौन पराया
किसने निमंत्रण स्वीकारा , कौन नहीं आया ।
दूल्हा कैसा दिखता है , दुल्हन की कैसी सूरत है
यह न कोई देखता है , न देखने की ज़रुरत है ।

क्योंकि आजकल मेहमानों को वर बधु से
ज्यादा
प्यारा होता है खाना ।
और मेजबानों को मेहमानों से ज्यादा
प्यारा , लिफाफों का आना ।

और इसी आवागमन की शिकार
प्रेम संबंधों की ख्वाइश हो गई है ।
शादियाँ आजकल काले धन की
बेख़ौफ़ नुमाइश हो गई हैं ।

Monday, December 20, 2010

दिल्ली की शादियाँ --भाग II

इससे पहले कि हम दिल्ली में शादियों की श्रंखला को आगे बढ़ाएं, मैं आभार प्रकट करना चाहता हूँ , मर्मज्ञ: "शब्द साधक मंच"वाले श्री ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी का , जिन्होंने अंतर्मंथन का सौवां फोलोवर बनकर इस नाचीज़ को भी ब्लॉग जगत के विशिष्ठ ब्लोगर्स की श्रेणी में ला खड़ा कर दिया ।

आखिर कछुए की चाल चलते हुए हमने भी सीमा रेखा को छू ही लिया

पिछली पोस्ट में हमने शादियों में व्यर्थ होने वाले खाने के बारे में चर्चा की ।

आइये अब देखते हैं शादियों का एक और रूप । यदि शादी में बदइन्तजामी हो जाए तो क्या हाल होता है । प्रस्तुत है आँखों देखी , ऐसी एक शादी का आँखों देखा हाल :

एक शादी में हमने , देखा अज़ब नज़ारा
बरात में जाने कैसे , शहर पहुँच गया सारा

जब खाना खुला पौने ग्यारा , तो ऐसी अफ़रा तफ़री मची
कि पलक झपकते ही प्लेट , और चम्मच एक बची

खाने की तलाश में लोग , खानाबदोश से भटक रहे थे
एक प्लेट में तीन तीन मिलकर , खाना गटक रहे थे

एक बेचारा तो लिए हाथ में , खाली फ़ॉर्क घुमा रहा था
दूसरा किस्मत का मारा , सीधे डोंगे में ही खा रहा था

लोग भोजन के नवीनतम आविष्कार कर रहे थे
गुलाब जामुन को उछाल , सीधे मूंह में धर रहे थे

अस्तित्त्व के इस संघर्ष में ,उस दिन ऐसी नौबत आई
जीवन में पहली बार हमने भी , आइसक्रीम हाथ से खाई

क्रमश:---

Friday, December 17, 2010

सर्दियों का मौसम और दिल्ली की शादियाँ, तौबा तौबा ---

लगभग पौने दो करोड़ आबादी वाला दिल्ली शहर

इसे पंडितों की मेहरबानी कहें या हमारा विश्वास , शादियों के लिए वर्ष में गिने चुने दिन । नतीजा , एक दिन में हजारों शादियाँ । कभी कभी एक दिन में तीन तीन शादियों के निमंत्रण ।

शादियाँ भी अब गली के नुक्कड़ या पार्क में नहीं , बल्कि ३०-३५ किलोमीटर दूर किसी फार्म हाउस में । जाने में ही लगे दो घंटे का समय । यदि ट्रेफिक जाम में फंस गए तो सारा मज़ा किरकरा ।



पहले तो निमंत्रण पत्र देखकर ही आप सकते में सकते हैं

आजकल शादी के कार्ड नहीं छपवाए जाते , बल्कि डिजाइनर पैक बनवाए जाते हैं , जिसमे एक तरफ आधा किलो बादाम , दूसरी ओर सिल्क के कपडे में लिपटा असंख्य पर्तों वाला कार्ड , जिसमे कम से कम चार दिन का प्रोग्राम बुक होता है ।

सिल्क का कपडा भी इतना कि उसमे किसी आधुनिका की दो तीन जोड़ी ड्रेस बन जाएँ

पुरुषो को तैयार होने में सिर्फ दस मिनट लेकिन महिलाओं को चाहिए दो घंटे ।

इस पर विडंबना यह कि फार्म हाउस की खुली हवा में थ्री पीस सूट में भी ठण्ड से ठिठुरने लगते हैं दिसंबर की सर्दी में ।
लेकिन मात्र एक साड़ी में लिपटी शुद्ध भारतीय नारी स्वेटर या शाल को हाथ पर लटकाए मज़े से चटकारे लेकर चाट पापड़ी खाती नज़र आयेंगी

इधर मेन गेट पर बैठे शहनाई वाले या तबलची ढोलक बजाएं , उधर स्टेज के पास बना डी जे का फ्लोर और चिंघाड़ता हजारों वाट का म्यूजिक सिस्टम हिंदी फिल्मों के लेटेस्ट हिट सोंग्स परोसता हुआ ।

आप चाहें भी तो किसी से बात करने की जुर्रत नहीं कर सकते

वैसे भी आजकल कौन किस से बात करने में दिलचस्पी रखता है

रही सही कसर बरात में छूटने वाली चाइनीज आतिशबाजी पूरी कर देती है

खाने की ओर देखें तो बड़े से बड़ा विद्वान भी चकरा जाए कि क्या खाएं , क्या न खाएं ।

उत्तर भारतीय , दक्षिण भारतीय , चाइनीज , कॉन्टिनेंटल , इंटर कॉन्टिनेंटल , यहाँ तक कि एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल व्यंजनों की कतार देखकर समझदार भी असमंजस में पड़ जाएँ

हलवाई की पूरी दुकान देखकर डायबिटिक्स भी अपनी बीमारी भूल जाएँ ।

रात के खाने में तीन रोटियां खाने वाले सीधे सादे प्राणी को ३०० व्यंजन देखकर अपने गरीब होने का अहसास होने लगता है

अंत में यदि आपको अपने मेज़बान के दर्शन हो जाएँ और आप अपना लिफाफा सौंपने में कामयाब हो जाएँ तो जीवन कृतार्थ लगने लगता है

ऐसी होती हैं दिल्ली की शादियाँ


ज़ाहिर है , मेहमान कितने ही हों , लेकिन देखकर यही लगता है कि इस तरह की शादियों में खाना बहुत बचता होगा । मैंने एक केटरर से पूछा कि वो इस बचे हुए खाने का क्या करते हैं ।

उसने बताया कि वो इसे फेंक देते हैं

अब ज़रा सोचिये यदि वह सच बोल रहा था तो यह कितना भयंकर सच होगा

जिस देश में अन्न पैदा करने वाला किसान भूख और क़र्ज़ के बोझ से मर जाता है , वहां खाने की ऐसी बेकद्री !

और यदि वह झूठ बोल रहा था तो , उस खाने का क्या होता होगा , यह सोचकर ही दिल कांपने लगता है

यदि आपको पता चल जाए कि उस बचे हुए खाने का क्या होता है तो शायद आप शादियों में खाना खाना ही छोड़ दें

नोट : शादियों के मौसम में अगली पोस्ट में पढना भूलें , शादियों के चटपटे अनुभव , हास्य कविता के रूप में

Tuesday, December 14, 2010

अतिथि तुम कब जाओगे --एक संस्मरण---.

कहने को तो तेरहवीं १३ दिन की होती है लेकिन अपने लिए तो पूरे दिन चली

पिछले चार सप्ताह में परिवार और सम्बन्धियों में चार लोगों का देहांत
इन्ही दिनों के आस पास रिश्तेदारियों में शादियाँ और इतने ही मित्रों का निमंत्रण

जिंदगी में एक साथ ऐसे विरोधाभास का सामना पहले कभी नहीं किया था

लेकिन अब कोशिश करते हैं जीवन की रेल को फिर से पटरी लाने की

प्रस्तुत है , इस अवसर से चुराया एक यादगार अहसास

हरियाणवी लोगों का शोक प्रकट करना भी शोक नहीं होता , विशेष कर किसी बुजुर्ग के देहांत पर एक मिनट से ज्यादा चुप बैठना उनके स्वाभाव में ही नहीं है कभी किसी गाँव में जाकर देखें तो आप हैरान रह जायेंगे

लेकिन हम तो शहर में रहकर ही हैरान हो गए

हुआ यूँ कि पिता जी के देहांत पर गाँव से हमारे एक चाचा जी धमके , अपना फ़र्ज़ समझ कर
ठीक वैसे ही जैसे --अतिथि तुम कब जाओगे --फिल्म में परेश रावल

एक तो ज़नाब अस्थियों के साथ गंगा तक का सफ़र कर आए आते ही बोले --गला ख़राब हो गया बीडी पी पी कर अब तो यह हुक्का पीकर ही ठीक होगा हमने कहा --यहाँ हुक्का कहाँ मिलेगा
बोले फ़िक्र करो , मैं कल लेकर आऊंगा





अब हमारी हालत ऐसी कि काटो तो खून नहीं हमने उन्हें बहुत समझाया कि यहाँ शहर में हुक्का कोई नहीं पीता लेकिन वो कहाँ मानने वाले थे

गाँव क्योंकि दिल्ली में ही है और ज्यादा दूर नहीं है अगले ही दिन पहुँच गए साज़ सामान के साथ

लम्बे पतले , छरहरे बदन के , गोरा चिट्टा रंग , मूंह पर बड़ी बड़ी कटार सी मूंछें, सफ़ेद धोती कुर्ता , उस पर काला बंद गले का कोट , सर पर साफ़ा और आँखों पर काला चश्मा --देखकर एक बार तो विश्वास ही नहीं हुआ कि ये वही चाचा जी हैं या कोई फिल्म स्टार

उधर करीने से सजाया हुआ हुक्का , उपलों की एक टोकरी , एक डब्बा तम्बाखू --आते ही ड्राइंग रूम के साथ वाले बेडरूम में अपना डेरा जमा लिया

घर के पिछले आँगन में आग जला दी गई और शुरू हो गई हुक्के की गुडगुडाहट

इत्मिनान से हुक्का पीने के बाद हुआ ऐलान , उनके नित्य कार्यक्रम का

सुबह बजे चाय , दिन में दो बार खाना --सुबह १० बजे और शाम को बजे

मेहमानों के लिए रखे गए चाय बनाने वाले के लिए विशेष निर्देश --

चाय में चीनी डबल --चाय पत्ती डबल , मात्रा भी डबल जिस समय कहा जाए उसी समय दी जाये --चाय के लिए पूछा नहीं जाए
यदि इन नियमों का उल्लंघन हुआ तो डांट खाने के लिए तैयार रहा जाए

७२ वर्षीय इन चाचा जी से बहुत कम ही गुफ्तगू हुई थी अभी तक
लेकिन इन - दिनों में उनके बारे में बहुत कुछ जानने का अवसर मिला
पढने का शौक है --रामायण , और कई तरह की कथा पुराणों की नई नई पुस्तकें देखकर मैं तो दंग रह गया

ऊंचा सुनते हैं फिर भी पक्के घुमक्कड़ हैं आधी जिंदगी उन्होंने घूमने में ही बिता दी
मैंने कहा --आपके लिए एक सुनने की मशीन ला दूँ
इशारा करके बताया कि काम की बात तो सुन लेता हूँ फालतू सुनकर क्या करूँगा

जहाँ बाकि सब लोग तो रात को चले जाते थे , वहीँ ये चाचा जी रात में अकेले नीचे वाले फ्लोर पर ठाठ से बिस्तर लगाकर सोते थे

जाने कब इस अज़ीबो गरीब पात्र से प्यार सा हो गया

पूरे सप्ताह सब भाइयों ने मिलकर उनकी जो खातिरदारी की ,उसे वे ही नहीं हम भी कभी नहीं भूल पाएंगे

ठीक वैसे ही जैसे फिल्म--- अतिथि तुम कब जाओगे ---में परेश रावल को

अंत में एक लतीफ़ा उनकी तरफ से :

एक हरियाणवी, डॉक्टर से --डॉक्टर साहब दो साल पहले बुखार हुआ था
डॉ : अब क्या हुआ ?
हरियाणवी : कुछ नहीं यहाँ से गुजर रहा था आपने नहाने के लिए मना किया था सोचा आप से पूछ लूँ , अब नहा लूँ क्या ?

नोट : वैसे ये चाचा जी रोज सुबह हमारे उठने से पहले ही ठंडे पानी से नहा धोकर तैयार होकर हुक्का पीते नज़र आते थे